शनिवार, 26 सितंबर 2015

क्या तुमने उसको देखा है



वो भटक रहा था यहाँ - वहाँ
ढूंढा ना जाने कहाँ - कहाँ
जग चादर तान के सोता था
पर उन आँखों में नींद कहाँ ।

गंगा जल का भी पान किया
पोथी-पुस्तक सब छान लिया
उन सबसे मिला जो कहते थे
हमने ईश्वर को जान लिया। 

दिल में जिज्ञासा का बवाल
मन में उठते सौ-सौ सवाल
समझाते वो पर समझें ना
तर्कों के फैले मकड़ -जाल। 

ज्ञानी - ध्यानी, योगी महंत
बहुविध से उसको समझाते
क्या तुमने उसको देखा है
सुनते तो बस सकुचा जाते

क्या उसको कभी न पाऊंगा
न मेरे हाथ में  रेखा है
क्या कोई नहीं जो यह कह दे
' हाँ, मैने उसको देखा है।

दक्षिणेश्वर में एक योगी है,
वो हरि  लगन में रहता है
काली की ज्योती है उसमें,
वो उसकी धुन में रहता है

अनपढ़ योगी औ’ ब्रहज्ञान
मन ये तो समझ न पाता था,
पर जाने क्या आकर्षण था
जो बरबस खींचे जाता था।

सैंकड़ों प्रश्न,जिज्ञासाएं
और अविश्वास ने पर खोले
मन में लेकर आशंकाएं
वे परमहंस से यूँ बोले-

वेद पुराण मुझे न सुनना
आज -नहीं , जाओ कल आना
मुझे आज औ’ अभी बताओ
क्या तुमने उसको देखा है ?

है वो कितने शीशों वाला
नीला-पीला है या काला ?
मोर मुकुट या नाग की माला
या है उसके मुंह में ज्वाला ?

या है वो एक दिव्य अग्नि – सा
यज्ञों के पावन प्रकाश सा
निराकार या फिर वो सगुण है,
मुझे बताओ क्या-क्या गुण है ?

मुझको लगता वो एक छल है
पंडों का बस वो एक बल है
उसका नाम है इनका धंधा
मैं समझा ये गोरखधंधा।

वरना तुम मुझको बतलाओ
जिसो कण-कण में गीता है
जिसके घर-घर राम नाम है
वो भारत फिर क्यों गुलाम है ?

ये भूखा फिर क्यों भूखा है ,
ये प्यासा, फिर क्यों प्यासा है
है दीनदुखी, क्यों दीनदुखी
क्यों टूटी उसकी आशा है ?

क्यों  हैजा है , क्यों अकाल है
क्यों जन-जन का  बुरा हाल है 
केवल निर्धन को ही डसता
ये कैसा  निर्दयी काल है  ?

प्रश्न सैकड़ों , प्रश्न निरंतर,
मुझको मथते,
न जगने,न सोने देते,
प्रश्न चुटीले, प्रश्न नुकीले
ना हँसने,ना रोने देते

मौन रहे कुछ क्षण गुरूवर
गंभीर हुए,फिर हर्षाये
नदिया का स्वागत करने को
सागर ज्यों बाहें फैलाए

हॉं मैंने उसको देखा है
जैसे तुमको देख रहा हू।

मेरे संग-संग वो रहता है
मेरे संग उठता सोता है
जब- जब मैं व्याकुल होता हूँ
मेरे संग-संग वो रोता है।

वो जड़ में है,चेतन में है
वो सृष्टि के कण-कण में है
तू ढ़ूंढ रहा है उसे कहाँ,
वो तेरी हर धड़कन में है।


पर जब तू उसको देखेगा,
फिर देख न पाएगा माया,
हो अँधकार से प्रीत जिसे
उसने प्रकाश को कब पाया !

कैसा भ्रम है,कैसा संशय
तू ही तो ज्ञान का स्रष्टा है
औरों नें केवल सुना सत्य,
भारत ही उसका द्रष्टा है

कर्म-कर्म निष्काम कर्म
हर क्षण अपना उसको दे दो
ये पल-दो-पल का जीवन है
आलस में इसको मत खो दो!

वो एक टांग पर खड़ा हुआ,
वो अंगारों चढ़ा हुआ,
वो तो पानी पर चलता है
वो जिंदा सांप निगलता है।

ये जादू भी कोई जादू है
ये साधु भी कोई साधु है ?

एकांत गुफा, व्यक्तिगत मोक्ष
सन्यास नहीं,पलायन है
ये कैसा उसका आराधन है
नर ही तो नारायण है !

कर्मों से मुक्ति , मुक्ति नहीं
फल से मुक्ति ही मुक्ति है,
जो तम का बन्धन दूर करे
वे युक्ति ही तो युक्ति है ।

तेरे संचित कर्मों के क्षण
उड़ जाते बन वर्षा के कण
ये ही बादल,ये ही बिजली
ये धूप-चांदनी खिली-खिली।

ये ही सावन, है यही फाग
गाते मेघ मल्हार राग।

सह कर मौसम की अथक मार
झंझावात से किया प्यार

उससे  स्वेदकण पाती ही
प्यासी धरती मुस्काती है
ये उसके यौवन की मदिरा,
वो फिर जवान हो जाती है।

दामिनी दमकती दमक-दमक
धरती गाती है झनक-झनक

वे फिर बसंत लेकर आता
महका करते हैं घर आंगन
बन बीज उगा जो माटी में
करता वसुधा का अभिनंदन।

सच का उजियारा यही तो है
हम सबका प्यारा वही तो है।

वो ही केशव,वो ही त्रिपुरारी,
वो ही तो है सम्पूर्ण काम
शंकर ,माधव,ब्रह्मा,विष्णु
ऐसे जाने कितने सुनाम।

हो मोर मकुटु या जटा ,शँख 
या हो कांधे पर धनुष-बाण
हों राम,मोहम्मद या ईसा
शिव हों या फिर करूणानिधान ।

जैसा जो मन में भाव भरे
वैसा ही उसका नाम धरे

मर्यादा पर जो चले सदा
मर्यादा पुरूषोतम  वही तो है
सबके मन को मोहित करता
मनमोहन-नटनागर  वही तो है।

जब होड़ लगी हो अमृत की
विष धारे  शंकर  वही तो है।

है एक सत्य,जिसको हम तुम
नाना रूप में पाते हैं
है एक वही ,फिर पाखंडी
क्यों अलग-अलग बतलाते हैं।

काया-माया ,ये आकर्षण
सब नश्वर है,सब नश्वर है
तू देह नहीं,ना रक्त चाम ,
तू ईश्वर है,तू ईश्वर है

मानव की छाया छूने से
होते जो पतित गिर जाते हैं
सूर्यास्त तुरंत होता उनका
वो घोर तिमिर में जाते हैं।

अविजित,समदृष्टा  नारायण
निष्कपट प्यार से हारे हैं ।
सोने की लंका ठोकर पर,
शबरी के बेर ही प्यारे हैं।

गीता के चिर आदर्शों को
कर्मों को तूने कब ढाला
बिठलाकर उसको मंदिर में
पहना दी फूलों की माला 

लहरें देती हैं आमंत्रण
ये बिजली तुम्हें बुलाती है,
जिसमें पानी है,लोहा है
उसको आवाज लगाती है।

क्षण-क्षण मृत्यु की बेला है
क्षण-क्षण जीवन अलबेला है
उसने ही पाया है अमृत
जो बढ़ा आग से खेला है।

समझा था यूं कुछ-कुछ यह मन
पर भ्रम में रहता था यह मन
इस युग का अर्जुन मांग रहा
प्रत्यक्ष हरि का ही दर्शन।

फिर स्पर्श किया ज्यों ही गुरू ने
नस-नस में बिजली दौड़ गई
चेतना हुई जाग्रत ऐसे
धरती को,नभ को छोड़ गई।

इतिहास रचा नूतन उस क्षण
चेतन ने चेतन को पकड़ा
वो जन्म-जन्म का बंधन था
चेतन ने चेतन को जकड़ा।

मंथर गति से बहता निर्झर
सौ-सौ कोयल के मादक स्वर,
वो मिलन का मधुरिम गीत हुआ,
वो दृश्य वर्णनातीत हुआ ।

कैसी शंका या ,आशंका
बस अकथनीय आनंद हुआ,
 उस ज्योति के पा जाने  से
’नरेन’ विवेकानंद हुआ ।
























व्यक्ति या विचार

व्यक्ति या विचार



ये जो

मानव का जन्म है

ये

मानव द्वारा

पृथ्वी पर देखा गया

सबसे सुन्दर स्वप्न है


जब

जन्म देते हैं

पुरूष और स्त्री

शिशु को

वे केवल

एक दूसरे को

भोगते नहीं हैं

ना ही वासना  को

बल्कि

बुनते हैं

एक विचार

वीर्य और रक्त से

यही विचार

निराकार

अपनी

सार्थक परिणति के लिए

देह के रूप में

पाता है आकार

जब तक है

विचार

तब तक है

व्यक्ति

जिस दिन व्यक्ति का

विचार के रूप में

अस्तित्व

समाप्त हो जाता है

जीवित

रह जाती है

देह

व्यक्ति मर जाता है ।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

सीता को सोने का मृग चाहिए






सीता को सोने का मृग चाहिए



अभी – अभी

उछलता, कूदता, किलकारियां मारता

गया है सोने का मृग

बस गया है वो सीता की आंखो में

सीता स्नेह से

राम के कंधे पर हाथ रखती है

कहती है –

अहा ! कैसा सुन्दर है,

कभी देखा नहीं ऐसा मृग

कितनी सुन्दर लगूंगी

मैं इसकी मृगछाल पहनकर।

राम जानते हैं सोने के मृग नहीं होते

कहते भी हैं सीता से

पर हठ पर है सीता

उसे

सोने का मृग चाहिए !

राम सोचते हैं –

दे ही क्या पाया हूं मिथिला कुमारी को

आंसू, पीड़ा, आत्मीयों से बिछोह और

वनवास,

और धनुष उठा कर चल पड़ते हैं,

सीता को सोने का मृग चाहिए !

‘लक्ष्मण’ – ‘लक्ष्मण’ की आवाजें दे

ढेर हो गया है मायावी,

सामने पड़ा है

विशाल, दैत्याकार, लहूलुहान शरीर

अपनी अंतिम परिणति में

कितना वीभत्स है सोने का मृग

स्तब्ध खड़े हैं राम

ठगे गए हैं वो

पर वो क्या करते,

सीता को सोने का मृग चाहिए !

सीता को

संदेह हो गया है लक्ष्मण पर,

उसकी दृष्टि में

अब समर्पित एकनिष्ठ भाई नहीं है वो,

बल्कि

अवसर का तलाश में,

भाई का हत्यारा है वो,

लक्ष्मण जानते हैं राम को कोई नहीं हरा सकता

गलत जानते हैं वो,

सोने का मृग सबको हरा सकता है !

अब जंगलों में भटक रहे हैं राम

वृक्षों, पर्वतों से पूछते,

अपने दुर्भाग्य से जूझते

अब उन्हें सोने का मृग नहीं चाहिए

उन्हे सीता चाहिए

जंगल में गूंज रहा है

रावण का अट्टहास

रावण के हाथों पड़

सीता कर रही है विलाप

अब उसे सोने का मृग नहीं चाहिए

अब उसे राम चाहिए

राम को सीता चाहिए,

सीता को राम चाहिए

सोने के मृग के बिना भी सुखी था उनका जीवन

आपको क्या चाहिए ?

*********
anilhindi@gmail.com

हम सब कवि हैं

 हम सब कवि हैं



हम सब

कवि हैं

हाँ ,

हम सब ही हैं

कवि।


सिर्फ

जो छपे

दुनिया ने जाना

स्थापित हुए

बड़े-बड़े लोगों ने माना

वो

जो बुनता है

वो

जो चुनता है

वो जो 

देता है आकार माटी को

वो जो

लाता है हरियाली

चीर कर

धरती की छाती को

वे

दुधमुहां

जो बनाता है

रेत में घर

वो जो

बहाता है पसीना

गढ़ता है नई दृष्टि

कूटता है पत्थर

वो जो

भीनी-भीनी गन्घ लेकर

इस बार भी खिला

वो जो

तिनका-तिनका बटोर

बनाती है घोंसला


सभी हैं

कवि

सभी ने जिए हैं

कल्पना के क्षण

सभी ने

झेली है

प्रसव वेदना

सभी ने किया है

कुछ न कुछ

सृजन

सभी हैं कवि

तभी है सृष्टि

हम सबकी तलाश है

अपने-अपने

तनाव की अभिव्यक्ति

जिस दिन

हम

कवि नहीं होंगे

विश्वास कीजिए

हम कहीं नहीं होंगे।

मोर्चे पर: भीड़

मोर्चे पर: भीड़: भीड़  अगर मुझे पता होता  कि  हर सीधी और टेढ़ी गली बाजार के रास्तों से भीड़ बन जाती है तो मैं घर वापिस लौट जाता ...

स्वीकारोक्ति



 स्वीकारोक्ति





जब-जब

फटी हुई बिवाइयों के बीच से

एक चेहरा झांकता है

और

मुझसे पूंछता है-

क्यों भाई

क्या तुम

मुझे सी सकते हो ?

जब-जब

घातों , लातों और प्रतिघातों से

क्षत- विक्षत

अंधेरे में

कोई मुझे टटोलता है

और

मुझसे पूछता है-

क्यों भाई

क्या तुम

मेरा अंघेरे पी सकते हो?

जब-जब

कोई

मुझसे पूछता है-

क्या कविता में

तुम

मुझे

हुंकार और गर्जन कर

उनके विरूद्व

सीधी सपाट भाषा में

जी सकते हो 


विश्वास कीजिए

तब-तब

मैंने अपने आप को

अपने ही सामने

कलम और बंदूक फेंके

आत्मसमर्पण की मुद्रा में

खडा पाया है

क्या

तुमने भी कवि

क्या

तुमने भी ?

*****
anilhindi@gmail.com

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

भीड़


भीड़ 



अगर मुझे पता होता 
कि 
हर सीधी और टेढ़ी गली
बाजार के रास्तों से भीड़ बन जाती है
तो मैं

घर वापिस लौट जाता

जहाँ 
नकेल और चारा 
मेरा इंतजार कर रहे थे


भीड़ में घुसने तक
मेै
सोचता रहा-
कैसे छुपाऊंग
तलवों में लगा खून ?
रात में ही मैंने
दुलत्ती से तीन मासूमों को मारा है
चेहरे पर कहीं
चमक ही जाएंगें
रामलीला में डकारे
चंदे के सिक्के
पर भीड़ में घुसने के बाद
मेरा अपराधबोध समाप्त हो गया

वहाँ 
सब मुझ जैसे ही चेहरे थे
मुझ जैसे ही 
शांत, शालीन, सौम्य
और 
मर्यादित

सब पिछले वालो के 
आगे वालो की 
जेब में हाथ थे
ये ना कहना
कि 
वो जेबतराश थे
जब तक तुम ये ना जान लो
कि
उनके क्या हालात थे

ठेलपेल थे
धक्का था
लोग इसी मे
प्रगतिशीलता का 
एहसास पा रहे थे

क्या जरूरी था
उन्हें बताना 
कि हर कदम पर
वो आगे नहीं
पीछे आ रहे थे

जोर - जोर से आवाजें
लेकिन
कोई नहीं सुनता
एक मां ने 
बेटे को
चिपका लिया
छाती के साथ
जब उसे पता लगा
लोकतंत्र घूम रहा है
यही कहीं आसपास

यकायक
कोई पैर
फुटपाथ पर
किसी अंतड़ी को कुचल जाता
बवेला मच जाता
अगर आयोजक
जन-गण-मन का रिकार्ड ना बजाता
लोगों ने 
फिर से
हरी बतियो के इशारे पर 
चलना शुरू कर दिया है



सुंदर !
कितना सुंदर !!
यह हाट
यह बाजार
इसका रचियता कोई ब्रह्मा नहीे
इसका रचियता है - साहूकार

ट्रैफिक पुलिस वाला
व्यवस्था के पड़ोस में बैठा
बीड़ी पीता
ऊँघ रहा है
उसे जगाओ
वो नई ट्रैफिक व्यवस्था बतलाएगा
देखो 
जो रास्ते
मंदिर , मस्जिद, गुरूदारे की और जाते हैं
उनपर मत जाना
आजकल वहां
भगवान नही मिलते है
कही अंदर घुस जाओ
और फिर
घबराते हुए भागो
कहो-
कहां हैं यहां
राम, अल्लाह और वाहे गुरू !
क्या आजकल यहाँ
साँप पलते हैं !

दोस्तों के कहने पर
मैं भी
एक दुकान पर गया
पूछा- क्यो भाई साहब
इस बार
सफेद कबूतरों की गर्दन मरोड़ने का खेल
कहाँ हो रहा है !
उसने 
मेरी गर्दन की ओर देखा
मैं झेंप गया

दूसरी दुकान पर 
मैंने 
पारिचारिका से पूछा - क्यो जी 
' ये पोस्टर है या आदमी
पहचानिए "
प्रतियोगिता कहाँ हो रही है ?
उसने मुझसे पूछा - आपने
यहाँ कोई आदमी देखा है ?
इससे पहले 
वो मुझे घूरती
मैं झेपता हुआ
आगे बढ़ चुका था

अब मैंने
उस 
अकड़कर चलते हुए
नौजवान से पूछा - क्यो भाई
तुम
इतना अकड़ कर
क्यो चल रहे हो ?
क्या तुम्हारा भी कोई परिचित
रोजगार दफ्तर में काम करता है ?
अब 
वो झेंप गया

कहीं कोई उत्तर नहीं
इसी तरह
बगले झांकते हुए लोग
वापिस
घरों में जा रहे हैं
और मैं जान चुका हूँ
भीड़ तो
अपने आपको भुलाने का 
जोरदार बहाना है
आदमी की 
बुनियादी जरूरत
भीड़ नहीं 
नंगा गुसलखाना है ।

अस्तित्व बोध

अस्तित्व बोध


मैं समझ चुका था
ये समय 
लोगों की आँखों मे अपना अस्तित्तव आँकने का नहीं है
बल्कि अपने जीने के लिए 
मुनासिब वज़ह जानने का है।

और ऐसे में
चाय के प्याले में 
अपनी उम्र आँकने के बाद
मैं घबरा गया
मैंने दाढ़ी को छुआ
दाढ़ी-
 दाढ़ी की जगह थी
मूँछ-
मूँछ की जगह
नाक-
नाक की जगह थी
कान-
कान की जगह
नहीं
ऐसा नहीं हो सकता 
जब कुछ भी सही नहीं है
तो
ये कैसे हो सकता है
सब चीजें
करीने से शऱीर पर सजी हो
कहीं कुछ गहरी गड़बड़ जरूर है।
मैं जानना चाहता था
क्या मरने से पहले 
मैं जिन्दा हूँ !
मुझे कोई मुगालता नहीं था
मैं पागल हो चुका था

मैं घबरा गया
अर्थशाश्त्र ने मुझे बेतहाशा तोड़ा
दर्शनशाश्त्र ने मुझे कहीं का ना छोड़ा
सब तरफ भूल भुलैया थे
भटकाव थे
हो सकता है
सधे हुए न हों
मेरे ही पैर ( पर विश्वास है गलती सिर्फ अनुवाद की नहीं थी)
सुबह तक तो ऐसा नहीं था।

अचानक मैंने महसूस किया
मेरे नीचे जमीन नहीं है
या कि मैं उल्टा चल रहा हूँ
दिशाहीन अंधेरों के बीच
अपने महान संक्लपों के सामने
मरगिल्ले कुत्ते सा खड़ा 
मैं जीना चाहता था
और 
उसके लिए
किसी भी हद तक जाने को तैयार था

मैंने सोचा 
अब मैं 
उस आदमी से नहीं मिलूंगा
जो सुबह
कमीज के पीछे
मेरी जेब टटोलता रहा
और में
मेरी आत्मा भी है
मेरी आत्मा भी है
यही बोलता रहा

अब कैलेण्डर में सिर्फ दिन नहीं  हैं
सिर्फ तिथियां हैं
वो मेरा बचपन था
जब ये शहर अपना हुआ करता था

यहाँ जिसकी भी अक्ल और आत्मा
काँच के शीशों में कैद नहीं है
सभी अपराधी हैं
और जिनके हाथ
खून से रंगे हुए है न्यायधीश

मेरे पास 
न गीत थे
न राग
न सावन
न फाग
न मस्ती 
न ख्वाब
पेड़ से पहाड़ तक 
सिर्फ पतझड़ थी मेरे पास
मैंने सोचा 
क्यों न यहीं से शुरू करूं?
और में मजे से
खुरदरे पहाड़ पर
फिसला, चढ़ा, गिरा , पड़ा
मैं खुश था
मैंने 
सूखे कीचड़ भरे बरसाती नाले के पास बैठकर
जोर-जोर से
सावन के गीत गाए
सूखे-पीले पत्तों को चूमा
फूलों पर फतवे कसे
कांटो के गुच्छे
कोट के बटनहोल पर लगाए
मैं खुश था

मेरे पास बेतहाशा प्यार था
लुटाने को
असीम घृणा थी
बरसाने को
और 
सबसे बड़ी बात यह थी
इस सबकी वजह से
मैं शर्मिन्दा नहीं था

बात समझने की 
महज़ इतनी भर थी
सौन्दर्य
वस्तु में नहीं 
दृष्ठि में है
और परिष्कृत सौन्दर्य बोध की पहली और आवश्यक शर्त
उसका मौलिक और असाधारण होना है

अब मुझे 
जीने के लिए
कोई बहाना नहीं चाहिए था

*******
anilhindi@gmail.com

मंगलवार, 22 सितंबर 2015




मुझे भाषा से इश्क है- जोगिंदर सिंह कँवल 
                                       अनिल शर्मा  'जोशी'







अपने कंप्यूटर पर काम करते श्री जोगिंदर सिंह कँवल साथ खड़े हैं, सरोज शर्मा, अनिल शर्मा, मेज के पीछे श्रीमती इंदु चंद्रा, श्रीमती श्यामला, श्रीमत रोहिणी लता


जोगिंदर सिह कँवल फीजी में हिंदी लेखन के भीष्म पितामह हैँ। 88 वर्ष की आयु में  चहल - पहल , महत्वाकांक्षाओं से दूर , बा की पहाड़ियों में साहित्य  साधना में रत हैं। जीवन के इस लंबी दौड़ -धूप और यात्रा मे उन्होंने अपनी मुस्कान नहीं खोयी है, साहित्यकारों को सामान्य रूप से मिलने वाली सांसारिक असफलताओं के कारण उनमें कोई  कटुता नहीं आई , उदासीनता और निराशा तो उनसे कोसों दूर है। बात - बात पर ठहाके अपनी कवियत्री पत्नी अमरजीत कौर के साथ वे निरंतर जीवन और भाषा के सत्यों का अन्वेषण कर रहे हैं। हिंदी के 4  उपन्यास,  3   काव्यसंग्रह , फीजी के हिंदी लेखकों की कविताओं , कहानियों  और निबंधों के संग्रह, अपना कहानी संग्रह, अंग्रेजी में एक उपन्यास याने वे पिछले 40 सालों से लगातर लिख रहे हैं ।  उनसे मिलकर मुझे  हिंदी के लेखक विष्णु प्रभाकर , रामदरश मिश्र और प्रभाकर श्रोत्रिय की याद आती है। जिनकी कलम को उम्र की आंच ने गला नहीं दिया बल्कि जिन्होंने अनुभवोे के प्रकाश में दुनिया को और बारीकी से देखा , उसकी सुंदरताओ और पल-पल परिवर्तन के स्वभाव को समझा , जमीन की खुशबू को महसूस किया और क्षितिज के उस पार के अबूझे भविष्य को जन- जन के सामने प्रस्तुत किया। उनका पहली पुस्तक 'मेरा देश मेरी धरती' 1974 मेें प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक याने  40 वर्ष से वे निरंतर साधनारत हैं। इतिहास को खंगालते हुए, इतिहास के निर्जीव तथ्यों में अपनी रचनात्मकता से प्राण फूंक कर जीवंत , खिलंदड़ी कहानियों, कविताओं, उपन्यासों को सृजित करते हुए …..।
 फीजी में आने के कुछ दिनोंं के बाद मेरी कँवल जी से फोन पर बात हुई , जब आप किसी वरिष्ठ लेखक से बात करते हैं तो आमतौर पर पाते हैं कि वह अपनी वरिष्ठता याने आयु और ज्ञान के बोझ से दबा होता है या आपको दबाना चाहता है। उम्र उसे तल्ख बना देती है । वो आसमान में बादलो को इतनी बार आते - जाते देख चुका होता है कि  बरसात की संभावना उसमें उत्साह पैदा नही करती । पर ये तो अलग थे । खुशमिजाज , हर बात  में सकारात्मकता देखने वाले , सबको प्रोत्साहित करने वाले, आशावादी । लाटुका में ( फीजी के पश्चिमी क्षेत्र) में अध्यापकों की  एक कार्यशाला  18 सितंबर को थी। मैं राजधानी सुवा ( मध्य क्षेत्र )से लाटुका गया तो कँवल जी के घर जाने का कार्यक्रम बनाया ।  मेरे साथ पत्नी सरोज शर्मा, युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफीक की श्रीमती इंदु चन्द्रा और शिक्षा विभाग के अधिकारी थे। लाटुका से बा का रास्ता बहुत सुंदर है । चारो और पहाड़ , गन्ने के खेत और हरियाली । यहां सुवा ( फीजी की राजधानी) की तरह निरंतर बरसात नहीं होती रहती । अगर आपको बताया जाए कि यहां बहुत बार सूखा रहता है तो आप आश्चर्य करेंगे कि समुद्र  के इतनी पास और सूखा। कँवल जी के उपन्यास ‘सवेरा' में इस बात का जिक्र आता है कि सूखा होने पर अंग्रेजो के  अत्याचार बढ़ जाते थे। बा के रास्ते में चौराहे पर मूर्तियां बनी हुई हैं जहां अंग्रेजों को  किसानो को कोड़े मारते हुए  गन्ने के खेतोें में काम करवाते हुए दिखाया गया है।  बा पहुंचे तो देखा कंवल जी का घर हिल व्यू पर है। कुछ भटकाव के बाद पहुंचे तो कंवल जी की प्रसन्नता का पारावार नहीं था । उन्होंने और उनकी कवियत्री पत्नी अमरजीत ने स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खीर और पंजाबी पकोड़े । खीर खिलाने के साथ ही कँवल जी ने अमीर खुसरो की खीर संबंधी पंक्तियां सुना दी। माहौल खुशगवार हो गया था।  हालचाल पूछने के बाद  कँवल जी से फीजी, साहित्य, यहां का जीवन ,  जीवन शैली के बारे में बात हुई।   नीचे दिए चित्र में-
                                              श्री जोगिंदर सिंह कंवल व उनकी पत्नी अमरजीत श्रीमती सरोज शर्मा को पुस्तकें भेंट करते हुए

बातचीत शुरू हुई और मैंने पूछा- कब लिखना शुरू किया । जवाब मे वही खिलंदड़ापन और विनम्रता । मैं लिखता - विखता कहा हूंं। मुझे तो भाषा से इश्क है। फिर कहते हैं सुनो पहली कविता अमरजीत ( पत्नी)  के बारे में लिखी थी-
 मैं बेड़े दा माली , तू गलियां दी रानी , 
वाह वाह फेंका सदरां दा पानी,
 रही युगां तू दबी मेरी प्रीत कंबारी, 
  मेरी कविता बन गयी , 
 तेरी अलख जवानी -
 अमरजीत जी मजाक में कहती हैं , मै तो तब तक आपको मिली नहीं थी , ये कविता किसी और पर लिखी होगी। कँवल जी के प्रिय लेखकों मे अमृता प्रीतम, फैज़ अहमद फैज़  रहे हैं।  फीजी के वरिष्ठ
 साहित्यकार कमला प्रसाद मिश्र उनके प्रिय मित्र थे। उन्होंने  पचास के दशक में  पंजाब में पढ़ाई की थी । वे अर्थशाश्त्र में एम.ए है।  स्कूल में उस समय पंजाबी और उर्दु पढ़ाई जाती थी  । परंतु डी.ए.वी कालेज में पढ़ने के कारण वे हिदी भी पढ़ सके। खालसा कालेज में पढाने  के कारण वे पंजाबी से भी जुड़े रहे । भगवान सिंह जी की प्रेरणा से जब हिंदी में लिखने लगे तो प्रारंभ में मुश्किलें आई। परंतु पत्नी अमरजीत हिंदी की अध्यापिका थी । वे मदद करती । इधर हिदी के पढ़ने वालो की संख्या कम होने के कारण वे अंग्रेजी में लिखने लगे। अपने उपन्यास ‘सवेरा' का अनुवाद ' द मार्निंग' के रूप में किया । नब्बे के दशक में उन्होंने ' द न्यू इमिग्रेंट' उपन्यास लिखा ।  जो प्रवास के कारण नई पीढ़ी के पति -पत्नी में आए मतभेदों को प्रस्तुत करता है।
  लेखन के लिए उन्हें सबसे अधिक प्रेरणा भारत के सत्तर के दशक में उच्चायुक्त रहे भगवान सिंह से मिली । भगवान सिंह फीजी में बहुत लोकप्रिय थे। वे भारतीय हिंदी और संस्कृति के सच्चे पोषक थे।   रेडियो पर हर हफ्ते उनके प्रसारण होते थे जिसे हजारोेंे लोग बड़े चाव से सुनते थे। फीजी आजाद हो चुका था। नया देश और सुनहरा भविष्य सबको दिखाई दे रहा था। गिरमिट के नाम पर भारतीयों पर हुए अत्याचारोें की याद अभी ताजा थी। गिरमिटियों की आखिरी पीढ़ी अभी जीवित थी।   पर उनकी दर्द भरी दास्तान का दस्तावेजीकरण ( documentation ) अभी नहीं हुआ था। भगवान सिह के कहने से कँवल जी में यह प्रेरणा जाग्रत हुई । उन्होंने तोताराम सनाढ्य की किताब ' फीजी में मेरे 21  वर्ष’  पढ़ी। वह रौंगटे खड़े कर देने वाली पुस्तक थी । जो लोग पूछते हैं लिखने का क्या प्रभाव होता है , उन्हें तोताराम सनाढ्य की पुस्तक और  उसके प्रभाव का अध्य्यन करना चाहिए। तोताराम सनाढ्य ने अपने संस्मरण बनारसी दास चतुर्वेदी को सुनाए थे। चतुर्वेदी जी ने उसे पुस्तक का रूप दिया । पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत में गिरमिट प्रथा के खिलाफ जबर्दस्त जनमत बन गया  और अंतत :  गिरमिट प्रथा समाप्त हुई । कँवल जी उस दर्द भरे इतिहास को उसके मानवीय परिप्रेक्ष्य  में प्रस्तुत करना चाहते थे।  उन्होंने गिरमिटियों के इतिहास पर रिसर्च करनी शुरू की । इसमें उन्हे सबसे अधिक मदद मिली- आस्ट्रेलिया के लेखक श्री के.एल.गिलियन की किताब से । गिलियन ने इस विषय पर काफी रिसर्च की थे । गिलियन इस संबंध मे रिसर्च करने भारत , इंगलैण्ड और आस्ट्रेलिया भी गए।  कँवल जी बताते हैं कि इस संबंध में उनकी चर्चा फीजी के प्रमुख विद्वानों सुब्रामणि, ब्रजलाल , सत्येन्द्र नंदन, मोहित प्रसाद  से होती रहती थी । लेकिन वे केवल किताबी रिसर्च से संतुष्ट नहीं थे । वे गांवो मे ब्याह - शादी या अन्य समारोहो मे जाते तो पाते कि बड़े - बूढ़े गिरमिट के दिनो की बात कर रहे हैं। और यगोना ( फीजी शराब) पीने के बात तो फिर जो महफिल जमती, तो यादें फीजी की बरसात की तरह  उमड़ आतीँ, थमने का नाम ना लेती । कँवल जी ने वहां से किस्से बटोरने शुरू किए ।  उनका कहना है कि उनका उपन्यास सत्य घटनाओं से भरा है , उन्होंने तो केवल घटनाओं को  एक सूत्र में पिरोने का काम किया है।
‘सवेरा' उपन्यास मे भारत से फीजी आए भारतीयों की भारत में परिस्थितियां , फीजी लाने मे झुठ- कपट , बेईमानी का हाथ,  अंग्रेजों, कोलम्बरों, सरदारों की कारस्तानियां को प्रस्तुत किया गया है । इसमे निरीह भारतीय मजदूरो के साथ अमानवीय, पशुओं  जैसे बर्ताव का मार्मिक वर्णन है । उन दिनों भारतीयों की कोड़ो और जूतो से पिटना कोई ऐसी घटना नही थी जो कभी एक बार होती थी, बल्कि यह रोज होने वाली घटना थी। घर से हजारों किलोमीटर दूर , समुद्र में बिना माझी की  एक छोटी नाव, लहरों के थपेड़े खाती... , अपनी नियति को झेलती... । उसे पता नहीं कि भारत  में उसका परिवार , बूढ़े माता -पिता  किस हालत मे है, वह कभी मिल पाएंगे अथवा नही ! उसकी मौत  समुद्री जहाज पर होगी या फीजी पहुंचने के बाद ? वह ज्यादा काम करने से मर जाएगा या बीमारी से ? मुहँ खोलने पर उसे जेल मे ठूंस दिया जाएगा या विद्रोह करने पर हत्या कर पेड़ से लटका आत्महत्या का मामला बना दिया जाएगा ? किसी भी महिला की  अस्मिता सुरक्षित नहीं थी । खेतों में काम करती  ये औरतें कभी भी सरदार, ओवरसियर या अंग्रेज अधिकारी का शिकार बन सकती थी। ‘सवेरा' 1880 से शुरू होता है और 1920  में गिरमिट प्रथा की समाप्ति की खबर से समाप्त होता है । इतिहास का यह लोमहर्षक कालखंड जोगेन्द्र सिंह  कँवल ने ‘ सवेरा’  उपन्यास  में  बडे़ ही संवेदना और विज़न के साथ दर्ज किया है। 
उपन्यास की खास बात है,  पात्रों का चरित्र चित्रण और कँवल जी की उदात्त दृष्टि । उपन्यास के दो महिला पात्र जमना और शांति की कहानी भारतीय महिलाओ के त्याग, संघर्ष, प्रेम , समर्पण और अदम्य साहस की कहानी है। जिस- तिस की बुरी नजरों की पात्र बनी भारत की बालविधवा जमना परिस्थतियों का शिकार बन फीजी पहुँच जाती है। पर फीजी में उपन्यास के मुख्य पात्र अमर सिंह से संपर्क में आऩे के बाद उसके जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है और वह अपनी जान पर खेलकर अमरसिह की जान बचाती  है और आखिर में पुरूष पात्र जो  चाह कर भी ना कर पाए वह करने का साहस दिखाती है और अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी की महिलाओं से ऐसी पिटाई करती और करवाती है कि वह दुष्ट अपमान के चलते  फीजी छोड़कर भाग जाता है। लेखक की दृष्टि इतनी उदात्त है कि छूआछूत में यकीन रखने वााले  पंडित परमात्मा प्रकाश को सद्दबुद्धि देता है और दलित पात्र कर्मचन्द और मुसलमान रहीम की मानवीयता को सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार उपन्यास का नायक जिस प्रेमिका को भारत छोड़कर आ गया था । वह नायक की प्रेरणा और प्रेम पा स्वाधीनता सेनाानी बन जाती है।  पूरा उपन्यास विडंबनाओँ, कुरीतियों, दुर्बलताओं , द्वेष से ऊपर उठकर मानवता का सशक्त दस्तावेज बन गया है।
कँवल जी गिरमिटियों के इस उपन्यास का चित्रण करते हुए गिरमिटिया काल पर नहीं रूके।  सामाजिक - राजनैतिक जागृति और 20वीं सदी के नागरिक होने के नाते अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को उन्होंने अगले उपन्यास  ‘करवट'  प्रस्तुत किया।  



'धरती मेरी माता’  उपन्यास का पहला संस्करण 1978  में प्रकाशित हुआ , दूसरा संस्करण 1999 मंे।  दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि वक्त रूकता नहीं। वह आगे ही बढ़ता है लेकिन अपनी इस रचना को पढ़कर मुझे महसूस होने लगा कि जैसे वक्त पिछले इक्कीस सालो से एक ही स्थान पर ठहरा हुआ है। वक्त की घड़ी की सुईयां एक ही जगह पर रूककर खड़ी है। जमीन की जो समस्याएं भारतीय किसानों के लिए वर्षों से पहाड़ बनकर खड़ी हैं, वे आज भी उसी तरह सिर उठाए खड़ी हैं। '

'धरती मेरी माता’  उपन्यास मे फीजी मे भूमि संबंधी कानूनों की समस्या को उठाया गया है और इस संबंध मे भूमि के साथ किसानों के गहरे - आत्मीय और मां - बेटे जैसे संबंध  को रेखंकित किया गया है। कँवल जी ने यह कथा बा के पास के ऐसे गाँव के किसान की कहानी के माध्यम से कही है जिसमे उसकी जमीन  ले ली जाती है। उसकी इच्छा है कि उसके मृतक शरीर को उसी जमीन मे जलाया जाए और वो अपनी पीड़ा इस तरह व्यक्त करता है ‘  यह काूनन भी कितना अंधा होता है। जो जमीन में हल चलाता है और इस मिट्टी से सोना निकालता है, उसका पक्ष नहीं करता । इतने साल हम इस मिट्टी े में मिट्टी होते रहे मगर ये खेत फिर भी पराये कहलाते हैं ।  अगर विधाता ने हमारे भाग्य मे यहां भी उजड़ना और ठोकरें खाना ही लिखा है ऊपर वाले की मर्जी। ‘  'धरती मेरी माता' उपन्यास विचार और संवेदना का सशक्त मिश्रण है। यह उपन्यास फीजी के पाठ्यक्रम का भी हिस्सा है।
कँवल जी सशक्त कवि है। उन्होने फीजी के कवियो के संकलन  का संपादन किया है और फीजी की कविता शक्ति को एक स्थान पर प्रस्तुत किया है। उनकी अपनी कविताएं अपने समय का आइना हैं। 1987  के कू याने विद्रोह के कुछ दिन बाद शांतिदूत में प्रकाशित एक कविता उनके काव्य कौशल, संवेदन शक्ति और हिम्मत की कहानी कहती है।उन दिनों  राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी। देश में अशांति थी , हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में  कंवल जी की प्रकाशित कविता उनके साहस और राजनीतिक परिस्थितियो के सटीक आकलन का प्रमाण हैं।  देखिए-

जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते , संघर्ष करते लोग,कभी रोते , कभी हंसते, ये डर डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती , उम्मीदों की हलचल, कभी बनते कभी टूटते, दिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थतियों के बनते रहे पहाड़, भविष्य उलझा पड़ा है , कांटे - कांटे आज
चेहरों पर अंकित अब, पीड़ा की अमिट प्रथा, हर भाषा में लिखी हुई , यातनाओं की कथा
जोश, उबाल व आक्रोश, छाती में पलटे हर दम, चुपचाप ह्रदय में उतरते सीढी सीढी गम
दर्द की सूली पर टंगा, कोई धनी है या मजदूर, है सब के हिस्से आ रहे, ज़ख्म और नासूर

कँवल जी ने 1983 के विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया था। वे   सम्मेलन की भीड़ को याद करते हैं । कहते हैं, यद्यपि हमारे स्थान आरक्षित थे परंतु वहां भीड़ मे ं हमारे लिए बैठने का कोई स्थान  नहीं बचा था । भारत से हिंदी के सैंकड़ो प्राध्यापक वहां उपस्थित थे। वो तो भला हो सुरेश ऋतुपर्ण का कि उन्होंने पहचान लिया और स्थान दिलवा दिया । उन्हेी की तरह की कुछ यादें पंडित कमला प्रसाद मिश्र की भी हैं जिन्होंने तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन मे भाग लिया था और उन्हें वहां सम्मानित भी किया गया था।  कँवल जी कहते हंैं कि  उन्हें भारत जाने का लाभ यह हुआ कि सम्मेलन के पश्चात दिल्ली के सप्रू हाऊस में उनकी पुस्तक  ‘सवेरा' का लोकार्पण हुआ । कार्यक्रम का आयोजन अमरनाथ वर्मा ,  हिंदी बुक सेंटर  द्वारा  किया गया था।  कार्यक्रम में महीप सिंह और दिल्ली के बहुत से प्रमुख लेखक उपस्थित थे। कँवल जी के मन में उस समय की यादें अभी तक ताजा हैंं। अमेरिका में आयोजित विश्वहिंदी सम्मेलन में कँवल जी को सम्मानित किया गया था पर उम्र के तकाज़े और भीड़- भाड़ और समारोहों से दूर रहने की अपनी आदत के कारण वे नही गए। उनकी पत्नी भी फीजी की महत्वपूर्ण कवियित्री हैं। हाई कमीशन उनका नाम 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान के लिए बनी प्रस्तावित सूची में भारत भेजना चाहता था। परंतु पति - पत्नी का कहना था वे इस आयु में भारत जाने में और ऐसे समारोहो में भाग लेने में समर्थ नहीं हैं। उन्होंने किसी और विद्वान का नाम भेजने की सलाह दी। ऐसी निस्पृहता और अनासक्ति और लेखन के साथ ऐसी प्रतिबद्धता, निष्ठा और प्रेम ही उन्हें विशिष्ट बनाता है।

जिस तरह से प्रेमचंद अपने समाज की एक - एक समस्या को समझ ,  उसको बारीकी से पकड़ उपन्यास लिखते हैं उसी प्रकार कँवल जी की पकड़ अपने देश और समाज  की नब्ज पर है। आपको अगर फीजी को समझना है तो सवेरा , करवट , धरती मेरी माता जैसे उपन्यासों को पढ़ना, जानना और  समझना आवश्यक है। ये उपन्यास नहीं है ,यह पिछले 150 वर्षों का फीजी का रचनात्मक इतिहास है।