बुधवार, 6 जनवरी 2016

वर्तमान से टकराता और भविष्य को गढ़ता अतीत
अनिल जोशी


“ स्मृति की यह विशेषता होती है कि वह अपने पीछे कोई पद-चिन्ह नहीं छोड़ जाती- वह स्वयं पद- चिन्ह बन जाती है, परम्परा का मतलब इन पद- चिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को पारिभाषित करना है जहाँ मनुष्य आज जीवित है। हम चलते पीछे की तरफ हैं , किंतु पहुंचते वहीं है जहाँ हम आज इस क्षण में हैं। परम्परा इस अर्थ में विगत की खोज नहीं, विगत के भविष्य का अन्वेषण है। हम पीछे की तरफ चलते हुए आगे की तरफ बढ़ते हैं, और तब हमें पता चलता है कि आगे और पीछे का ऐतिहासिक बोध स्वयं अपने में छलना है- समय की दृष्टि से जो आगे हो, जरूरी नहीं वह विगत की कसौटी बन सके ; उल्टे जो बीत चुका है वह एक नैतिक मर्यादा के रूप में एक स्वपन की तरह मनुष्य के आगे –पीछे चलता है। “  निर्मल वर्मा
“रामकथा, महासमर” के नाम से महाभारत का पुनर्लेखन और विवेकानंद के जीवन चरित का वर्णन “ तोड़ो कारा तोड़ो ” के रूप में कर नरेंद्र कोहली ने भारतीय वाड्गमय के प्रमुख ग्रंथों की पुनर्व्याख्या की है और संस्कृतिपरक विपुल साहित्य का सृजन किया है।
व्यंग्य और कहानी के क्षेत्र में साहित्य मे एक स्थान बनाकर नरेंद्र कोहली ने राम कथा पर ‘अवसर’ ,  ‘दीक्षा’ , ‘संघर्ष की ओर’ ,‘अभ्युदय’ इत्यादि लिख रामकथा की तार्किक, विज्ञानवादी, प्रगतिशील व्याख्या की। उनके द्वारा सृजित साहित्य में दलितों, वंचितों, वनवासियों, आदिवासियों, ग्रामीणों , भीलों के प्रति  करूणा, न्याय , समता और न्यायपूर्ण दृष्टि राम को अत्यंत आधुनिक और प्रगतिशील बनाती है।  नवयुग के लिए आदर्श,  सदा बुराई से युद्ध के लिए सन्नद्ध। कुछ लोगों के स्वार्थ  राम को  दलित, स्त्री,अनार्य विरोधी सिद्द कर सधते हैं। परन्तु नरेन्द्र कोहली ने रेखांकित किया कि राम अहिल्या का उद्धार कर रहे हैं। केवट, सुग्रीव से मित्रता कर रहे हैं। समता और श्रम के महत्व को प्रतिपादित कर रहे हैं।  शबरी के झुठे बेर खा रहे हैं। राक्षसों का विनाश कर, सत्य की स्थापना कर तथा सुग्रीव और बिभीषण को सिंहासन देकर  त्याग, संवेदना और पुरूषार्थ की प्रतिमा बन जाते हैं। वे 20 वीं 21 वीं शताब्दी में भी लोकनायक हैं।  
नरेन्द्र कोहली कहते हैं कि महाभारत मे उन्होंने व्यास की दृष्टि का अनुकरण किया। यह कहा जाता है कि जो कुछ भारत में है वह महाभारत में हैं और जो महाभारत में नहीं वह  कहीं नहीं, तो  इतने बड़े आख्यान को बौद्धिक रूप से एक सूत्र में पिरोना और वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मुझे ‘महासमर’ के एक खण्ड ‘ प्रच्छन्न’ का लोकार्पण कार्यक्रम ध्यान में आता है जिसके लोकार्पण के दौरान श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने नरेंद्र कोहली जी द्वारा किए गए कर्ण के चरित्र चित्रण के संबंध मे अपनी राय दी । वे शाय़द कर्ण की  आलोचना से बहुत सहमत नहीं थे। परंतु उन्होंने भी द्यूत सभा में उनके आचरण को उचित नहीं माना था । पर अगर हम महाभारत को पढ़ते हैं तो पाते है कि दुर्योधन के कुकर्मों मे कर्ण की असंदिग्ध भूमिका रही थी। याने व्यास और नरेन्द्र कोहली का आकलन कर्ण के बारे में एक जैसा था। इसी प्रकार युधिष्ठर के चरित्र को लेकर वर्तमान समाज में नकारात्मक धारणाएं विद्यमान हैं। युधिष्ठर को कैरिकेचर मानने वाले लोगों की कमी नहीं । लोग यह मानते हैं कि सत्य के प्रति युधिष्ठर की निष्ठा अव्यावहारिक, नासमझी भरी, राजाओं के लिए असंभव जैसी है। वे राष्ट्र निर्माण में गांधी जी के सत्य के प्रयोगों वा भारत के राष्ट्रचिह्न पर लिखे ‘ सत्यमेव जयते  ’ पर ध्यान नहीं देते। नरेंद्र कोहली व्यास की तरह युधिष्ठर को महानायक मानते हैं, उन्हें धर्मराज की पदवी देते हैं। व्यास दृष्टि की बात करना आसान है। परंतु व्यास की दृष्टि लाने के लिए  उच्च स्तर की शुद्ध चेतना, सात्विकता से भरा जीवन, इतिहास बोध और व्यापक जीवन दृष्टि भी चाहिए  । ऐसा लेखक चाहिए, जो  पात्रों , परिवेश, पात्रों और परिवेश के बीच गत्यात्मक संबंधों , घटनाओं और गतिविधियों, क्रिया कलापों के कारण, हेतु, प्रयोजन और उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए व्यास की करूणा, संवेदना, न्याय दृष्टि और धर्मदृष्टि को आत्मसात करे हुए लिख सकें। इतने महान लेखक की रचना को पुन प्रस्तुत करना भागीरथी कार्य था। नरेन्द्र कोहली ने जिस प्रतिभा, कल्पनाशीलता , रचनाशीलता, प्रज्ञा , दृष्टि से यह महत् कार्य किया वह सुखद रूप से अविश्वसनीय है ।
‘तोड़ो कारा तोड़ो’ की रचना नरेन्द्र कोहली के लेखकीय जीवन में बड़ा मोड़ है । इससे पहले का  उनका लेखन तार्किक बुद्धिवाद पर आधारित था। उनका कहना है कि इस पुस्तक श्रृंखला के बाद उन्होंने जीवन ओर लेखन में आध्यात्मिक तर्क स्वीकार किए । महान और विराट चरित्रों की संगत में तार्किक नरेन्द्र कोहली का आस्थावादी नरेन्द्र कोहली में परिवर्तन हो गया। इतने आस्थावादी हुए कि  ईश्वर से मिलन के प्रसंगो का चित्रण करने लगे। उनका कहना है कि रामकथा और महाभारत को उन्होंने जहां चमत्कारों से निकाल कर वर्तमान संदर्भों में विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया वहीं स्वामी जी के साथ तार्किककरण की ऐसी कोई विवशता नहीं थी।


विवेकानंद के चरित्र के साथ नरेन्द्र कोहली की यह अंतरगता यहीं समाप्त नहीं हो जाती । नरेन्द्र कोहली ने स्वामी विवेकानंद में संभवत : अपना रोल माड्ल पा लिया था। अंग्रेजी साम्राज्य के विराट वैभव और बौद्धिक श्रेष्ठता को दो महापुरूषों ने  चुनौती दी थी- विवेकानंद और गांधी जी।  विवेकानंद का बौद्धिक तर्कवाद नरेन्द्र कोहली के सबसे समीप पड़ता है। “यदि ईश्वर हो तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नाम की कोई चीज है तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्यथा विश्वास ना करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। .... भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो , ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा। “  ‘ राजयोग’ पुस्तक में यह विवेकानंद की उक्ति है।
जिस प्रकार विवेकानंद ने 19 वीं शताब्दी में आध्यात्म को बौद्धिकता, तर्कशाश्त्र और वैज्ञानिकता से जोड़ा था नरेंद्र कोहली उसकी अगली कड़ी  हैं।
विवेकानंद से नरेन्द्र कोहली की समानता सिर्फ यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि विवेकानंद के धर्म के केन्द्र में भारत का जो महत्व हैं वही नरेन्द्र कोहली के लिए है।  प्रखरता , राष्ट्र ध्रर्म, ओज, पुरूषार्थ पर दोनों ही बल देते हैं। दोनों ही भारत के राजस् का आह्वान करते हैं। भारत की अस्मिता को सुदृढ़ करने के लिए स्वामी ने जो रास्ता दिखाया था नरेन्द्र कोहली ने उसी मार्ग का अनुसरण किया है। इस मामले में कहा जा सकता है कि नरेन्द्र कोहली ने विवेकानंद की स्थापनाओं को साहित्य में स्थापित किया है।
नरेन्द्र कोहली की रचनात्मक उपलब्धि का सबसे बड़ा आयाम है - व्यक्ति और सामाजिक मनोविज्ञान का गहरा ज्ञान और तद्नुसार घटनाओं और चरित्रों की व्याख्या। रामकथा के प्रसंग की शुरूआत नरेन्द्र कोहली हमारे द्वारा अनसुनी घटना, कैकेयी के भाई की हत्या से करते हैं । यह एक घटना दशरथ के दरबार में चल रहे षड्यंत्रो और राम के भावी बनवास को तार्किक आधार देती है। इसी प्रकार महाभारत में द्रौपदी का पांचो भाईयों से विवाह के संबंध में यह कहना कि मां ने बिना देखे कहा कि भिक्षा कों बांट लों और द्रौपदी का पांचों भाईयों से विवाह हो गया । गले से नहीं उतरता । पंरतु द्रौपदी के स्वयंवर में अर्जुन के साथ भीम का भी पराक्रम, महारानी होने के लिए युधिष्ठर से विवाह की अनिवार्यता और भाईयों की एकता की दृष्टि से नकुल और सहदेव से विवाह जैसे तर्कों के आधार पर पांचों भाईयों से विवाह तार्किक लगता है। इसी प्रकार के सैंकड़ों स्थल हैं जहां नरेद्र कोहली ने कथा की बुनावट में व्यक्ति और समाज मनोविज्ञान की गहरी समझ प्रस्तुत कर कथा की बुनावट को  विश्वसनीय और प्रामाणिक बना दिया है।
नरेन्द्र कोहली की एक और विशेषता कथा के मार्मिक स्थलों का ज्ञान और स्पष्ट दृष्टि है। सीता , शंबूक वध, ,एकलव्य, गंगा के पुत्रों की मृत्यु आदि  के संदर्भ की उन्होंने विश्वसनीय व्याख्या की है। उनकी दृष्टि स्पष्ट है। किसी प्रकार का कोई उलझाव नहीं। कृष्ण, कर्ण,दौप्रदी  जैसे  जनमानस में रचे बसे जटिल चरित्रों को  नरेन्द्र कोहली मानवीय स्वभाव, व्यक्ति मनोविज्ञान, सामाजिक परिप्रेक्ष्य, उपलब्ध प्रमाणों और अपनी प्रज्ञा के बल पर जो समाधान देते हैं वह प्रामाणिक, विश्वसनीय, तार्किक और मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है।    
आजादी के बाद साहित्य में एक रोचक तमाशा शुरू हुआ । प्रत्येक साहित्यिक आंदोलन : प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता , प्रगतिवाद, आधुनिक वाद के मूल में मोहभंग, नास्तिकता और मूल्यहीनता का रोना रोया गया। यहां तक की मूल्यहीनता एक मूल्य के रूप में स्थापित हो गई। यह किसी साहित्यकार विशेष के मूल्यहीन होने की बात नहीं थी बल्कि मूल्यहीनता को समाज में एक इच्छित आदर्श के रूप में स्थापित करने की चेष्टा थी। सच्चाई यह थी कि समाज उतना मूल्यहीन नहीं था। ऐसे दंभी , तिकड़मी, जाति और वाद की राजनीति करने वाले मूल्यहीनता के सरोकारों के बीच नरेन्द्र कोहली को चर्चा  और समीक्षा के केन्द्र से सप्रयास दूर कर दिया गया। साहित्यिक दरबारों से  निर्वासित या अपने पात्रों की तरह बनवासी, साधनारत। परंतु ऐसे साहित्यकारों/ आलोचकों के लिए एक समस्या थी कि नरेन्द्र कोहली पाठकों के बहुत प्यारे थे। अत्यंत लोकप्रिय । जी हाँ, सबसे लोकप्रिय । सौभाग्य से, पाठकों के जीवन से  मूल्य अभी खारिज नहीं हुए थे। भारत के जनमानस की साहित्यिक समझ, संवेदना और जरूरत के बारे में इन साहित्यकारों और आलोचकों की समझ के दीवालिएपन का एक बड़ा प्रमाण नरेन्द्र कोहली का मूल्यांकन हैं।
अपने प्रिय पात्रों- युधिष्ठर और राम की तरह नरेन्द्र कोहली व अन्य साहित्यकारों मे एक और अंतर है जहां बहुत से साहित्यकारों ने आचरण की श्रेष्ठता, नैतिकता जैसे मूल्यों को व्यक्तिगत जीवन से बहिष्कृत कर दिया था वहीं नरेन्द्र कोहली अपने प्रिय पात्रों- राम, युधिष्ठर की तरह साधनारत रहे। ऐसा विराट, उदात्त , पवित्र, चिरकालिक सृजन तिकड़मी, दारूबाज, लंपट, षडंयंत्रों में लीन तथाकथित महान साहित्यकार नहीं कर सकते थे। प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, पंत, महादेवी, हजारी प्रसाद द्विदी, अमृतलाल नागर , रामचन्द्र शुक्ल , रामविलास शर्मा  के बाद की पीढ़ी के साहित्यिक कैरियर और समीकरणों के खेलों से उदासीन 45 साल से ज्यादा का  नरेन्द्र कोहली का साहित्यिक सफर  लेखकों और साहित्यिक समाज के लिए यह आश्वस्ति है कि धरती अभी ( साहित्यिक) वीरों से खाली नहीं हुई है ।
नरेद्र कोहली के सांस्कृतिक बोध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनकी प्रखर राष्ट्रीय चेतना है। इस राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में उनकी धर्म दृष्टि है जो अन्यायी , अधर्मी और असुर प्रवृत्तियों के स्पष्ट रूप से खिलाफ है , जो किसी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं करती। जिसका सत्य के प्रति आग्रह किसी मुलम्मे में नहीं चढ़ा। जो “पोलिटीकली करेक्ट” रह कर द्रोण  की तरह अपनी दुर्दशा नहीं करता बल्कि “करेक्ट” होकर देश , समाज और राजनीति के बरक्स उस सत्य को रखती है जो एक ईमानदार दृष्टा देखता है और सृष्टा सृजित करता है। उनकी पुस्तकें पाठक इसलिए नहीं पढ़ते कि प्रकाशक के साथ लाइब्रेरी खरीद की डील हुई है बल्कि इसलिए पढ़ते हैं कि उनमें जीवन के सत्य हैं। उनमें हमारे लोकजीवन में रचे - बसे संस्कृति के अमर तत्वों को निखारकर , वर्तमान के प्रकाश के आलोक में प्रस्तुत किया गया है ।  राम , कृष्ण, युधिष्ठर, विवेकानंद जैसे शाश्वत समकालीन चरित्रों के माध्यम से नरेंद्र कोहली ने भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों के अन्वेक्षण का जो ऋषितुल्य काम किया है. वह उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदीजी, रामचन्द्र शुक्त, जयशंकर  प्रसाद, अमृतलाल नागर जैसे पिछली शताब्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की श्रेणी में रखता है।
उनकी जीवन यात्रा के 6 जनवरी, 2015 को  75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर भारतीयता के लिए प्रतिबद्ध   ‘भारतीय पक्ष’ पत्रिका ने विशेषांक निकालने का निश्चय कर श्रेष्ठ संकल्प लिया है। मैं सामाजिक दृष्टि से प्रतिबद्ध विमल कुमार सिंह के इस शुभ संकल्प की सराहना करता हूं और आशा करता हूँ कि नरेन्द्र कोहली के इस अमृत महोत्सव  वर्ष के माध्यम से हम उस प्रकाश को समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास ले जाएंगे जो आदिकाल से बाहर – भीतर भारतीय समाज को आलोकित करता रहा है और नरेन्द्र कोहली द्वारा चित्रित कृष्ण की तरह  उन्हें धर्म के मार्ग पर  चलने की प्रेरणा देकर उन्हें  मुक्त करेगा।
  “अनासक्त विवेक है धर्म !   अनासक्ति    ! मोह का पूर्ण त्याग ! “ कृष्ण बोले, “  मोह किसी के प्रति नहीं होना चाहिए – न जाति के प्रति , न संबंध के प्रति, न सिद्धांत के प्रति !  धर्म सदिच्छा और सद्परिणाम में है। यदि परिणाम शुभ नहीं है तो व्यक्ति को अत्यन्त निर्भय होकर अपनी धर्म – व्यवस्था, समाज व्यवस्था और शासन व्यवस्था को परखना चाहिए।... आप धर्म के बंधन में  बंधे रहे, जबकि धर्म बांधता नहीं, मुक्त करता है।“
नरेन्द्र कोहली के साहित्य की अमृत धारा लाखों – करोड़ों को मुक्त करे । उनके लिए निरंतर धर्म और सत्य का मार्ग प्रशस्त करे । नरेन्द्र कोहली स्वस्थ रहें , दीर्घायु हों। उन्हें सतत सरस्वती का वरदान प्राप्त रहे । इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।



      

वह नरेन्द्र यह नरेन्द्र
अनिल जोशी
anilhindi@gmail.com
नरेन्द्र नाथ दत्त का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कोलकत्ता में हुआ था। उनके लगभग 73 वर्ष बाद जन्म हुआ नरेन्द्र कोहली का । हम जानते हैं कि पहले नरेन्द्र याने नरेन्द्र नाथ दत्त रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा प्राप्त कर विवेकानंद बने। विवेकानंद ने भारत मे आत्मसम्मान और गौरव का भाव भरने का अद्भुत काम किया। उस काल में बंगाल मे पुनर्जागरण के नाम पर बंकिम चन्द्र जैसे एकाध साहित्यकार को छोड़कर भारतीय बोद्धिक बल हताश हो गया था और पश्चिम के अंधानुकरण और आत्मग्लानि के भाव से भरा हुआ था। उस समय स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की विश्व धर्म संसद मे भाषण दिया वह 20 शताब्दी में होने वाले श्रेष्ठ महापुरूषों के नेतृत्व में चले भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम का आधार वक्तव्य बना । कुछ लोगों का मानना है कि विश्व धर्म संसद के आयोजन का प्रयोजन पश्चिम की श्रेष्ठता की स्थापना करना और भारत, भारतीयता, हमारे विश्वासों, हमारी आस्थाओं, हमारी मूल्य प्रणाली को कबीलाई. अंधविश्वासी, रूढिवादी , पुरोगामी सिद्ध करना था जिससे भारत के आर्थिक, सामाजिक , सांस्कृतिक शोषण को नैतिक आधार मिल सके । याने रूडयार्ड किपलिंग की ‘ वाइट मैन बर्डन’ की थ्योरी को बल मिले । स्वामी विवेकानंद ने भारतीय दर्शन के बहुलतावाद, सहिष्णुता को शिकागो में स्थापित कर दिया। स्वामी विवेकानंद ने शिकागो धर्म संसद और उसके पश्चात अमेरिका , ब्रिटेन और पश्चिम के विद्वत समाज जिसमे हावर्ड और आक्सफर्ड जैसे पाश्चात्य ज्ञान के सर्वोच्च शिखर शामिल थे को ‘ बिना खड्ग , बिना ढाल ‘  नीवं हिला दी । यह पूर्व और पश्चिम की आधारभूत मान्यताओं और जीवन मूल्यो की दिलचस्प मुठभेड़ थी । शिकागो की धर्म संसद की घटना इतनी महत्वपूर्ण है कि यह कहा जा सकता है कि लालकिले पर भारतीय स्वतंत्रता का जो ध्वज 15 अगस्त 1947 को फहराया गया था परंतु भारत की मानसिक और आध्यात्मिक स्वतंत्रता का ध्वज शिकागो में सितंबर 1893 में स्वामी विवेकानद द्वारा फहराया जा चुका था । यह भी कहा जा सकता है कि शंकाराचार्य द्वारा शाश्त्रार्थ द्वारा बुद्ध धर्म के उन्मूलन के पश्चात विश्व के इतिहास में विचार की विजय का दूसरा महत्वपूर्ण उदाहरण था। सवाल यह है कि इस वैचारिक पराक्रम का आधार क्या था ? इसके मूलभूत उपकरण क्या थे ?
19 वीं शताब्दी औद्योगीकरण और विज्ञान की विजय का डंका पीट रही थी। बोद्धिकता , तर्क शाश्त्र और रेशनल एट्टीट्यूड का बोलबाला था। भौतिकवाद पर आधारित पश्चिम की व्यक्ति , समाज और राष्ट्र की अवधारणाएं जिस ‘स्व’ ( Self) पर आधारित थी वह सृष्टि के प्रत्येक उपकरण के साथ एकात्म नहीं था, प्रतियोगी था। कोई भी बात जो तर्क से और प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा सिद्ध न हो सके उसे पश्चिम और पश्चिम के प्रभाव में भारतीय बुद्धिजीवी मानने को तैयार नहीं था। यह संयोग नहीं है कि शिकागो की विश्व धर्म संसद मे अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद ने गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत की बात की । पुनर्जन्म के लिए जैनेटिक्स ( आनुवांशिकी ) और डी.एन.ए की बात की । बहु प्रचारित कर्म सिद्धांत की बात की जिसकी न्यूटन के सिद्धांत Every Action has opposite and equal reaction  से साम्यता है। भौतिकी और रसायनशाश्त्र की बात की। बौद्धिकता, तार्किकता , वैज्ञानिकता का संयुक्त प्रभाव था कि पश्चिम को उसी के तर्कों से उन्होंने बांध दिया । विवेकानंद लिखते हैं कि ‘ यदि ईश्वर है तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नाम की कोई चीज है तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्यथा विश्वास ना करना ही भला । ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है।... भौतिकविज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो , ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा । ‘  ( राजयोग ) कहते हैं कि विवेकानंद की राजयोग संबंधी पुस्तक टालस्टाय जैसे महान लेखक ने एक सिटिंग में पूरी पढ़ी थी । तो विवेकानंद की वैज्ञानिकता, बोद्धिकता, प्रखर तर्कवाद वह आधार था जिससे वे पश्चिम के ज्ञान के साथ लोहा ले सके। चमत्कार, जादू से दूर उन्होंने भारतीय दर्शन और आध्यात्म को विज्ञान से सिद्ध किया।  
नरेन्द्र कोहली के लेखन की भी तो यही धरोहर है । नरेन्द्र कोहली ने भारतीय वाड्मय पर लेखन सबसे पहले रामकथा से प्रारंभ किया।  उन्होंने रामकथा का मानवीकरण किया।  60 के दशक मे जब उन्होंने लिखना शुरू किया तो साहित्यिक आंदोलनों का जोर था। वामंपंथी , प्रगतिवादी, प्रगतिशील होना एक फैशन था। नरेन्द्र कोहली के तार्किक मन ने रामकथा के प्रचलित आध्यात्मिक निहितार्थों को समझते हुए भी आधुनिक भारतीय मन के तर्कवाद और बुद्धिवाद के और साईँटिफिक टेंपर के प्रति आग्रह को देखते हुए रामकथा को चमत्कारों से मुक्त किया । उन्होंने व्यक्ति मनोविज्ञान , सामाजिक मनोविज्ञान , नृतत्वशाश्त्र, भाषाविज्ञान , लोक मान्यताओं, विभिन्न रामकथाओं के तुलनात्मक और सम्यक मूल्यांकन के आधार पर पात्रों और घटनाओं की पुनर्व्याख्या की । उन्होने अपनी रामकथा का  आधार तुलसी का मानस नहीं लिया बल्कि राम को मनुष्य मानते हुए सृजित बाल्मिकी रामायण ली। उन्होंने कैकयी द्वारा राम को बनवास भेजने की व्याख्या महलों में चल रहे षडयंत्रों और स्वयं कैकयी के  भाई की हत्या के संदर्भ में की । क्या कारण था कि दशरथ तुरंत याने अगले ही दिन राम का राज्याभिषेक करना चाहते थे ? क्यों बनवास के बाद भी राम अपनी मां और परिजनों की सुरक्षा की चिंता के चलते चित्रकूट में रहे ? विश्वामित्र की राम को वनों में ले जाने के पीछे क्या मंशा थी ?  अहिल्या शिला थी या शिलावत् थी। हनुमान , सुग्रीव वानर थे या वानर जाति से थे । अगर सुग्रीव वानर थे तो उनकी पत्नी की पूंछ क्यों नहीं थी ? क्या हनुमान ने उड़कर लंका  पार की थी या रावण सीता को विमान से अपहरण कर ले गया था ? रामकथा के मूल तत्वों से खिलवाड़ ना करते हुए  उन्होनें लाखों हिंदी पाठकों के लिए रामकथा की ऐसी सहज, तर्कपूर्ण और  विश्वसनीय व्याख्या की हिंदी जाति ने उसे हाथों – हाथ लिया ।  साथ – साथ नरेन्द्र कोहली को उन वामपंथी बुद्धिजीवियों से भी संघर्ष करना पड़ा जो भारत की संस्कृति को पुरातनपंथी, अंधविश्वासी, प्रगति विरोधी , ब्राह्मणवादी कह कर साहित्य से बहिष्कृत, अपमानित कर रहे थे। जिनके यूटोपियन आदर्श वाली राज्य व्यवस्था अपने अंतरविरोधों से 50-60 साल में ही भुरभुरा कर गिर पड़ी। वे भारतीय संस्कृति के आदर्शों और महापुरूषों की हत्या का विचार लेकर चाकू के रूप में कलम का इस्तेमाल कर रहे थे । भारतीय संस्कृति को राम को दलित विरोधी, स्त्री विरोधी, ब्राहम्णवादी, साम्राज्यवादी, आर्य श्रेष्ठता के प्रतीक के रूप में स्थापित कर रहे थे । वरदान, शाप, चमत्कारों से दूर नरेन्द्र कोहली ने हिंदी साहित्य के मिजाज़ को समझकर राम के व्यक्तित्व के कुछ पक्षों को नए तरीके से रेखांकित किया। यहां राम शबरी के बेर खा रहे हैं, केवट और सुग्रीव से मित्रता कर रहे हैं। दलित, वानर और आदिवासी जातियों को संगठित कर रहे हैं। समता और न्याय के लिए सन्नद्ध हैं। श्रम को महत्व दे रहे हैं। अहिल्या को मुक्ति दे रहे हैं। यह हिंदी जगत मे राम का नायक के रूप में पुन : अवतार था। नरेन्द्र कोहली के लेखन के चलते 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में हिंदी के लाखों पाठको ने राम के इस स्वरूप को स्वीकार किया और राम का व्यक्तित्व कुछ और प्रखर और सामाजिक, संवेदनशील, साहसी और सबसे बड़ी बात कि और प्रामाणिक और  विश्वसनीय होकर जनता के सामने आया।
आध्यात्म के क्षेत्र जीवन की व्याख्या करने वाला  सबसे तर्कपूर्ण और वैज्ञानिक सिद्धांत है कर्म सिद्धांत । विवेकानंद के भाषणों में जीवन और घटनाओं की व्याख्या के लिए इसका बार-बार प्रयोग है। श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म का सिद्धांत अत्यंत वैज्ञानिक है। मुझे ध्यान है कि एक बार आई.ए.एस की  तैयारी कर रहे विद्यार्थियों को जब कर्म का सिद्धांत स्वीकार करने में कठिनाई हो रही थी तो नरेन्द्र कोहली ने न्यूटन के सिद्धांत एक्शन और रिएक्शन को उद्र्धत किया । विद्यार्थियो को बात तुरंत समझ में आई । जीवन और घटनाओं की व्याख्या का यह सार्वकालिक सिद्धांत विवेकानंद की स्थापनाओँ की रीढ़ था। नरेन्द्र कोहली की साहित्यिक स्थापनाओं के मूल में यही कर्म का सिद्धांत है। नरेन्द्र कोहली के कृष्ण कर्म के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए कहते हैं ‘अजुर्न प्रकृति की योजना अत्यंत विराट है । कई बार मनुष्य की बुद्धि उसके उचित परिप्रेक्ष्य मे नहीं देख पाती । प्रकृति कर्म को उसकी समग्रता में देखती है ;  और मनुष्य उसके एक खंड को कार्यान्वित कर , उससे समग्र कार्य का फल चाहता है। तुमने बीज बोया तो प्रकृति ने उसे अंकुरित कर दिया । अब यदि तुम उस अंकुर को जल से नहीं सींचोगे, तो यह पुष्पित और पल्लिवत नहीं होगा। . ... तुम उसकी रक्षा न करो , और कोई पशु उसे खा जाए , तो तुम यह शिकायत नहीं कर सकते कि प्रकृति ने उसका फल नहीं दिया। ... कर्म तो निरंतर सक्रियता का नाम है.. ।‘ नरेन्द्र कोहली ने महाभारत के महासमर के मूल मे वैचारिक अधिष्ठान  के रूप में कर्म सिद्धांत है वे स्थान –स्थान पर कर्म सिद्धांत की व्याख्या करते हैं. उसके तथाकथित अपवादों का स्पष्टीकरण देते हैं। कृष्ण के परम मित्र सुदामा को केन्द्र में रच कर लिखा गया उपन्यास ‘अभिज्ञान’  भी कृष्ण के कर्म सिद्धांत को केन्द्र में ही रखकर लिखा गया है। यह कर्म का सिद्धांत है जो दोनो नरेन्द्रों की वैचारिक स्थापनाओं का आधार है। वास्तव में आध्यात्म जीवन दर्शन को बोद्धिकता और वैज्ञानिकता से जोड़ने का आधार यही कर्म सिद्धांत है।
एक दूसरी महत्वपूर्ण समानता दोनो मे है उनका भारत प्रेम। एक सन्यासी के लिए यम, नियम,, ध्यान , धारणा प्रत्याहार , ध्यान , समाधि का रास्ता मोक्ष की तरफ जाता है परंतु विवेकानंद को भारत के जन – जन से प्यार है। वे दीन दुखियों की सेवा को अपने जीवन का आधार मानते हैं । वे उस वैराग्य और उस आधार पर मिलने वाले मोक्ष के विरोधी हैं जो भारत और भारतीय समाज के प्रति अपने दायित्वो कि अवहेलना सिखाता है। भारत के प्रति ऐसा प्यार की पश्चिम से वापसी पर भारत की मिट्टी में लोट गए। भारत माता का यह पुत्र अपने करॉडों भाईयों बहनों की दशा देख विह्वल हो जाता है। वह पश्चिम से कहता है हमें धर्म नहीं चाहिए। हमें करोंडों लोगों के जीवन स्तर को उठाने के लिए तुम्हारा सहयोग चाहिए । वह भारतवासियों को ‘उतिष्ठत जाग्रत प्राप्य वारानिबौद्धत : ‘ का उद्घोष करता है। सवाल उठता है है कि सन्यासी का कौन सा देश ! उसे तो अपनी मुक्ति की चिंता होना चाहिए!  विवेकानंद के यहां भारत भक्ति है पर दीन भाव नहीं है।  वह ओज है जो पश्चिम के पाखंडी धर्मगुरूओं को चुनौती देता है। वह पुरूषार्थ जो भारत के राजे – रजवाड़ों को अपनी प्रजा की चिंता के लिए आह्वान करता है।
नरेन्द्र कोहली के लेखन के केन्द्र मे किन्हीं एबस्ट्रक्ट मान्यताओं की स्थापना नहीं बल्कि धर्म, और महान मूल्यों और जीवन प्रणाली की कर्म स्थली रहा भारत है। राम , कृष्ण  जैसे चरित्रों को वर्तमान युग मे लोकनायक के रूप में प्रस्तुत कर वे वर्तमान भारत के ओजस् का आह्वान करते हें। उसके प्रतिशोध की परंपरा को भी आह्वान करते है। वे कृष्ण के चरित्र को रेखांकित करते है जो दुष्टों को क्षमा नही करता । नरेन्द्र कोहली द्वारा रोल माड्ल के रूप मे विवेकानंद का चयन यह दर्शाता है कि दोनो के विचार के मूल में भारत और धर्म है परंतु यह धर्म त्याग और क्षमा का ब्राहम्ण धर्म नहीं है बल्कि देश के राजस, ओज और प्रखरता को जगाता क्षात्र धर्म है। विवेकानंद जिस प्रकार पाखंडी ईसाई पादरियो, पश्चिमी विद्वानो और उनके भारतीय अनुयायियो का ओजपूर्ण तरीके से सामना करते  हैं वही नरेंद्र कोहली राम और कृष्ण को केंद्र में रख अन्यायी ,, अधर्मी और आसुरी प्रवत्तियों के प्रतीक प्रतिनिधि चरित्रों को दंडित करते हैं। यह प्रखरता , ओज, भारत निष्ठा दोनो नरेन्द्रों के विचार के केन्द्र मे है।

“स्मृति की एक विशेषता होती है कि वह अपने पीछे कोई पद-चिन्ह नहीं छोड़ जाती, वह स्वयं पद – चिन्ह बन जाती है। परंपरा का मतलब इन पद- चिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को पारिभाषित करना है जहां मनुष्य आज जीवित है। हम चलते पीछे की तरफ हैं , किंतु पहुंचते वहीं है, जहां आज हम इस क्षण में हैं। परम्परा इस अर्थ मे विगत की खोज नहीं, विगत के भविष्य का अन्वेषण है। हम पीछे की तरफ  चलते हुए आगे की तरफ बढ़ते हैं, और तब हमें पता चलता है कि आगे और पीछे का ऐतिहासिक बोध स्वयं अपने मे छलना है- समय की दृष्टि से जो आगे हो , जरूरी नहीं वह विगत की कसौटी बन सके ; उल्टे जो बीत चुका है वह एक नैतिक मर्यादा के रूप में एक स्वपन की तरह मनुष्य के आगे-पीछे चलता है। “ निर्मल वर्मा ।
स्वामी विवेकानंद और नरेन्द्र कोहली के बीच एक और समानता अपने अतीत , अपनी पहचान, अपनी अस्मिता की ठोस जमीन पर खड़े होकर वर्तमान से मुठभेड़ है। वेदों को गडरियों की वाणी कहने वाले पश्चिम को स्वामी जी ने वेदो का अर्थ समझाया। इस काम में सहायता के लिए प्रों. मैक्समूलर से आक्सफोर्ड से भेंट कर आभार प्रकट किया। वेदों के अनंत और अनादि होने का अर्थ पश्चिम को समझाया। कर्म सिद्धांत को आधार बना जीवन की व्याख्या की। कृष्ण के जटिल और बहुआयामी स्वरूप  को दुनिया के सामने रखा। भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान और प्राणी शाश्त्र जैसे ज्ञान के बरक्स भारतीय आध्यात्म का विवेचन किया। हंस की  तरह हमारी धरोहर के सार को आत्मविश्वास के साथ पश्चिम के सामने प्रस्तुत किया । उस समय राजा राममोहन राय जैसे विचारकों के भारत के बारे में प्रचार  का एक दुष्परिणाम यह हुआ था कि पश्चिम समझता था कि भारत में विधवा होते ही प्रत्येक स्त्री को जला दिया जाता है। कई भाषणों मे तो स्वामी जी को कहना पड़ा कि मेरी मां विधवा है और वह जीवीत होकर अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह कर रही है।
उन्होंने अपने ज्ञान से अभिभूत पश्चिम को बताया कि अभी तो भारतीय वाड्मय के एक अंश को ही आपने सामने रखा है। हावर्ड विश्वविद्यालय ने उनको अपने यहां प्रोफेसर के रूप में कार्य करने का प्रस्ताव किया। उनके भाषण विज्ञान की नवीनतम उपलब्धियों के बरक्स भारतीय आध्यात्म और इतिहास की व्याख्या करता था। नरेन्द्र कोहली ने रामकथा, महाभारत और विवेकानंद चरित लिख कर वही काम किया है। विवेकानंद के समक्ष 19 वीं शताब्दी के बंगाल के वे बुद्धजीवी थे जो पश्चिम के सामने आत्मसमर्पण कर बैठे थे। कईयों ने तो धर्मांतरण तक कर लिया था । 19 वी शताब्दी के अंत मे जब साम्राज्यवाद का अहंकार अपने चरम पर था और उसमे दो विश्वयुद्धों का पंचर नहीं लगा था और ऐसे मे मैकाले जैसे नीति - निर्माता भारतीय ज्ञान – विज्ञान के संबंध में अपमानजनक टिप्पणियां कर रहे थे।
नरेन्द्र कोहली के सामने दो तरह के वैचारिक अधिष्ठान थे। एक तो पाश्चात्य ज्ञान – विज्ञान से आक्रांत दूसरे वामपंथी बुद्धिजीवी जो अपनी नास्तिकता, अधार्मिकता तथाकथित वैज्ञानिकता से भारतीय जीवन के नैतिक मूल्यों और आदर्शो का मजाक उड़ा रहे थे। साहित्य में इनका बोलबाला था। नरेन्द्र कोहली ने रामकथा की पुनर्वव्याख्या की, उसे चमत्कारों से अलग किया। राम के जीवन के सामाजिक पक्ष को  जन सामान्य के सामने नई तरह से रखा। हिंदी के पाठक ने तथाकथित मुख्य धारा को दुत्कारते हुए उन्हें हाथोहाथ लिया। नरेन्द्र कोहली अतीत के प्रवक्ता नहीं थे वे जनता की रगों में बहते हुए जीवनमूल्यों को उनके सामने प्रस्तुत कर रहे थे। नरेन्द्र कोहली के महासमर के कृष्ण और युधिष्ठर वर्तमान समाज के सामने अन्याय और असत्य के खिलाफ दो बड़े प्रतीक थे। हिमालय के समान उज्ज्वल , शुभ, धर्म के लिए प्रतिबद्ध , सदा अनासक्त कर्म में लीन । युधिष्ठर के इस अहैतुक कर्म के सिद्धांत का उल्लेख स्वामी जी ने अपने शिकागो के भाषण में भी किया है। यह संयोग नहीं है कि नरेन्द्र कोहली के महासमर के नायक यही युधिष्ठर हैं। जब अन्य साहित्यकार युधिष्ठर को कैरिकेचर के रूप में प्रस्तुत कर रहे थे। ऐसे में युधिष्ठर को महानायक के रूप में प्रस्तुत करने का काम केवल नरेन्द्र कोहली के बुते का था। अपनी जड़ों को समझना, जानना, सींचना , पुष्ट करना उसके प्रति  आत्म सम्मान का भाव उस नरेन्द्र में भी था और इस नरेन्द्र में भी।
विवेकानंद प्रखर बोद्धिक थे, तर्कवादी और विज्ञानवादी। प्रारंभ में तो कई बार वे रामकृष्ण के ईश्वर से तादातम्य का मजाक उड़ाया करते थे। रामकृष्ण कई बार उससे आहत भी हो जाते थे। परंतु जब ईश्वर पर विश्वास हुआ तो ऐसा कि अपना जीवन ईश्वर पर छोड़ दिया । सुबह खाया तो शाम के भोजन की चिंता नहीं, ईश्वर देगा। शिकागो में पहुंचे तो गंतव्य स्थल का पता गुम गया था। रात मालगाड़ी के डिब्बे में बितायी।  समाधि लगती तो ऐसी की अपना होश नहीं रहता । यहां तक कि शिकागों में भी मंच पर ही समाधिस्थ हो गए। वे तर्क से आस्था की मंजिल पर पहुंचे थे। यही रास्ता नरेंद्र कोहली ने अपनाया। अपने प्रारंभिक लेखन मे वे हर चीज की तार्किक व्याख्या करते थे। उनका रामकथा का पुनर्पाठ तार्किकता से प्रेरित है। पंरतु महासमर में आते – आते विराट चरित्रों की संगत मे दिन रात रहते वे आस्थावादी होने लगे । उन्हें आध्यात्मिक तर्क स्वीकार होने लगे। दोनो प्रखर बुद्धिवादियों की आस्थावादी होने की यह यात्रा भी एक समान है।
बिना अपनी जडों को समझे और सींचे महान साहित्य नही लिखा जा सकता । शैक्सपीयर, कालिदास, जयशंकर प्रसाद , हजारी प्रसाद द्विदी, अमृत लाल नागर जैसे रचनाकार इसके उदाहरण है। शैक्सपीयर ने अपने पात्र इंगलैण्ड के इतिहास से लिए, वहीं प्रसाद जी ने भी भारतीय इतिहास की पुनर्व्याख्या में रूचि दिखाई। अमृतलाल नागर ने भी तुलसी और सूर की जीवनी पर आधारित उपन्यास लिख उनके आदर्शों राम और कृष्ण को पुन :  स्थापित किया। लेखक और विचारक नरेन्द्र कोहली ने अपने लेखन, रचना और विचारों से भी यही काम किया पर यह ढह रहे पीले पत्तों को पोषित करने वाले लेखकों को समझ नहीं आया। ऐसे लेखक,आलोचक जो कर सकते थे उन्होंने किया । उन्होंने नरेन्द्र कोहली को नकारा, आलोचना की , अपमानित किया, उपहास उड़ाया और बहिष्कृत किया। यहां तक की मौलिक  रचनाकार मानने से इंकार कर दिया। पंरुतु नरेंद्र कोहली के लेखन का जादू हिंदी समाज के सर पर च़ढ़कर बोल रहा था। उन्हे हाथोंहाथ लिया गया। वे लोकप्रिय हुए । अत्यंत लोकप्रिय। सबसे लोकप्रिय। लोग अपने भीतर प्रवाहित राम, कृष्ण , युधिष्ठर को 20 वीं शताब्दी के ज्ञान के आलोक में जानना और समझना चाहते थे। एक लेखक ऋषि जिसने दृष्टा बनकर उसे देखा और सृष्टा बनकर उमके मूल तत्व को कथा के रूप में सृजित किया हिंदी जगत ने उसे असीम प्यार, सम्मान और श्रद्धा दी।
स्वामी विवेकानंद और नरेन्द्र कोहली यानि उस नरेन्द्र और इस नरेन्द्र में प्रखरता , बुद्धिवादिता, वैज्ञानिकता, प्रखरता, ओज, भारत के प्रति भक्ति  भाव, अतीत- अस्मिता और पहचान  के प्रति गौरव भाव व पुनर्व्याख्या के सूत्रों से हम देख सकते हैं कि नरेन्द्र कोहली मौलिक हैं पर एक शुरूआत नहीं है । एक क़ड़ी हैं उस गौरवशाली परंपरा की जिसके प्रतिनिधि नरेंद्रनाथ दत्त थे और जिसकी 20वी और 21वीं शाताब्दी में प्रस्तुति नरन्द्र कोहली ने हिंदी साहित्य में की। देश , समाज , इतिहास और साहित्य के लिए आवश्यक है कि 6 जनवरी को उनके 75वं जन्मदिवस के अवसर पर हम उनके द्वारा प्रस्तुत महान नायकों के जीवन से प्रेरणा लें। उनकी कथाओं के माध्यम से देश और समाज को समझें और अपने जीवन को एक सात्विकता, प्रखरता, पवित्रता, शुभ्रता  की तरफ ले जाने वाले इन दोनों नरेन्द्रों और उनके आदर्श विशिष्ट व्यक्तित्वों से प्रेरणा ग्रहण करे।