शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

अटल बिहारी वाजपेयी के संस्मरण

भारतीय भाषाओं के  प्रतीक पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सुनहरी यादें



संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी में भाषण देते हुए अटल बिहारी वाजपेयी


संघ लोक सेवा आयोग के सामने भारतीय भाषा आंदोलन में सांसदों के साथ 


भारतीय भाषाओं के  प्रतीक पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सुनहरी यादें


आज  25 दिसंबर अटल जी का जन्मदिन है । कई बार सोचता हूं कि मैं बड़ा भाग्यवान हूं कि मुझे ऐसे विराट् व्यक्तित्व से मिलने, देखने और समझने का मौका मिला।  ऐसे ही कुछ  अविस्मरणीय यादें साझा कर रहा हूँ। 


 बात 80 के दशक के अंत की है।  संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं  में भारतीय भाषाओं को लेकर संघ लोक सेवा आयोग मे आंदोलन चल रहा था ।आंदोलन को चलते हुए बहुत समय हो गया था। आगे  कुछ रास्ता ना निकलते देख पुष्पेंद्र चौहान, राज करण सिंह जैसे आंदोलनकारी आमरण अनशन पर बैठ  गए थे । यह आंदोलनकारी अपनी भावना, निष्ठा और समर्पण के लिए देशभर में जाने जाते थे।  ऐसे समय में रणनीति बनाकर संसद ,समाज, राजनीतिज्ञों और मीडिया को साथ जोड़कर  देश में आंदोलन खड़ा करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी।  आमरण अनशन शुरू करने के बाद कई दिन निकल गए थे।  धीरे- धीरे समाज और मीडिया में  उसकी चर्चा भी कम होती जा रही थी । उधर आमरण अनशन करने वालों का स्वास्थ्य  बिगड़ता जा रहा था।  मेरे पास उस संगठन का संयोजक के रूप में दायित्व था ।  इन परिस्थितियों में कोई रास्ता ना निकलता देख मुझे लगा भाषा के प्रति अनन्य प्रेम रखने वाले देश के प्रमुख व्यक्तित्व अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात की जाए और उनसे मदद के लिए आग्रह किया जाए। 

 यह सर्दियों की शाम का समय था।  शाम और रात के बीच  का अंधेरा था।  पूरा अंधेरा नहीं, चेहरे पहचाने जा सकते थे । राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर अटल जी की कोठी पर एक कार्यकर्ता के साथ पहुँचा ।  मेरा कोई उनसे पूर्व  परिचय नहीं था।  बिना किसी  तलाशी या पूछताछ के बाद वहां मुझसे नाम आदि पूछा गया। मेरे पास कोई विजिटिंग कार्ड नहीं था।  मैंने एक साधारण कागज़ पर अपने हस्त लेख में अपना नाम लिखा, नीचे भारतीय भाषा संगठन लिखा और भेज दिया।  5 मिनट बाद ही मैं देखता हूं कि अटल जी आते हुए दिखाई दिए। सामने चार- पांच सीढ़ियां थी । वे सीटियों   के ऊपर खड़े थे हम  नीचे थे।  उन्होंने पूछा  तुम लोग किस से पूछ कर ये आमरण अनशन आदि शुरू  कर देते हो ?  मैंने जवाब दिया आज ही पत्रकार आए थे और उन्होंने पूछा आपके मार्गदर्शक, सहायक कौन है हमने तो आपका ही नाम लिया है।   वे हँसने लगे । सीढ़ियां चढ़ कर एक मेज रखी थी।  वहीं हम आमने- सामने बैठे  । उन्होंने पूछा कि बताओं क्या स्थिति है ?  मैंने एक- एक करके हमारी माँगे, मुद्दे और भाषा आंदोलन की प्राथमिकताएं उनके सामने रखी।  वे गौर से सुन रहे थे।  बीच-बीच में कुछ प्रश्न भी करते थे।  बात करते-करते मुझे यह भी ध्यान था कि मैं एक बड़े राजनेता से बात कर रहा हूँ।  इसलिए मैं उन सब बातों को दोहराता भी था जिनके बारे में मुझे लगता था कि उन्हें रेखांकित करना जरूरी है। 40 -45 मिनट बाद  धन्यवाद देकर  हम लोग निकले।  उस समय हम लगातार राजनेताओं और सांसदों से पत्रकारों से मिल रहे थे जिससे आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया जा सके।  हमने साथियों को संघ लोक सेवा आयोग के सामने लगे टेंट में चाय पीते हुए अटल जी से  मुलाकात के बारे में बताया ।  परंतु हमें यह नहीं पता था इसका परिणाम क्या होने वाला है ? 

 उस समय अटल जी राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। दो दिन बाद की बात होगी मैं किसी के घर में बैठा हुआ था हम लोग भोजन कर रहे थे।  उस समय दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आता था संसद समाचार ।  उस दिन के समाचारों में विस्तार से अटल जी के भाषण का उल्लेख किया गया।  जिनमें आंदोलन के प्रति प्रबल समर्थन तो था ही साथ ही  हमारे सभी मुद्दों को बड़ी स्पष्टता और प्रखरता के साथ संसद में रखा गया था।  यहां तक की वे सब बातें जो सामान्य रूप से गौण समझी जाती है उनका भी उल्लेख था। जैसे हमने उन्हें बताया था कि संघ  लोक सेवा आयोग में तो अंग्रेजी की अनिवार्यता तो है ही परंतु स्टाफ सिलेक्शन कमीशन में क्लर्क की भर्ती में भी  अंग्रेजी की अनिवार्यता है!  यह बात भी उन्होंने संसद में उठायी । 


 मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था । हम आंदोलन के सिलसिले में रोज राजनेताओं से मिलते थे। प्राय: भाषा का सवाल उनकी प्राथमिकता में कहीं नीचे ही होता था।   जो  समर्थन संसद के मंच से अटल जी ने दिया वह हमारे लिए बहुत सहायक हुआ।  एक नितांत, अपरिचित युवा को समय देना,  धैर्य के साथ उसकी बातें सुनना, उसके दृष्टिकोण से भाषा आंदोलन को और उसके मुद्दों को समझना , देश के सबसे बड़े मंच पर विस्तार के साथ उन मुद्दों को  रखना,  उनकी भाषा के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता को दर्शाता है साथ ही  यह भी दिखाता है  कि वे  कितने बड़े इंसान थे ! यह  इसका भी परिचय देता है कि वे  अनजान व्यक्तियों और युवाओं की बातों को संवेदना और सहानुभूति  के साथ समझते थे।   73 साल की आज़ादी के काल में वे प्रमुख व्यक्ति थे जो   हिंदी और भारतीय भाषाओं को देश- विदेश में अभिव्यक्ति देने वाले बने।  वे  हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रतीक पुरुष  बने   जिसने पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में  भारत को हिंदी के माध्यम से अभिव्यक्त किया और हिंदी भाषियों और भारत का गौरव बढ़ाया । यह सब ऐसे ही नहीं था।  उसके पीछे  भाषायी संवेदना, समझ , विजन ,प्रतिबद्धता, विनम्रता जैसे कई गुण थे  जो उनके व्यक्तित्व में  अंतर्निहित थे । 


साहित्यिक दृष्टि से  भी एक व्यक्तिगत स्मृति  है  जो उनकी  साहित्यिक समझ, खुलेपन और गहरी दृष्टि को बताती है।   डॉक्टर नरेंद्र कोहली  की महाभारत पर  लिखी पुस्तक के लोकार्पण में अटल जी मुख्य अतिथि थे । मैं कार्यक्रम का संचालन कर रहा था ।  कार्यक्रम में चर्चा का केंद्र कर्ण हो गया । अटल जी ने  कहा मैंने आज तक कर्ण  को वंचित व्यक्तित्व के रूप में को देखा था परंतु नरेंद्र कोहली जी ने कर्ण के व्यक्तित्व की जो व्याख्या की है और जिस प्रकार से द्रौपदी के चीरहरण के समय उसके व्यवहार को रेखांकित करते हुए उसके व्यक्तित्व को परिभाषित किया है वह भी महत्वपूर्ण है।  मैं कर्ण  के व्यक्तित्व को दोबारा से देखने और विचार करने की आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ।  इतने वरिष्ठ राजनेता जिनसे  केवल  आशीर्वाद, मार्गदर्शन या ‘अंतिम सत्य’ सुने जाने की अपेक्षा  की जाती हो उनके द्वारा अपनी अवधारणाएं बदलने की बात करना, या उन पर दोबारा सोचने की बात करना इस बात का प्रतीक था कि शिखर पर पहुंच कर भी वे सरल, सहज और खुले थे।  इतनी ऊंचाई पर ऐसी सरलता ,सहजता,  खुलापन उनकी  ख़ासियत थी। 


वे वर्तमान परिस्थितियों में और प्रासंगिक हो गए हैं।  आइए उनसे प्रेरणा लेकर पुन:  करोड़ों लोगों की भाषाओं को उचित स्थान दिलाने के अपने  अभियान को हम जारी रखें। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि। 





 



गुरुवार, 14 मई 2020

टिंबकटू में खोरोना




                                      टिंबकटू  में खोरोना

एक द्वीप था - टिंबकटू । उसकी प्रजा सब प्रकार से समृद्ध और सुखी थी। उसे पृथ्वी पर स्वर्गलोक जैसा माना जाता था। इतना सुखी - इतना सुखी की वहाँ चाकलेट के पहाड़ दिखाई देते थे । अाईसक्रीम की नदियां बहती थी। पीजा के पठार थे। मैक़डानल्ड के  नोन वेज बर्गर की घाटियां थी। । बच्चे पैदा होते ही मां का दूध नहीं  बल्कि कोक या पेप्सी मांगते थे। 

उस देश का राजा पंप था । उसका नाम पंप था पर वह दरअसल लोगों में हवा भरने का नहीं, निकालने का काम करता था। उसमें खुद में हवा भरी रहती थी ।वह अपने चुटकलों के लिए विख्यात था। न .. ना वे चुटकले नहीं कहता था। दरअसल वह  बातें सीरीयसली ही लिखता था। पर दुनिया उसके चुटकलों पर हँसा करती थी। उस जमाने में उनके चुटकलों को ट्ववीट कहा जाता था। वह ट्वीट में आम तौर पर बीट करता था। पर उसकी ताकत की वजह से बहुत से लोग बीट को उसकी कृपा का प्रसाद ही मानते। वह कभी कह देता कि किसी द्वीप को चुटकियों में उड़ा देंगे। कभी कहीं दीवार खड़ी करने की बात करता । वह अपने दोस्तों को डराता और दुश्मन डर जाते थे कि अगर यह दोस्तों की ऐसी -तैसी कर रहा है तो दुश्मनों के साथ क्या करेगा। सनकी है.. इससे दूर रहो। 

एक बार  टिंबकटू द्वीप के राजा पंप को बताया गया  कि पता चला है कि चिंग चिंग द्वीप मंे खोरोना महामारी हो गई है। चिंग चिंग द्वीप के लोग मरने लगे हैं। टिंबकटू द्वीप मे चिंग चिंग द्वीप से भी व्यापार करने लोग आते हैं।  इसलिए टिंबकटू द्वीप में भी महामारी का खतरा है।  उसने राज्य के वैद्यों को बुलाया और उनसे पूछा।  सबने कहा कि मामला बहुत संकटपूर्ण हो सकता है। प्रजा को कहा जाए कि वह घर में ही रहे। पंप ने हवा में मुट्ठी लहराई और कहा कि हमारी चिकित्सा व्यवस्था की असली हालत मैं जानता हूँ। 
 हमारे चिकित्सालयों में वैद्यों के पास काफी दिनों से कोई केस नहीं आ रहे हैं। शिकायत आई है कि वे सड़क पर चलते स्वस्थ लोगों को ललचाई नजरों से देखतेे हैं। कईयों को तो वे अस्पताल के अंदर फ्री रेस्टोरेंट है- कहकर ले जाते हैं।  सामान्य मरीजों को भी ढूंढ कर लाना ऐसे कठिन होता जा रहा है जैसा बंबू द्वीप में नसबंदी के लिए लोगों को हस्पतालों में लाना    कुछ दिन पहले ़डॉक्टरों ने यहाँ तक प्रस्ताव दिया था कि अगर टिंबकटू द्वीप में मरीज कम हैं तो उन्हें बाहर से मरीज आयात करने की अनुमति दी जाए।  श्मसान घाटों में भारी डिस्काऊंट है।  पादरियों को मौत पर बोले जाने वाली प्रार्थना ही भूल गई है।  दवाईयां गोदामों में पड़े - पड़े  एक्सपायर हो जाती है। जिनको दवाई देते भी हैं वे भी गूगल डॉक्टर से पूछते हैं कि दवाई खानी चाहिए या नही । हम एशिया और अफ्रीका के द्वीपों  में हो रही महामारियों के शोध  पर पैसा लगा रहे हैं और इधर हमारे पास दुनिया में बेचने के लिए हथियार बनाने के पैसे की कमी पड़ रही है। इसलिए बीमारियों पर  होने वाले शोध भी बंद कर दिए गए हैं। द्वीप के दूरगामी हित में है कि एक बार इसे आने दो । इसे हर्ड एफेक्ट  कहा गया । उसे मतलब बताने को कहा गया तो उसने उदाहरण दिया कि आदमीं गंजे कहकर कब बुलाए जाते हैं । जब ज्यादातर लोगों के बाल हो ।अगर देश ही गंजों का हो तो कौन किसका मजाक उडाएगा। हम सबको खोरोना करवा देंगे। पंप के मंत्रियों ने उसे बड़ी मुश्किल से समझाया। 
पंप के पास झंप , खंप , लंप जैसे दोस्त थे। उन्हें लगा खोरोना के चक्कर में उन्हें नुकसान हो जाएगा। उन्होंने पंप को कहा कि यह चिंग चिंग की साजिश है। वह चाहता है कि खोरोना के चक्कर में हम अपनी दुकाने बंद कर दें और उनका अलीबाबा और चालीस चोर टिंबकटू द्वीप की सारी नगदी उड़ा कर ले जाए। पंप ने  झंप , खंप, लंप जैसे दोस्तों की बात मानी और वैद्यों को डांटा और कहा कि हमें खोरोना पर  नहीं अलीबाबा चालीस चोर पर नज़र रखनी है।

इधर चिंग चिंग की खोरोना टिंबकटू पहुँच गई । वैद्याों ने तो काफी पहले से बता दिया था कि हमारी विज्ञान की बड़ी शोध दुनिया को केवल यह दिखाने के लिए है कि हम सबसे शक्तिशाली द्वीप है । इन पहाड़ों के नीचे मरी हुई चुहिया ही है।  आजकल  चिंग चिंग का असर इतना ज्यादा है कि हमारी लेबोरिट्रीयों में पाजामें  बनाने से लेकर चंद्रयान उड़ाने तक सारी परियोजनाएं पर चिंग चिंग का कब्जा है। हमारी पीजा में बेस उसी का है। हमारी आईसक्रीम में उसी की मिठास है। हमारे धनुष के तीरों में धार चिंग चिंग से ही आती है।


एक बात और थी टिंबकटू द्वीप के कुछ निवासी बहुत अंहकारी ,  बहुत  लापरवाह थे। उन्हें लगा कि उनके यहां के सैटेलाइट चांद और कई ग्रहों तक पहुंच गए है। परमाणु बम बना चुके हैं। यह कोरोना किस खेत की मूली है। वैसे भी वे चिंग चिंग द्वीप, बंबू द्वीप और अफ्रीका स्थित झंडू द्वीप के निवासियों को गाजर मूली समझते थे। उनका विश्वास था कि  कोरोना से इन द्वीपों के निवासी तो गाजर मूली की तरह खत्म हो जाएंगे पर हम जैसे टर्मिनेटरों पर इसका कोई असर नहीं पड़ने वाला। उन्हें केवल अलीबाबा चालीस चोर की चिंता सता रही थी। 
उनमंें से कई चाहते थे बस उनके मदिरालय, वैश्यालय , जुआलय चलते रहने चाहिएं।  दिन में समुद्री तटों पर मस्ती होती रहे  । रात में मिस टिंबक टू बांहों में सोती रहे । ऐसा नहीं उन्हें  खोरोना के बारे में बताया नहीें गया पर पंप की तरह उनमें खूब हवा भरी थी। वे खोराना का मजाक उड़ाते थे। 

पर पंप के इन तुगलकी फरमानों की कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ी । देश में त्राहि त्राहि हो गई। दुनिया के सबसे बुद्धिमान , आधुनिक माने जाने वाले द्वीप में कभी ऐसा होगा किसी ने सोचा न था। शहर के शहर वीरान थे। चीलें उड़ रही थी। बहुत ही दुखद दृश्य था। 

अब तो हर जगह से खोरोना से डिंग डिंग याने डेथ की खबर आने लगी । पंप की बातों पर जो पहले मुंह छुपा कर मुस्कराते थे । अब ठहाके मार कर हंसने लगे। पंप ने स्थिति नियंत्रित करने की कोशिश की।   उसने बताया  कि वह ठेकेदार होने से पहले एक झोलाछाप वैद्य भी रहा है। उसने लोगों को देसी नुस्खे बताने शुरू किए।  इसे पंप थेरेपी का नाम दिया गया। यह अपने समय की बहुत बड़ी इजाद थी। जिसके लिए मेडिसन के क्षेत्र में नोबल पुरस्कार देने तक पर विचार हुआ। यह आर -पार का खेल था। उसके विचार से इस महामारी का जन्म कीटाणु से हुआ है तो बस कीटाणु मारने वाला इंजेक्शन पिछवाड़े में ठोक दो । देखते -देखते पंप थेरेपी लोकप्रिय हो गई। जिस मरीज को पंप थेरेपी देने की बात करते थे। वह थर- थर कांपने लग जाता था । कुछ मरीजों ने इस थेरेपी लेने की तुलना में आत्महत्या करना ज्यादा पसंद किया।  उधर उसने घर की प्रयोगशाला में वैक्सीन भी विकसित करनी शुरू की । पूरा टिंबकटू भगवान से दुआएं कर रहा  हैं कि वह विकसित ना हो । अगर पंप वैक्सीन विकसित हो गई तो मरने वालों की संख्या में कम से कम कई जीरो और लग जाएंगे।   पंप को लगता था कि ये बातें तो कामन सेंस की हैं  लोगों को समझ क्यों नहीं आती ! वह समय का सिकंदर था चाहे बातें वह चुकंदर वाली करता हो। वैसे सिंकंदर और  चुकंदर में फर्क भी कितना होता है!

उधर हाहाकार मचने लगा था सारी दुनिया में खोरोना फैल चुका था। दुनिया घरों में दुबक पर बैठ गई थी । पर टिंबकटू देश के नजारे अलग थे। पंप रोज झोले से नया नुस्खा बता रहा था। लोगो न हँसना छोड दिया था पर रोने की ताकत नहीं रह गयी थी।। हँसते हँसते लोग रोेने लगे। हंसते हंसते लोग मरने लगे। रोते रोते लोग थक गए। पंप हवा निकले हुए ग्ुब्बारे की तरह पिचका हुआ था। कोरोना ने टिंबकटू की डिंग ़डिंग  मतलब ऐसी की तैसी कर  दी थी।  टिंबकटू द्वीप ने और दुनिया में पहली बार अपने नेता को निचुड़ा देखा। उसके झोले के सारे जोकर निकल चुके थे। वह खुद  मात की बिसात पर बैठकर जोकर लग रहा था। चिंग चिंग मंद मंद मुस्करा रहा था।

रविवार, 10 मई 2020

माँ के हाथ का खाना







माँ के हाथ का खाना 
अनिल जोशी
anilhindi@gmail.com


बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती है तुम्हारी मांँ
कहा एक मित्र ने 

पूछ कर आना उनसे 
कौन से  मसाले डालती हैं वो
हँस पड़ी माँ 
स्वादिष्ट खाना क्या सिर्फ मसालों से बनता है?

कौन सा घी इस्तेमाल करते हो तुम
पूछा - दूसरे मित्र ने
खाने में तरलता क्या घी से आती है?
एक प्रश्न मष्तिष्क में कौंधा 

इसमें कोई खास बात नहीं 
अगर हमारे पास समय हो तो
हम भी बना दें 
इतना ही स्वादिष्ट खाना 
जवान लड़की ने कहा
क्या सिर्फ समय होने से बन जाता है 
खाना स्वादिष्ट? 

नहीं ,
कुछ ना कुछ अद्भुत जरूर है मां के पास
तभी तो 
करेले में भी  आ जाती है मिठास 

माँ को बहुत अच्छा लगता है
गर्म -गर्म खाना बनाना और अपने सामने बैठ कर खिलाना
गुब्बारे से फूल जाती है रोटी
मचल उठता है बच्चा 
पहले मैं लूँगा

फूल सी महक आती है उसमें
तैरता रहता है स्नेह का घी
सब्जी जीभ स े लगते ही
संपूर्ण जिस्म बन जाता है 
जीभ
जबडो़ं में नही ंघूमता रहता है ग्रास 
सीधा हलक में उतर जाता है
तुप्त हो जाती है आत्मा 

मां देखती रहती है , ुमुस्कराती रहती है
कभी -कभी आंसू छलक जाते हैं उसके

सोचता हूँ 
किसी माँ के हाथ का खाना खाकर ही 
ऋषियों ने कहा होगा 
अन्न ही ब्रह्म है

शुक्रवार, 8 मई 2020

बोतल पार्टी का घोषणा पत्र



बोतल पार्टी का घोषणा पत्र








देश इतने दिनों से लॉकडाऊन में था। ऊंघता हुआ.., डरा हुआ.., सोता हुआ .., सोचता हुआ..। लॉक़डाऊन खत्म हुआ तो देश की जान में जान आयी। लोग डरे हुए थे।  किस से …? कोरोना से.. ? कोरोना चमगादड़ से कौन डरता है। जिस दिन मरना है तो मर जाएंगे। पर यह जो कुत्ते की मौत मारा जा रहा है.. ना मौसी। यह सही नहीं है।  यह लानतें सही नहीं जाती । करोडों लोगों की हालत केश्टो मुखर्जी जैसी हो रही है। जीभ सूख गयी है।  होंठ ऐंठ गए हैं। बहुत से अर्थशाश्त्री लॉकडाउन के बारे में कह रहे हैं कि अगर वह चलता रहा तो हजारों लोग भूख से मर जाएंगे। पर मैं कसम खाकर  कहे देता  हूँ - मौसी कि अगर लॉकडाउन कुछ दिन और चलता रहा तो यहां शराब की वजह से मरने वालों की लाशें बिछ जाएँगी और जिम्मेदार सरकार होगी और यह ढोंगी समाज होगा। आई हेट दीस स्क्राऊ़डल्स हाइपोक्रेट इकनामिस्ट  एंड समाज। 
अाखिर  कोई हद होती है । हम देशभक्त है। सरकार हमारे पैसे से चलती है। यह कोई हमसे प्रेम था जो शराब बंदी हटा दी। शराब के दाम बढा दिए । पांच , दस , पच्चीस , नहीं सत्तर प्रतिशत । सालो …वह भी ले लो। खून पी लो ..जनता का । पर हम देशभक्त हैं। देशभक्त हैं.. हम। पैट्रोयिट…।  आई लव माई कंट्री।  देश के लिए अपनी जान भी दे सकते हैं यह चंद पैसे तो क्या चीज है ! जो पीते नहीं है , पूछो, मैं कहता हूँ पूछो उनसे … कितना चंदा दिया   पीएम केयर फंड में। सरकार ने एक -आध दिन की तनख्वाह जबर्दस्ती काट ली तो काट ली । एक हम हैं , रोज देते हैं। सुबह -शाम देते हैं। पैसा भी देते हैं । अपने जिगर का खून भी देते हैं।  जियो सरकार — जियो । जियो मुख्यमंत्री  जियो .. जियो प्रधानमंत्री  जियो । चीन साला क्या बिगाडे़गा । पाकिस्तान क्या बिगाड़ेगा। जब तक अपन हैं चिंता मत करो।  देश के लिए पीते रहेंगे। लीवर खराब हो जाएगा फिर भी पीते रहेंगे।  जैसे देशभक्ति हमारा धर्म है। वैसे ही पीना हमारा धर्म है। हम धर्म से नहीं गिरते । हम सडकों पर.. गिरते हैं।  नालियों में.. गिरते हैं। पर अपने धर्म से, देशभक्ति से, हम कभी नहीं गिरते। वी लव इंडिया..।
हमें पता चला कि ठेके खुल गए हैं। अब लोग कहते हैं रेड जोन , ओरेंज जोन , ग्रीन जोन। इन्हें क्या पता हमारी जोन अलग है। ह हमारी कोई जोन नहीं हैं। हमारी कोई जाति नहीं है। हमारा कोई मजहब नहीं है। मंदिर मस्जिद बैर कराते , मेल कराती मधुशाला। अरे सही बोलते हैं । लतीफ , रमेश , आसिफ, मुन्ना सब एक ही ठेके का अद्धा पीते हैं। पर जब नेता लोग आते हैं तो छुरे निकाल लेते हैं। 

लॉकडाउन खुला ।  हम सुबह पांच बजे जाकर लग गए लाइन में देश के लिए । हम रूक सकते थे और कुछ दिन । पर हमने कहा कि देश कंगला हो रहा है। पूछो मुख्यमंत्री जी से । मैं कहता हूँ पूछो ..  यही तो कहा  उन्होंने । हमने पत्नी को पता भी नहीं लगने दिया। हम देश के लिए मर मिटने वाले हैं। उसने हमारे त्याग को हमेशा नीची नजरों से देखा है। खैर.. एक दिन वह मुझे पहचानेगी। जब देर हो चुकी होगी। कम से कम मेरी फोटो पर तो ढंग से माला चढाएगी। सरकार और पुलिस को पता नहीं था कि हमारे अंदर इतना जज्बा है। उन्हें हमारे देश के लिए प्यार का अंदाजा नहीं था। वी लव इंडिया।  देशभक्त उमड़ पड़े पांच बजे से । अपनी बाजी लगा दी। अब इतने लोगों में गोल घेरे किसको दिखते हैं। दिख रही थी लाल… लाल बोतल. । दिख रहा था सुरूर.. । आज इतने दिन बाद खुशी का दिन आने वाला था । नदिया से दरिया, दरिया से सागर , सागर से गहरा जाम ,,, । आप हमें मार लो डंडे। मारो , हमारी जान ले लो ।  जान ले लो पुलिस ़डार्लिंग । पर हम गाँधी जी के नाम पर पीते हैं। यह हमारा सत्याग्रह है    हम देश के लिए अपनी जान दे देंगे पर पीछे नहीं हटेंगे। 

आपको क्या पता इस कोरोना में हमें कितने आँसू के घूंट पीए। एक -दो दिन  जैसे तैसे रोके रखा  । खुद ही राशन बांध लिया । छोटे -छोट पैग लेते थे। हाय कैसे दिन आए। मुहँ से कम आँखों से ज्यादा पीते  थे।  जैसे -तैसे हफ्ता बीत गया। लोगो को प्रवासी मजदूरों की पड़ी है कि वे लॉकडाउन में नहीं निकल पाए पर हमारे बारे में नहीं सोच रहे । असली धोखा तो हमारे साथ हुआ । रातों- रात ठेके बंद।   जैसे हजार के नोट बंद हुए थे। थोडे दिन पानी डाल -डाल कर पी । फिर साला मन को कितना समझाते । आखिर में खाली पानी ही रह गया। अंदर से नसें फटने लगती। आंखे जलने लगी। दिल उबलने लगा। घर तिहाड़ में तब्दील हो गया। गाली देते तो बेलन मारती  अंग्रेजों के जमाने की जेलर । 

आखिर क्या नहीं किया हमने देश के लिए । और देश.. । हमारा साला इतना भी ख्याल नहीं।  । बार -बार खाली बोतल की तरफ भागते । घरवाले हंसते  । पड़ोसियों से कितना मांगते । उनकी खुद जान निकली जा रही थी। पत्नी से कितना लड़ते.. । अगर पता चल जाता मोहल्ले में किसी के पास है तो वह फोन कर देती और कहलवा देती भाई साहब यह कई दिन से पीए जा रहे हैं , इन्हें बिल्कुल मत देना। यु नो मिस्टर । हिंदुस्तान का इतिहास पढ़  लो।  हिंदूस्तान घरवालों , नहीं.. नहीं घरवालियों की वजह स ेहारा है। इन्होंने कभी राइट टाइम पर सपोर्ट नही ं किया। हमने पी -पीकर इस ज्वालामुखी को चन्द्र मुखी समझा। आप क्या जानो अगर शराब ना होती तो जैसी जलालत भरी जिंदगी दी है एक दिन भी  सही जाती। रोज लड़ती हैं। आँखे दिखाती हैं । ताने मारती हैं। पर हम एक घूंट पीकर सब भू….ला देते हैं मौसी। आई हेट दीस वाईव्स .. नो नो . सारी सारी। 

कब से हमारे देश में बातचीत में कहा जाता है। उसकी दवा - दारू की व्यवस्था करो। कभी किसी राजनीतिक पार्टी ने दूसरी बात पर ध्यान ही नहीं दिया। कितनी जरूरी बात थी ।  खुद रात को अँधेरे में पीते थे और सुूबह हम पर कभी बैन लगाने , दाम बढ़ाने , कैद करने जैसी बातें करते हैं। हमारा कसूर यह है कि हम ढोंगी समाज में हैं। खुद पीते हैं और पीने वालों को गरियाते हैं । आई हैट दीस स्काऊंड्रल्स हाईपोक्रेट नेता पार्टी । 

एक बात और, हमें लगता है जनता से जरूरी चीजें छुपाई जाती हैं। कोरोना की शुरूआत में ही पता चल गया था कि जो पीएगा वह जिएगा। कोरोना उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती । पर यह खबर छुपाई गई। क्या वैक्सीन बनाने पर लगे हुए हो! जरा शराब पर रिसर्च करते तो पता चलता कि दो पैग वैक्सीन की भी बाप है ! फिर क्या कोरोना , काहे का रोना। नहीं मानते ! क्या आपने भैंस के साथ इश्क करते किसी को देखा है?  क्या आपने किसी को उछल-उछल कर आसमान पर थूकते देखा है ?  क्या आपने देखा नहीं दो घूंट जाते ही पिद्दी भी पड़ोस के पहलवान को गालियां दे दे कर बाहर आऩे और जान लेने की धौंस देता है। क्या आपने देखा है कि अंग्रेजी बोलने में जो हिचक कई किताबें पढ़ कर नहीं जाती , वह दो घूंट चखते ही चली जाती है। आप दो घूंट पिलाते फिर हमें चाहे वुहान भेज देते।  जड़ से खत्म हो जाती प्राब्लम । एक बोतल में तो हम चीन की दीवार पर चढ़ जाते।  पर दुख की बात है ढंग के रिसर्च होते कहां हैं ! आई हैट दीस स्काऊंड्रल्स हाईपोक्रेट प्रोफेसर। 


हमने ए  दुनिया तुझ से क्या मांगा। हाथी , घोड़ा , कार , कोठी  कुछ नहीं । सिर्फ सुकून , सिर्फ सुरूर , सिर्फ दो बूंद शांति की सुरूर की । पर यह मीडिया सब दारूबाज , हरामी । बिना पिए लिखते नहीं । दो बोतल दो ,नमकीन दो जो मर्जी लिखवा लो। हमें दौड़वा दौड़वा कर पिटवा रहे हैं। आई हैट दीस स्काऊंड्रल्स हाईपोक्रेट मीडिया।
पुलिस हमें ड़ंडे मार कर अपनी इमेज सुधार रही है। दो दिन में तुम्हारी दुकानदारी बंद हो जाए अगर हम वोट बंद कर दें तो। सोच लिया है । कतई सोच लिया है कि शराब पार्टी बनाएंगे।सरकार ने लॉकडाउन में क्या किया। क्या राहत का सामान बंटवाया। हमें कोई राहत नहीं मिली । ना , बिल्कुल ना। कम से कम सौ सेंटीलीटर ही भिजवाते ।। लानत है ऐसे नेताओं पर। 
 उसका चुनाव चिन्ह होगा बोतल। 

ऐसा नहीं कि नेता लोग नहीं जानते शराब की ताकत । चुनाव के समय इन्हें पता होता है कि चाहे जितने मर्जी बांध बना लो, सड़के बनवा दो। पानी दे दो  । बत्ती दे दो। पर लोग वोट उसी को देंगे जो बोतल देगा । जाओ  बनाओ ना… बांध । बनाओ ना .. सड़कें। जमानत जब्त हो.. जाएगी। मैं कहता हूँ जमानत जब्त हो जाएगी।  मैं तो कहता हूँ कि अगर कोई प्रोगेसिव पार्टी हो तो उसे अपना चुनाव चिन्ह बोतल रखना चाहिए। हम  सब उसी पार्टी में चले जाएंगे।  उस पार्टी को अपना घोषणापत्र में ऐसे मुद्दे रखने चाहिए (1) दारू की आऩ लाईन व्यवस्था करेंगे (2) दारू पर सब्सिडी देगें। (3) हर त्यौहार पर एक हफ्ते तक बोतल रोज फ्री मिलेगी।4 दफ्तरों में शराब एलाऊंस मिलेगा। (5) दारू पीने पर लड़ने वाली पत्नियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्यवाही की जाएगी । (6)  दारू पीकर गाली देने को अभिव्यक्ति का अधिकार माना जाएगा। 6) इधर - उधर गिर जाने पर कपडे़ सरकार फ्री मे धुलवा कर देगी। (7) हमारे खिलाफ मारपीट और छेड़छाड़ के सारे मामले वापस लिए जाएं। मैं पूछता हूँ क्या हम देश की जनता नहीं हैं ? यह करोड़ों लोगो की मांग है।  अगर आप गलत -सही मुद्दों पर सब्सिडी दे सकते हैं तो दारू का मामला तो सबसे जैन्युन है माई डियर पोलिटिकल पार्टी।  कार्यकर्ता पहले पैग लगाएंगे फिर जनता के पास जाएंगे । तभी तो दिल की सच्ची बाते ंकरेंगे । सच में राम राज्य आ जाएगा। वेहर शराब ..नो हाइपोक्रेसी। दिल की बात। 

मंगलवार, 21 अप्रैल 2020

चीन की ताजपोशी

चीन की ताजपोशी







                                     चीन की ताजपोशी

चीन को पश्चिम को जीतने और किंग बनने   के लिए खतरनाक वायरस वाले जानवर की जरूरत थी।  अपने भीतर वायरस लेकर घूम रहे चमगादड़ को किसी देश से गठजो़ड़ की जरूरत थी। वह सोच रहा था कि उसके जैसा गुण संपन्न देश कौन सा है । जो उसका नेचुरल एलाई ( स्वाभाविक मित्र) हो। वह उस देश के ‘लोगो ‘ का हिस्सा  बनना चाहता था। चीन ने चमगादड़ की और देखा और मिंग मिंग कहा । चमगादड़ ने चीन की और देखा और टिंग टिंग कहा । दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा । दोनों ने महसूस किया ‘वी आर मेड फार इच अदर’ और डील पक्की हो गई। 

 देशों के चरित्र और उसके राष्ट्रीय पशु - पक्षियों का घनिष्ट संबंध रहा है । एक समय था ब्रिटेन का सितारा बुलंदी पर था। उसका राष्ट्रीय पशु शेर था । वह ब्रिटेन के प्रभाव का प्रतीक था । यहाँ तक की उसने अपना नाम ग्रेट ब्रिटेन कर लिया।  ब्रिटेन का ‘ग्रेट’ अब  हँसने लायक है। जिसका प्रधानमंत्री दूसरे देशों की नर्सों के उपचार के सहारे जीवित लौटा हो उसकी बाजार में रेटिंग तो शाहरूख खान की फिल्मों की तरह है। खंडहर बता रहे हैं कि इमारत बुलंद थी।   अब इतनी ताकत तो नहीं रही कि विश्व युद्द का नेतृत्व कर सकें पर अपने एक और राष्ट्रीय पशु बुलडाग जैसा बनकर दोस्तों के पीछे खड़े होकर वह इराक जैसे मेमनों पर भौंक  सकता हैं, नोच सकता है। अपने ही राष्ट्रीय पक्षी मोर की बात कर लें। कितना खूबसूरत । पर पैर ! मतलब भयानक गरीबी । बेहद बदसूरत। उसे छुपाते फिरते हैं। विदेशी नेता भारत आए तो छुपाने के लिए दीवार बनानी पड़ती है।   उधर उन्नीसवीं शताब्दी में सौ साल तक दुनिया का नेतृत्व करने वाले अमेरीका की हालत लड़खड़ाई हुई है। अमेरीका का राष्ट्रीय प्रतीक चिन्ह बाज बूढ़ा हो गया है ।  उसके पंजों का पैनापन गया। चोंच में इनफेक्शन है और वह डें़टिस्ट के पास चक्कर लगाता देखा गया। उसका नया राष्ट्रीय चिन्ह भैंसा अपने ही बोझ से गिरा जा रहा है । 

 चीन और चमगादड़ में एक और समानता है। चीन भी चमगादड़ की तरह काफी समय से दुनिया के सिर पर उल्टा खड़ा था अपने छोटे भाई उत्तरी कोरिया और पाकिस्तान जैसे चमगादड़ों के साथ दुनिया के सिर पर उल्टा खड़ा था । इन्हें सीधा खड़ा होना ही नहीं आता । ये सदा उल्टे चलते हैं। चीन ने देखा उसका ड्रेगन अकेला काम नहीं कर पाएगा । अमेरिका का बाज और भैंसा, ब्रिटेन  के शेर और बुलडाग, युरोप के अन्य जंगली जानवरों के साथ मिलकर उसके ड्रेगन को जीतने नहीं देंगे। उसने ड्रेगन के साथ -साथ चमगादड़ के साथ गठजो़ड़ किया । दोनों उल्टों ने सोचा कि दुनिया को उल्टा लटका दें। चमगादड़ पर बैठ चीनी ड्रैगन युरोप पहुँचा । उसने देखा कि औद्योगिककरण और  विज्ञान ने युरोप और अमेरिका को एक अलग तरह का अहंकार और नस्ली श्रेष्ठता का भाव दिया है कि यह बीमारियाँ तो एशिया और अफ्रीका के गरीब लोगों के लिए हैं। 



चीन की कुछ विशेषताएँ हैं , जो दुनिया में कहीं नहीं मिलती । वह अकेला देश है  जो झरने , ताजमहल , सभ्यता के प्रतीकों या उसके  अवशेषों के लिए नहीं अपनी दीवार के लिए जाना जाता है और दीवार भी दुनिया की सबसे लंबी! उस लंबी दीवार से ट्रंप , जानसन, मारकेल झांक नहीं पाए कि वुहान में क्या चल रहा है।  चीन की शब्दावली अलग है जो ड़ाक्टर सच बोलता है उससे ‘मैंने अफवाह उड़ाई थी’ कहकर माफीनामा लिखवाया जाता है। फिर वह बेचारा खुदा को प्यारा हो जाता है ।  अफवाहों को सच बना कर दुनिया में भय पैदा किया जाता है।  चीन के पास साम्यवाद और पूंजीवाद का ऐसा काकटेल है, जो साम्यवाद के भीष्म पितामह रूस के पास भी नहीं है। साम्यवाद का तानाशाही रवैया और पूंजीवाद का असीम लालच। 

अब वह  दुनिया का नेतृत्व करना चाहता था। दुनिया कोई भारत की ज्यादातर राजनीतिक पार्टियों की तरह थोड़े ही है कि नेतृत्व का मसला नेता जी के घर में संतान  के जन्म होते ही तय हो जाता है! ट्रम्प अपने को  दुनिया के नेता समझते हैं। उनके ब्रिटेन जैसे चमचे अभी भी उसको किंग ऑफ द वर्ल्ड कहते हैं। पर चीन और चमगादड़ उस पर भारी पड़े। कभी -कभी तो यह ़़डर लगता रहा कि कहीं ट्रम्प कोरोना ब्रीफींग के दौरान  ही खांसने ना लगें और थोड़े दिन में पता चला कि वे चीन से आए मेडिकल उपकरणों के सहारे या चीन से आए  वेंटिलेटर पर हैं। चमगादड़ को  अमेरिका और ब्रिटेन से खास खुंदक थी । ये देश शेर , बाज जैसे जानवरों  के चक्कर में रहे।  उन्होंने कभी उसका महत्व नहीं समझा। एक चीन ही था जिसने उसकी ताजपोशी की। 

उसमें भी खास गुस्सा उसे तथाकथित ग्रेट ब्रिटेन से था। उसका राष्ट्रीय पशु शेर ना जाने कब से जंगल का राजा बना हुआ था। चमगादड़  सीधा गया और उस देश के प्रधानमंत्री और युवराज के पेट  में जाकर उल्टा लटक गया । ‘ ग्रेट ‘ ब्रिटेन के प्रधानमंत्री , युवराज बेचारे उल्टे लटक गए। चीन इस तमाशे पर तालियां बजा रहा था। दोनों को पता है कि यह शताब्दी उल्टे लोगों की होगी। यह जानकर ट्रम्प भी पिछले पांच साल से उल्टा -सीधा करते रहे । पर सिर्फ उल्टा और केवल उल्टा ही करने वाले चीन और चमगादड़ उस पर भारी पड़े। 



अब चीन के सरकारी अखबार का दावा है कि वर्ष 2020 में दुनिया का पचास प्रतिशत  अार्थिक उत्पादन उसके यहाँ होगा।  वह पश्चिम को याद दिला रहा है कि कभी पश्चिम ने उसके यहाँ अफीम की खेती करवा सबको नशेड़ी और काहिल बना दिया था। वह खांसते - छींकते यूरोप पर हँस रहा है। चमगादड़ लोगों की सांसों में कोरोना बन कर घुस गया है। लोग घरों में बंद है । उधर चीन हँसता हुआ , मुस्कराता हुआ , ठहाके मारता हुआ फिर से  अरबों के माल पर ‘मेड इऩ चाइना’  के ठप्पे मार रहा है। लोग साँस नहीं ले पा रहे हैं। सारा यूरोप , अमेरीका , दुनिया उल्टी लटकी हुई है। पश्चिम के थके हुए , बीमार  नेता देख नहीं पाए  कि तीसरा विश्वयुद्द हथियारों से नहीं लड़ा जाना था। ये खतरनाक दाँव-पेज से लड़ा जाना था।  वे पराजित हैं ।  खांसते , छींकते ,  अपनी और अपनी प्रजा के सांसों के  लिए मोहताज हैं । वे शव गिन रहे हैं  और चीन की ताजपोशी हो गई है। 



शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

बीच बहस में -भारतीय मीडिया





भारतीय मीडिया


बीच बहस में 


अनिल जोशी


इन बहसों में 
किसी का किसी से 
प्यार दिखता नहीं है
चूंकि वे कहते हैं कि
चैनलोंं पर 
प्यार बिकता नहीं है

बिकती है
घृणा 
हिंसा
झूठ


बिकता है 
तमाशा
मुर्गों की तरह  इंसानों को लड़ाओ
और लोकप्रियता पाओ
ये है बहुत आसान है !
एक तरफ धर्मांध हिंदू 
दूसरी तरफ हैं कट्टर  मुसलमान !
पर क्या  यही  उन्मादी लोग
हैं देश की पहचान  ?

 इसके बीच 
हैं करोड़ों -करोड़ों धर्मनिष्ठ हिंदू 
सिख  , ईसाई 
करोड़ों- करोड़ों अपने ईमान के पक्के मुसलमान
और  आस्था और अनास्था के बीच झूलते दूसरे 
वे सभी हैं  पहले इंसान 
उनके पास जाग्रत  विवेक है 
उन्हीं की  वजह से यह देश एक है!
उनकी भी आवाज बनो 

जिनके भीतर भेड़िया नहींं गुर्रा रहा
साँप नहीं लहरा रहा
उनकी भी आवाज सुनो!

खबर को रहने दो खबर
बाज आओ
उसे सनसनी ना बनाओ!


देखो 
लोगों की आस्था को  मत बदलो कट्टरता में
घृणा को 
तर्क मत दो
डर को  मत दो वज़ह
अविश्वास को खाद -पानी ना दो
उन्माद को मत दो जमीन 


इस देश पर रहम खाओ
हिंसा को आवाजें मार-मार कर  
मत  बुलाओ

द्वैष को  औजार ना दो
विचार को
मत पकड़ाओं हथियार
ये गांधी का देश है
संवाद को 
मत बनाओ बाजार


सुनो 
दंगों और उन्माद का नियम समझो
कहते हैं  देह मरती है
पर आत्मा
कभी अमर है

पर जब फैलती है उन्माद की आग
मनुष्यता कराहती है
देह तो मरती है 
बहुत बाद में
पहले आत्मा मर जाती है

बाज आओ
भोले -भाले लोगों  की आत्मा को मारने वाले
 वैचारिक वायरस के टीके
 मत लगाओ


जो विवेकशील है 
उन्हें सराहो
जो आग में पानी डाल रहे हैं
उन्हें आगे लाओ
 कबूतरों को 
घृणा की मशाल मत पकड़ाओ

तुम्हें किन स्वार्थों ने जकड़ा हुआ है
तुम देख नहीं पा रहे 
तुमने शब्दों को बंदरों के  उस्तरे की तरह पकड़ा हुआ है



तुम नहीं जानते तुम्हारे पास क्या है
शब्द 
तुमने क से कबूतर नहीं 
क से कत्ल बताया
तुम्हें ह से हल नहीं ह से हथियार पसंद है
शब्दों पर स्वार्थों का पहरा हैं
तुम्हारा  अपना खतरनाक ककहरा है

शब्द
समय और मनुष्य के पार देखता शब्द
व्यक्ति के  अंतर्मन में झांकता शब्द
 शब्द जिससे इंसान  विश्व को समझता हैं- टटोलता हैं
जिन शब्दों में मां की गोदी से निकल
 मनुष्य ज्ञान  के संसार में पहली बार आँख खोलता है
 हाँ हाँ- वही शब्द
  इसी शब्द को ऋषियों ने  ब्रहम कहा था


शब्दों के सौदागर !
क्या तुमने
कालिदास, तुलसी, कबीर के
सहज, मर्यादित, सच्चे शब्दों के अमृत को पिया है?
क्या तुमने रविन्द्र , मुक्तिबोध, गालिब के
स्वतंत्रता, समानता 
और 

गंगा- जमनी तहज़ीब के सच को जिया  है?

सुनो
पवित्र शब्दों में भारत के प्राण हैं
इनके निर्लज्ज, स्वार्थी  दुरूपयोग की वजह से
भारत की आत्मा लहुलुहान है


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बुधवार, 1 अप्रैल 2020

प्रवासी मजदूरों का पलायन



सभ्यता की शाम 


अनिल जोशी


जैसे फूल में होती है सुगंध
सरसों में पीलापन
आम में मिठास
ओठों पर प्यास
वैसे ही उसकी सांसों में बसा हुआ है घर
इसलिए
उसे तो  घर ही जाना है

उसे घर जाना है
‘पर तुम्हारा घर तो यहां भी है।’’
‘वह रूआँसा हो जाता है
यहां में रहता हूँ 
किराए का छोटा सा मकान है
मेरा घर गाँव में ही है।’’

वह सूनी आंखों से  देखता है
 दीवारों और 
चारों तरफ फैले ईंटों के अनंत  विस्तार को  
जिसमें उसकी सांस 
रोज कम हो जाती हैं
उसे यह नहीं पता
 कि उसे कोरोना हो गया तो
वह आखिरी सांस कैसे छोड़ेगा!
कौन से सरकारी अस्पताल की बेंच पर 
निपट परायों के बीच
 दम तोड़ेगा।
उसे घर जाना है

दरअसल उसे उपचार पर भरोसा नहीं है
उसे लगता है 
मां ने पूजा की है
पत्नी ने वट सावित्री व्रत 
पिता ने दुआएँ मांगी हैं
दवाई और उपचार से क्या सधेगा
अगर बचेगा तो 
वह 
उन्ही की वजह से बचेगा
उसे तो घर जाना है

उसे लगता है
मकानमालिक के लिए है वह सिर्फ-
 किराएदार 
कारखाना मालिक के लिए सिर्फ-
 मजदूर
सड़क पर चलने वालों के लिए 
-ओए बिहारी 

कोरोना बीमारी है
पर मनुष्यता का अपमान
 यह तो महामारी है


उसके लिए कौन यहाँ अपना है!
शहर एक भयावह सच  है तो
घर, गाँव एक  खूबसूरत सपना है
उसे घर जाना है

हाय 
राजनीति ने 70 सालों में 
इतना भी अर्जित नहीं किया विश्वास
कि 
मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री  रोकने के लिए खड़े हैं जोड़ कर हाथ
सुन नहीं रहा उनकी बात
वह जिद पर है 
उसे नहीं रहना इस कठिन समय में
हमारे संवेदनहीन शहर में
उसे घर जाना है


मनुष्यता सड़क पर है
उसे पुलिस ने मुर्गा बना रखा है
वह उकडूं चल रहा है
उसे कोई परेशानी नहीं है
 शहर में रोज  ऐसे ही चलवाते हैं
रेंगना उसकी सामान्य मुद्रा है
पर चाहे जो  हो
उसे घर जाना है

उसे चलना है 
पांच, दस, पचास, सौ , दो सौ , चार सौ कि मी
भूख , प्यास , गर्मी , तेज धूप , पाँव में छाले
पता नहीं वह कहाँ तक पहुँचता है
वह जीता है !
या मरता है!
व्यवस्था को क्या फर्क पड़ता है!
बस उसे घर जाना है



यह सभ्यता की शाम है
और
जैसे पंछी लौटते हैं 
घोंसले में
जैसे पशु लौटते है 
अपनी मांदों में
अपने विस्तार को भूल
पंख समेट रही है सभ्यता 
जिस- जिस को  इस सभ्यता ने
 घर से बेघर कर दिया था
वह अब जिद पर है
उन्हें घर जाना है













मंगलवार, 17 मार्च 2020

आख़िर इतनी घृणा कहाँ से आती है



दिल्ली दंगों पर कविता -2

आख़िर इतनी घृणा कहाँ से आती है


किसी के पास है विजेता का ‘उन्माद ‘
किसी के पास विजित का ‘प्रतिशोध’
हमारी जड़ो में बैठ गया है 
ग़लत इतिहास बोध 

किसी के पास वैश्विक ‘जेहाद ‘ के सपने हैं 
तो किसी के पास ‘अब बहुत सह लिया ‘के नारे है
इनके आगे बाक़ी सब बेचारे हैं 

यह सवाल अस्मिता का है 
बहुत से लोग बताते हैं 
पर एक अस्मिता का पाँव दूसरी की गर्दन पर क्यों रखा है 
यह क्या मजबूरी है ? 
अस्मिताओं का सतत युद्ध किनके लिए ज़रूरी है !
ये अस्मिता
अभिव्यक्ति और पहचान की आवाज़ नहीं 
बल्कि राजनीति का हथियार है
इसका धंधा इंसानियत का व्यापार है 
पर कुछ के पास तो टैंक हैं 
उनके पास सदाबहार नुस्ख़ा 
वोट बैंक है 

फ़ेसबुक , वटसएप , ट्विटर 
भड़ास निकालने का अड्डा है
यहाँ दुर्भावना का गहरा गड्डा है 
जहां हमारे द्वेष , घृणा , हिंसा को शब्दों का आकार मिलता है 
बेवजह को वजह मिलती है 
बामियान के बुद्ध की गर्दन 
पहले विचारों की तलवार से कटती है 
हम समझ लेते हैं 
कि हम नहीं कोई अकेले धर्मांन्ध, विचारों के दीवालिया , चोर हैं 
हमें ख़ुशी होती है, हमारे जैसे मूढ़मति  सैंकड़ों और हैं 
अब यह समूह नहीं माफ़िया हैं
हमारे पास एक ख़तरनाक ग़ज़ल का 
का रदीफ और क़ाफ़िया है
अब उन सब पर धिक्कार है 
जिनके दिल में इंसानियत के लिए प्यार है 
उग आता है कैक्टस का जंगल 
फैल जाता है संवेदनहीनता का रेगिस्तान 
धीरे -धीरे इंसान नहीं रह जाता है इंसान 

फिर अब हम वहाँ है जहाँ विचारों का अकाल है 
रोज टेलिविज़न पर नेशन पूछता एक सवाल है 
टी आर पी के लिए देश के लिए रोज दी जाती कैसी दिलचस्प दवाई 
हाय जो विचारकनुमाा राजनीतिज्ञ बैठा है 
वह सच में है कसाई
उसके पास जो तथाकथित  विचार है 
वो दरअसल एक हथियार है 
उसकी हरेक बात , हर विचार , हर तर्क एक गहरा षड्यंत्र है 
इनके पास सद्भावना ख़त्म करने का अचूक मारक मंत्र है 
विवेकशील, संतुलित व्यक्ति उनके लिए ज़ीरो है 
हर आक्रामक , ख़ूँख़ार व्यक्ति छोटे पर्दे पर  हीरो है
ठहरिए जिसे आप एंकर कह रहे हैं 
वह जानता है वह खड़ा कर रहा नाहक बवाल है 
पर वह क्या करे वह तो एक दलाल है 
एंकरों और वक्ताओं के पास ख़ूब जोश है 
अब हम वहाँ तक आ गए कि 
सारी जनता वैचारिक रूप से बेहोश है 

अब वहां पहुँचे जहाँ इस कहानी का तर्कसंगत अंजाम है 
यहाँ राजनीति का नंगा हमाम है , 
यहाँ सिसकते लोग है , लाशें है 
देह और दिल पर लगा गहरा घाव है
उन्हें क्या 
उनके सामने तो अगला चुनाव है 
ये दिलों को , दिमाग़ों को, ख़ून को बाँटेंगे 
लोग बँट चुके हैं 
अब चुनाव की खड़ी फ़सल ये काटेंगे 

अब द्वैष का गहरा कुआँ है
चारों तरफ नफ़रत का धुआँ है
और हम देखते हैं कि प्रेम , संवेदना , भाईचारा सब धू -धू कर जल रहा है 
हमारे देखते -देखते एक घृणा का समंदर इंसानियत को निगल रहा है