सभ्यता की शाम
अनिल जोशी
जैसे फूल में होती है सुगंध
सरसों में पीलापन
आम में मिठास
ओठों पर प्यास
वैसे ही उसकी सांसों में बसा हुआ है घर
इसलिए
उसे तो घर ही जाना है
उसे घर जाना है
‘पर तुम्हारा घर तो यहां भी है।’’
‘वह रूआँसा हो जाता है
यहां में रहता हूँ
किराए का छोटा सा मकान है
मेरा घर गाँव में ही है।’’
वह सूनी आंखों से देखता है
दीवारों और
चारों तरफ फैले ईंटों के अनंत विस्तार को
जिसमें उसकी सांस
रोज कम हो जाती हैं
उसे यह नहीं पता
कि उसे कोरोना हो गया तो
वह आखिरी सांस कैसे छोड़ेगा!
कौन से सरकारी अस्पताल की बेंच पर
निपट परायों के बीच
दम तोड़ेगा।
उसे घर जाना है
दरअसल उसे उपचार पर भरोसा नहीं है
उसे लगता है
मां ने पूजा की है
पत्नी ने वट सावित्री व्रत
पिता ने दुआएँ मांगी हैं
दवाई और उपचार से क्या सधेगा
अगर बचेगा तो
वह
उन्ही की वजह से बचेगा
उसे तो घर जाना है
उसे लगता है
मकानमालिक के लिए है वह सिर्फ-
किराएदार
कारखाना मालिक के लिए सिर्फ-
मजदूर
सड़क पर चलने वालों के लिए
-ओए बिहारी
कोरोना बीमारी है
पर मनुष्यता का अपमान
यह तो महामारी है
उसके लिए कौन यहाँ अपना है!
शहर एक भयावह सच है तो
घर, गाँव एक खूबसूरत सपना है
उसे घर जाना है
हाय
राजनीति ने 70 सालों में
इतना भी अर्जित नहीं किया विश्वास
कि
मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रोकने के लिए खड़े हैं जोड़ कर हाथ
सुन नहीं रहा उनकी बात
वह जिद पर है
उसे नहीं रहना इस कठिन समय में
हमारे संवेदनहीन शहर में
उसे घर जाना है
मनुष्यता सड़क पर है
उसे पुलिस ने मुर्गा बना रखा है
वह उकडूं चल रहा है
उसे कोई परेशानी नहीं है
शहर में रोज ऐसे ही चलवाते हैं
रेंगना उसकी सामान्य मुद्रा है
पर चाहे जो हो
उसे घर जाना है
उसे चलना है
पांच, दस, पचास, सौ , दो सौ , चार सौ कि मी
भूख , प्यास , गर्मी , तेज धूप , पाँव में छाले
पता नहीं वह कहाँ तक पहुँचता है
वह जीता है !
या मरता है!
व्यवस्था को क्या फर्क पड़ता है!
बस उसे घर जाना है
यह सभ्यता की शाम है
और
जैसे पंछी लौटते हैं
घोंसले में
जैसे पशु लौटते है
अपनी मांदों में
अपने विस्तार को भूल
पंख समेट रही है सभ्यता
जिस- जिस को इस सभ्यता ने
घर से बेघर कर दिया था
वह अब जिद पर है
उन्हें घर जाना है
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