रविवार, 20 मार्च 2022

लंदन के सीने पर इंडिया



लंदन के सीने पर इंडिया



 



 विदेशों में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अध्ध्यन के क्रम में लंदन के इंडिया हाऊस पर आज दिनांक 20 मार्च रविवार को भारत के प्रमुख अख़बार जागरण व नई दुनिया  में प्रकाशित लेख ।

https://www.jagran.com/news/national-indian-house-in-london-was-established-by-an-indian-revolutionary-named-shyamji-krishna-verma-jagran-special-22555021.html


 विदेशों में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अध्ध्यन के क्रम में लंदन के इंडिया हाऊस पर आज दिनांक 20 मार्च रविवार को भारत के प्रमुख अख़बार जागरण में प्रकाशित लेख । 






सोमवार, 10 जनवरी 2022

विश्व हिंदी दिवस के प्रणेता - डॉ शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव


 विश्व हिंदी दिवस के प्रणेता - डॉ शैलेन्द्र नाथ श्रीवास्तव


विश्व हिंदी दिवस पर पहली बार वर्ष 2006 में बनाया गया है तो यह विचार किसकी कल्पना थी। दिलचस्प बात यह है कि जिस समय पूर्व सांसद और हिंदी के प्रख्यात कवि व संस्कार भारती के अध्यक्ष डॉ शैलेंद्र श्रीवास्तव के मन में आया उस समय उनका पुत्र सौरभ श्रीवास्तव लंदन में था । इस विषय पर मुझसे लंबा विमर्श होता रहता था  ।मेरा सौभाग्य है कि  मेरे घर के कंप्यूटर पर विश्व हिंदी दिवस का प्रारूप दस्तावेज  तैयार करने का अवसर मिला ।  उसके बाद की कहानी इस लेख में दर्ज है। उनका अनन्य संकल्प विश्व हिंदी दिवस के आयोजन के रूप में फलीभूत हुआ। 











शुक्रवार, 7 जनवरी 2022

केन्द्रीय हिंदी संस्थान द्वारा साहित्यिक धरोहरों के संरक्षण का अभियान ( महादेवी, निराला , पंत से जुड़े स्थानों की महत्वपूर्ण यात्रा )

 


   कालाकाँकर के राजभवन में । पीछे गंगा नदी और राजभवन दिखाई दे रहा है । 

वर्षों से एक विचार, चिंता और सरोकार रहा है कि हिंदी के प्रतिष्ठित रचनाकार एक- से- एक हैं ,करोड़ों लोगों को उन्होंने साहित्य के मूल्य दिए। उन्होंने अपने युग का निर्माण किया। हम सबके जीवन को बनाने और गढ़ने में उनका महत्वपूर्ण योगदान है। परंतु उनकी स्मृतियों, उनकी साहित्यिक धरोहर की क्या स्थिति है, जब इस पर विचार करते हैं तो स्थिति चिंतनीय लगती है। वर्षों से यह प्रश्न उद्वेलित करता रहा है।
वर्ष 2020 में जब मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अनुवाद का प्रशिक्षण देने गया था तो उन दिनों प्रेमचंद जी के गांव लमही, जयशंकर प्रसाद, भारतेंदु हरीशचंद्र , रामचंद्र शुक्ल के स्थान पर जाना हुआ। उनके स्थानों के दर्शन मन में उल्लास भरते हैं, करोड़ों लोगों को प्रेरणा देने वाली यह पंक्तियां किस परिवेश से निकली होंगी, यह जानने का अवसर मिलता है । उदाहरण के लिए- प्रसाद जी के घर पर जब वह शिव मंदिर उनके वंशजों ने दिखाया जिस में बैठकर उन्होंने कामायनी लिखी तो हम कामायनी की पंक्तियों के साथ समय के प्रवाह में खो गए। उन स्थानों को देखना एक गर्व और गौरव से तो भर ही देता है और न जाने उनकी लिखी कितनी ही पंक्तियां मन के द्वारों पर दस्तक देने लगती हैं।
यह बात भी ध्यान में आती है कि चाहे वाराणसी हो या प्रयागराज गंगा हिंदी के प्रमुख लेखकों के लेखन की पृष्ठभूमि में रही है। परंतु इतने शानदार गद्य और पद्य के प्रणेता लेखकों, विद्वानों ने हमें जो साहित्यिक धरोहर समर्पित की और उनके प्रेरणादायी जीवन के स्मृति शेष क्या हम वर्तमान पीढ़ी के हाथ में नहीं पहुंचा पाएंगे। या उनके लिए वह खोई हुई विरासत बन जाएगी ! मन किया कि हिंदी के उन शीर्षस्थ रचनाकारों के स्थान पर जाया जाए और देखा जाए किस प्रकार यह स्मृतियां संरक्षित हैं! उनके वंशज इस दिशा में क्या कार्य कर रहे हैं? सरकार या गैर- सरकारी संस्थाएं इस विषय में किस प्रकार की चिंता कर रहे हैं और इन संस्थाओं के कार्यों में इन साहित्यिक धरोहरों का संरक्षण कितना शामिल है। इन सब को देखने के बाद मन की इच्छा और प्रबल हो गई कि हम इन साहित्यिक धरोहरों के संरक्षण के लिए व्यवस्थित कार्य योजना और रणनीति बनाएं। केंद्रीय हिंदी संस्थान की निदेशक प्रो वीना शर्मा ने अपनी उत्साहपूर्ण सहमति दी ।
केंद्रीय हिंदी संस्थान से जुड़ने के बाद मुझे जब यह अवसर मिला तो एक बैठक में माननीय मंत्री जी की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया केंद्रीय हिंदी संस्थान साहित्य धरोहरों के संरक्षण के लिए व्यवस्थित योजना तैयार करने का प्रयास करेगा। हमारे द्वारा हाथ में ली गई परियोजनाओं में यह प्रमुख है।
हाल में ही हिंदुस्तानी अकादमी के अध्यक्ष श्री उदय प्रताप सिंह के साथ मिलकर प्रयागराज में आजादी का अमृत महोत्सव आयोजित करने की योजना बनी। साथ ही यह भी विचार आया क्यों न आजादी के अमृत महोत्सव कार्यक्रमों के अगले दिन साहित्यिक धरोहर संरक्षण योजना के अंतर्गत देश के साहित्य के चमकते हुए तीन नक्षत्र पंत, महादेवी, निराला से संबंधित स्थानों को भी देखें और उसके पश्चात वहां के स्मृति संरक्षण और विकास की योजनाओं पर विचार करें। उदय प्रताप सिंह जी ने हिंदुस्तानी अकादमी के स्टाफ के साथ मिलकर यात्रा की व्यवस्था की।
दिनांक 25 जनवरी को हम लोग सबसे पहले प्रयागराज से कालाकाँकर की तरफ निकले जहां पर पंत जी तीस के दशक में गये थे और 12 वर्षों तक रहे। यहीं से छायावाद की प्रतिनिधि पत्रिका रूपाभ का संपादन उन्होंने किया। कालाकाँकर जैसे स्थान पर उन्होंने नौका विहार सरीखी रचनाओं को जन्म दिया । यहीं उन्होंने ‘ नक्षत्र’ रचना लिखी थी। कालाकाँकर वास्तव में एक राजभवन है।
कालाकाँकर के राजा हनुमंत सिंह के बेटे राजा लाल प्रताप सिंह 1857 के युद्द में शहीद हुए थे। उसके बाद हुए राजा रामपाल सिंह कांग्रेस के संस्थापकों में से थे और उन्होंने हिंदी का दैनिक पत्र ‘हिंदुस्थान’ वर्ष 1885-1909 तक निकाला था। इस पत्र का संपादन डॉ मदन मोहन मालवीय द्वारा किया गया। तत्पश्चात हुए राजा अवधेश सिंह ने विदेशी वस्त्रों की होली जलाई और 14 नवंबर,1929 को गांधी जी उनके आमंत्रण पर राजभवन में पधारे। इन्हीं की अगली पीढ़ी में प्रसिद्ध राजा दिनेश सिंह हुए । वे केन्द्रीय मंत्री भी बने। आजकल यहाँ पर राजकुमारी रत्ना सिंह हैं।
कालाकाँकर में ही सुमित्रा नंदन पंत रहते थे। कालाकांकर कि वह ड्योढ़ी जो गंगा के साथ है, यहां से नदी में नौका विहार दिखता है । यह अत्यंत मनोरम है, मीठी - मीठी धूप , दूरी तक फैले हुए विस्तार में झांकता हुआ क्षितिज, वहां बहता हुआ समय, उसमें दबा हुआ इतिहास, उस मिट्टी में लोक जीवन की गंध । इसी ड्योढ़ी पर पंत जी ने ‘नौका विहार’ कविता लिखी-
कालाकाँकर का राजभवन, सोया जल में निश्चित प्रमन,
पलकों पर वैभव स्वपन, सघन ।
दो बांहों से दूरस्थ तीर, धारा का कृश कोमल शरीर ।
आलिंगन करने को अधीर।
इस धारा सा ही जग का क्रम , शाश्वत इस जीवन का उद्गम
शाश्वत है गति , शाश्वत संगम ।
हे जगजीवन के कर्णधार,चिर जन्म-मरण के आर-पार
शाश्वत जीवन नौका -विहार ।
-
यह यात्राएं हिंदुस्तानी अकादमी के श्री उदय प्रताप सिंह के सौजन्य से हुईं थी। साहित्यिक धरोहर संरक्षण यात्रा का संयोजन केन्द्रीय हिंदी संस्थान की निदेशक श्रीमती वीना शर्मा कर रही हैं। इस यात्रा में हमारे साथ, प्रख्यात कवि नरेश शांडिल्य, अलका सिन्हा , मनोज कुमार’ मनोज’ , प्रयागराज से विनम्र सिंह, प्रमुख साहित्यकार , हिंदुस्तानी अकादमी के सदस्य थे। इस स्थान के विशेषज्ञ मनीष कुमार ने कालाकाँकर का इतिहास बताया। सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल के बीच कालाकाँकर अपने समय और संदर्भों को साथ लेता हुआ आज भी जीवित है। इस स्थान पर राजकुमारी अमृत कौर के सौजन्य से ,जो किन्हीं कारणों से स्वयं उपस्थित नहीं रह सकी, प्रतिनिधिमंडल के स्वागत और जलपान आदि की व्यवस्था हुई।
परंतु मुद्दा तो यह था कि पंत जी कहां रहते थे। कालाकाँकर सामाजिक- राजनीतिक जीवन का केंद्र था, जहां वहां के तत्कालीन डीएम भी आते थे। बहुत से अधिकारी और सेवक आस-पास रहते थे परंतु पंत जी को ऐसा स्थान पसंद कहां !
यूं ही गाड़ी से हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचे , जो यहाँ से कुछ दूरी पर स्थित है। जहां सड़क का रास्ता नहीं, कच्चा रास्ता था। जहां मैदान में बाई तरफ पशु चर रहे थे। एक ठेठ गांव लेकिन उस गांव के प्रारंभ में भी पंत जी का निवास नहीं था वह तो कालाकाँकर में कसौनी ढूँढ रहे थे। इन्हीं कच्चे रास्तों से थोड़ी दूर जाने के बाद एक ऊंचा स्थान आता है। उस पर चलकर हम एक ऐसे स्थान पर पहुंचते हैं जहां एक छोटा सा घर बना है। जैसे बना कर कोई भूल गया हो। जिस पर बरसों पहले की सफेदी पुती हुई थी। उसके चारों ओर हरियाली और घने जंगल । बाएं तरफ एक ऐसा स्थान है जहां कभी गंगा बहती थी और उसमें काम करते लोग दिखाई देते थे। पंत जी के घर के बाहर से उस नदी में काम करते लोग साफ दिखाई देते थे।
ऐसे स्थान पर बैठकर ‘कोई कवि बन जाए, सहज संभाव्य है’ । उस घर के बाहर दीवार पर छोटी सी सफेद टाईल पर लिखा है ‘नक्षत्र’। हम सब जानते हैं कि उन्होंने ‘नक्षत्र’ नाम का काव्य संग्रह भी लिखा । उनकी यहां पर लिखी कविताएं ही उनको छायावादी कविता के शिखर पर ले गयीं। यहां पर लिखी हुई कविताएं, उनका लेखन, उनका संपादन हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण धरोहर है।
इसी भवन में संक्षिप्त कार्यक्रम का आयोजन था। उस घर के प्रमुख कक्ष में उनके चित्र पर पुष्प चढ़ाए गए और संयोग देखें की इस अवसर पर स्थानीय कवि कपिल देव त्रिपाठी उनको समर्पित कविताएं लेकर वहां उपस्थित थे । उनके वजह से सुमित्रा नंदन पंत की स्मृति में ओजस्वी स्वरों में मंगल गान हो रहा था। इतने कवि और साहित्यकारों के बीच में लगता है प्रकृति भी झूम- झूम कर कवि का वंदन कर रही थी। यह काव्य पाठ एक पैरा, एक कविता तक सीमित नहीं रहा बल्कि लंबे समय तक कवि ने सार्थक और संदर्भित पंक्तियों के साथ पंत जी का स्मरण किया। यह दिल को छूने वाला दृश्य था । इसके बाद बाहर आकर दरवाजे पर जहाँ ‘नक्षत्र’ लिखा गया था वहाँ प्रकृति का दर्शन किया ।
उसकी शोभा देखते ही बनती है। उसी स्थान पर ऐसे स्वर्णिम और स्वर्गीय चित्रों और कविता की कल्पना की जा सकती थी । वह स्थान नरेश मेहता द्वारा उद्धृत उन स्थानों जैसा है जिसकी खूबसूरती को किसी ने छुआ नहीं। यह बेहद खूबसूरत स्थान दूरस्थ, विस्मृत, भुला दिए गए मकान जैसा है जो कि पंत जी को जानने और समझने के लिए कुंजी हो सकता था। जिसके वृक्ष, पत्तियाँ ,जल नए रचनाकारों को सजग कर उनकी चेतना में वृद्धि कर सकता है। परंतु यह स्थान किसी की चिंता और सरोकार का केंद्र नहीं है अब उन जगहों पर कोई नहीं बैठता, उन नक्षत्रों को कोई नहीं देखता उन यादों पर समय ने धूल चढ़ा दी है।
यहां से हम किसी समय में मदन मोहन मालवीय द्वारा संचालित इंटर कालेज में आए जहाँ महाकवि सुमित्रा नंद पंत की मूर्ति पर माल्यापर्ण किया ।
अब यहां से हम महादेवी वर्मा के स्थान पर जाना चाहते थे। दोपहर और शाम के बीच का समय था जब हम ‘साहित्यकार संसद’ पहुंचे । गंगा के पास, खुले हुए स्थान पर लंबी कहानी लिए हुए एक इमारत को देखा । हम लोग उस इमारत के द्वार पर पहुंचकर द्वार खटखटाते हैं तो एक सज्जन सामने आते हैं। वे उस ड्राइंग रूम में आदर के साथ हम सब लोगों को बिठाते हैं। चूंकि संख्या ज्यादा है इसलिए अतिरिक्त कुर्सियों की व्यवस्था की जाती है। चारों तरफ महादेवी जी के चित्र लगे हुए हैं। हमें बताया जाता है कि ‘साहित्यकार संसद’ उस संस्था का स्थान है जिसका निर्माण महादेवी वर्मा ने करवाया था । यहां पर मैथिलीशरण गुप्त, निराला , पंत आदि रचनाकार गोष्ठियों करते थे, निराला जी तो कभी -कभी लंबे समय तक रहते भी थे। महादेवी वर्मा एक अत्यंत संवेदनशील रचनाकार के रूप में जानी जाती हैं। एक युग की आधार स्तंभ । उन्होंने दलितों, वंचितों, पशु- पक्षियों पर बहुत से स्नेह भरी कहानियां लिखी हैं। उस वातावरण को देखते ध्यान आ जाता है कि यह रचना कर्म उसी स्थान पर हुआ होगा। कहते हैं कि अत्यंत प्रसिद्ध ‘गिल्लू’ नामक कहानी भी उन्होंने यहीं लिखी थी। इस स्थान पर अब करुणेश रहते हैं। वे कवि हैं और उनका कहना है कि वह साहित्यकार संसद के सचिव हैं। यह स्थान अब उनके संरक्षण में है। वे कहते हैं कि उन्हें यह जिम्मेदारी महादेवी वर्मा ने दी थी। उसके बाद उन्हें हटाने के कई प्रयास हुए पर उनका कहना है कि उन्होंने सब का सामना किया। वे कहते हैं यहां तक कि मुलायम सिंह के मुख्यमंत्रीत्व काल में अवैध कब्जे को लेकर उन पर एक मुकदमा दर्ज किया गया। अभी उन्हें ज्यादा कवि सम्मेलन नहीं मिलते। बेटा एक इलेक्ट्रॉनिक स्कूटर चलाता है। वे बताते हैं कि भवन का कुछ भाग किराए पर भी दिया गया है । प्रोफेसर बीना शर्मा जी के पति ने करूणेश जी पूछा कि यहां शानदार बगिया हुआ करते थे। बताया गया कि अब वह स्थान उजड़ गया है । दुर्भाग्य से वहां अब सूअर घूम रहे थे। भवन का भ्रमण करने पर देखा कि उसमें कई कमरे बने हुए हैं जो संभवत पुराने समय में कार्यालय के कमरों का काम करते होंगे। अगर बगिया के साथ विचार करें तो हम पाएंगे कि यह ‘ साहित्यकार संसद’ प्रयागराज के सबसे सुंदर स्थानों में से एक है। एक ऐसा स्थान , जहां से गंगा दिखती हो, जहां हरियाली अठखेलियां करते हो और ऊपर और एक ऊंचाई पर स्थित भव्य भवन, जहां बरसात के दिनों में यह जल चरण चूमता है। इतना सुंदर भवन जिसका निर्माण हिंदी के उत्थान के लिए किया गया हो मन गर्वित हो जाता है। करुणेश जी को संस्थानों से शिकायत है उनका कहना है कि महादेवी जी पर एक काव्य संग्रह लिखने के बाद भी उनके योगदान को रेखांकित नहीं किया गया। सभी साहित्यकारों के चेहरे और माथे पर हिंदी के इस विरासत को देखकर विचार, चिंता और विषाद की लकीरें हैं। सर्दी की इस शाम में मटमैले समय में विचलित मन के साथ हम विदा लेते हैं।
अगला पड़ाव निराला जी के स्थान का है । रात का समय , ट्रैफिक के बावजूद हम निराला के यहां जाने के लिए कृत संकल्प हैं। दारागंज थाने के पास उनकी मूर्ति भी लगी है पर ज्यादातर लोग उन्हें नहीं जानते। कहीं से पता चलता है कि बख्शी कला के पास जो गली है वहां से होकर उनके घर का रास्ता जाता है। जैसे ही वाहन उस गली में प्रवेश करता है तो पता चलता है कि बोरिंग का काम चल रहा है और अब उनके यहां नहीं जा जाया जा सकता है। वे क्या जानें हम तो देखने के लिए निश्चय लेकर आए हैं। हम गली के लिए दूसरी तरफ के रास्ते से चलते हैं।
यहां से हम गंगा के तट से नागवासुकी मंदिर होते हुए दारागंज के पिछले भाग में पहुंचे। रास्ते में वह गली भी मिली जो डॉक्टर जगदीश गुप्त के घर की ओर जाती है। साथ में ही हिंदुस्तानी एकेडमी का वह सहायक था जिसने डॉक्टर जगदीश गुप्त के साथ उनके हिंदुस्तानी एकेडमी के कार्यकाल के दौरान काम किया था । अब एक स्थान पर लिखा हुआ दिखता है निराला निवास का बोर्ड। वह दायीं तरफ इशारा करता है। हम उस तरफ जाते हैं। इन गलियों और मकानों के बीच एक सामान्य से बेहतर बना हुआ सुंदर सा मकान महाकवि निराला का घर दिखाई देता है । इस पर लिखा है निराला निवास। दरवाजे पर उनके प्रपौत्र क्रांति बोध निकलते हैं और बड़ी गर्मजोशी के साथ प्रतिनिधिमंडल का स्वागत करते हैं। चर्चा शुरू होती है और लोग जानने के लिए उत्सुक हैं निराला का निवास, उनके रहन-सहन का तरीका, पारिवारिक संबंध आदि । पता चलता है कि निराला जी जहां रहते थे वह स्थान कुछ सौ मीटर दूर था। एक छोटा सा कमरा जिसके तखत पर बैठकर वह लिखा करते थे। निराला जी के पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी उस स्थान पर रहते थे, जहाँ हम पहुँचे हैं। रामकृष्ण त्रिपाठी का कच्चा मकान था जिसे काफी बाद में पक्का करवाया गया। निराला की उदारता और प्रतिभा के कई किस्से सुनने को मिलते हैं। बताया जाता है कि 1946 से लेकर 1949 तक निराला की कोई कृति नहीं मिलती और ना ही यह भी पता चलता है कि उस समय वे कहां थे। मैं पूछता हूं परंतु निराला जी तो बहुत पहले ही प्रसिद्ध हो गए थे तो 3 वर्ष का अज्ञातवास कैसे संभव है ? हमें से किसी के पास उस प्रश्न का उत्तर नहीं । निराला लंबे समय तक लखनऊ, कन्नौज और कोलकाता भी रहे । कन्नौज में भी उनके स्मृति में शिक्षा संस्थान हैं , मूर्तियां हैं। वे रिश्तेदार जिन्होंने कन्नौज में यह सब किया था अब प्रयागराज में रहते हैं। क्रांतिबोध बताते हैं कि कन्नौज में कालेज आदि में उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी। परंतु अब वहाँ ऐसा कोई नहीं है जो इस दिशा में काम कर सके। पता चलता है कि निराला जी और उनके पुत्र रामकृष्ण त्रिपाठी में संपर्क- संवाद कम ही था । यह विचित्र होते हुए भी सत्य है। परंतु प्रसन्नता की बात यह है कि उनके प्रपौत्र क्रांतिबोध एमएमएच कॉलेज गाजियाबाद में हिंदी पढ़ाते हैं । उसी प्रकार दूसरे प्रपौत्र विवेक निराला प्रयागराज के प्रख्यात कवि हैं। उनके प्रपौत्रों के हिंदी के प्रति जुड़ाव को देखते हुए उनकी स्मृतियों के को संरक्षित रखने के संबंध में आशा जमती है। परंतु निराला जी जिस कमरे में रहे उसके ना रहने की सूचना सुनकर कष्ट भी होता है। कोई कहता है कि संभवत उस स्थान के मालिक को यह पता चल गया था कि यहां संग्रहालय बन सकता है तो उसने उस स्थान को तोड़ना ही उचित समझा। परंतु यह घटना भी तो आज़ादी के दशकों बाद हुई। निराला जैसी असाधारण प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व की स्मृतियों को भी संरक्षित नहीं किया जा सका। हममें बहुत से लोग किसी प्रसिद्ध साहित्यकार के नाम पर सड़क का नाम रखकर या वहां उनकी मूर्ति स्थापित कर कर ही धन्य हो जाते हैं।
अब मैं जिन लोगों के स्थान देख चुका हूं उनमें महादेवी, निराला, पंत, प्रसाद, प्रेमचंद्र, रामचंद्र शुक्ल ,भारतेंदु हरिश्चंद्र शामिल हैं। यह वह लोग हैं जिन्होंने अपने समाज में जागृति की चेतना भरी। जिन्होंने देश की स्वतंत्रता के विचारों की नीवं रखी। उन्होंने अपने शब्दों से स्वाधीनता की इमारत गढ़ी।
परंतु यह बात भी विचारणीय है कि भाषा और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन के लिए उनकी स्मृतियों को न केवल संरक्षित रखा जाए बल्कि नई पीढ़ी तक भी पहुंचाया जाए। नई पीढ़ी से इसको जोड़ा जाए। न केवल उनके साहित्य से बल्कि उन मूल्यों से भी जिनके लिए इन साहित्यकारों ने अपना जीवन समर्पित किया। केंद्रीय हिंदी संस्थान इस दिशा में प्रयासरत है। प्रयागराज की हिंदुस्तानी अकादमी के साथ मिलकर यह कार्यक्रम भी उसी दिशा की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम है। यह किसी एक व्यक्ति या संस्थान का कार्यक्रम नहीं है बल्कि समस्त हिंदी समाज को, भारतीय भाषाओं को और आप लोगों को इस से जुड़ना होगा। जो समाज अपने साहित्य, संस्कृति और कला को भूल जाता है, वह अपनी जड़ों को भूल जाता है । विकास और प्रसार के लिए अपनी जड़ों को जानना बहुत जरूरी है और यह साहित्यकार हमारी जड़ें हैं। स्मृति संरक्षण के इस कार्य में आपका और समाज का सहयोग अपेक्षित है।


महादेवी वर्मा द्वारा स्थापित साहित्यकार संसद की छत पर बाएं से करूणेश , अनिल जोशी , सरोज शर्मा, अलका सिन्हा , मनोज सिन्हा , शिव नारायण शर्मा, कवि मनोज


महादेवी वर्मा द्वारा स्थापित साहित्यकार संसद की छत पर बाएं से करूणेश , अनिल जोशी , सरोज शर्मा, अलका सिन्हा , मनोज सिन्हा , शिव नारायण शर्मा, कवि मनोज

सुमित्रा नंदन पंत के निवास ' नक्षत्र  ' के समक्ष अनिल जोशी , उदय प्रताप सिंह , प्रो वीना शर्मा , कपिल देव त्रिपाठी व अन्य

  निराला निवास पर बात करते हुए महाकवि निराला के प्रपौत्र क्रांतिबोध

            साहित्यकार संसद के सामने नरेश शांडिल्य , सरोज शर्मा , अलका सिन्हा , मनोज सिसाहित्यकार संसद के सामने नरेश शांडिल्य , सरोज शर्मा , अलका सिन्हा , मनोज सिन्हा

निराला निवास के समक्ष बाएं से मनोज कुमार सिन्हा , मनोज कुमार 'मनोज ' अनिल जोशी, शिव नारायण शर्मा , नरेश शांडिल्य 

      साहित्यकार संसद के बैठक कक्ष में
                                       
निराला निवास पर सूर्यकांत त्रिपाठी व परिवार के अन्य सदस्यों के चित्र

यात्रा के पड़ाव पर उदय प्रताप सिंह , अनिल जोशी साहित्यिक धरोहर वाहन के साथ
सुमित्रानंदन पंत के निवास पर अनिल  जोशी , उदय प्रताप सिंह , प्रो वीना शर्मा व हिंदी के अन्य लेखक

साहित्यकार संसद के बाहर कवि मनोज , स्थानीय विद्वन , अनिल जोशी, शिव नारायण शर्मा







शनिवार, 1 जनवरी 2022

प्रार्थना

 

प्रार्थना 

उसने सिर्फ आंखे नहीं दी
दृष्टि भी दी
चारों तरफ अंधकार दिया
तो ह्रदय में दे दिया मणि का प्रकाश
डसने को थी

अंधेरी सर्पीली घाटियां, खाईया , सुरंग
तो दे दिया बाहे फैलाए

 अनंत आकाश
 
इधर दी बाधाएंचुनौतिया

डगमगाने को

तो उधर दे दिए शुभ संकल्प,
संभावनाओं को टटोलता  बेपनाह आत्मविश्वास

दस रास्ते बंद हुए
तो सौ द्वार खोले
हर सह्रदयी चेतना से तुम ही बोले

जीवन के थपेड़े दिए ,
हालात की लहरों का गर्जन,मझधारभवरें अनेक
तो पकड़ा दिया चप्पू
सही- गलत का विवेक

अबूझ संसार दिया
तो दे दिए शब्दों के मंत्र

कैसी कैसी कठिन परीक्षाओं में डाला
फिर  खुद ही निकाला

हम तुमसे शिकायत करते रहे
लड़ते रहे
 
तुम हँसते रहे
यूं ही हमें हमारी बेहतरी के लिए गढ़ते रहे

तुम ऐसे हो ,वैसे हो ,जैसे हो

शुक्रवार, 14 मई 2021

दो रंग



दो रंग 

अच्छा है यह

वह बुरा है

केवल दो रंग होते हैं 

हमारी परखनली में


फार्मुले देते रहे

बनाते रहे खाने

फिर खेलते शतरंज


रंगों और खुशबुओं के बीच 

कितनी तरह के सघन और जटिल संयोजन 



मुस्कराते रहे

करते रहे हमारे वयस्क होने का इंतजार


गुरुवार, 13 मई 2021

छवियाँ




अगर ये सफेद कमीज लूं तो--
अच्छा लगूंगा ! 

नीली पेंट

वह टंगी

और भी अच्छा….!

ब्रांडेड जूते भी

बहुत ज्यादा  अच्छा……!


होने और लगने के बीच

 हम चुनते रहे छवियों को

छायाओं, छवियों और प्रतिबिंबो में

 ढूंढते रहे अपनी पहचान

अनिल जोशी 
anilhindi@gmail.com

मंगलवार, 11 मई 2021

जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया- अनिल जोशी

 




जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया

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आयु का अमृत  घट, पल -पल कर रीत गया

जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया


प्रश्नों के जंगल में , गुम-सा खड़ा हूँ मैं

मौन के कुहासे में, घायल पड़ा हूँ मैं

शब्द कहाँ, अर्थ कहाँ, गीत कहाँ, लय कहाँ

वह एक स्वप्न था , यह है एक औ जहाँ

ख़ाली गलियारा है, और हर तरफ धुंध

परिचित क्या, मित्र क्या, प्रियतम मीत गया


जीवन से बाजी में समय देखो जीत गया 


अधरों की बातों को, कल तक तो टाला था

आज अंधेरा गहरा, कल तक उजाला था

टलते रहे प्रश्न जो, उत्तर क्या पाएंगें

अग्नि की लपटों में, धू -धू जल जाएँगे

मीलों -मील दुख झेलाक्षण भर को सुख पाया

पलक भी झपकी थी, वह क्षण भी बीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया


भोले विश्वासों को, आगत की बातों को

रेत से इरादों को, सपन भरी रातों को

सच माना, सच जानाऔर फिर ओढ़ लिया

शाश्वत हैं, दावों से, खुद को यूँ  जोड़ लिया

साँसे थी निश्चित, अनिश्चित इरादे थे

 श्मशानी वेदना में, अमरता का गीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया


उठते हाथ अब, पग भी ना बढ़ पाए

चेतना अचेत हुई, होंठ भी खुल पाए

दीप-सा समर्पित यह, नदिया को अर्पित यह

आँसू से गंगा का, आंचल अब विचलित यह

यही तो भागीरथ था, यही तो कान्हा था

साहस-गाथाएँ  रहीं, गया वह अतीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया 

        (अनिल जोशी के सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह - ‘शब्द एक रास्तासे, anilhindi@gmail.com)