शुक्रवार, 29 जून 2012

समर्पित साहित्य और समाज सेवी श्रीमती विमला सहदेव को श्रद्धांजलि


देखने में वे आम गृहणी ही थी। भारी शरीर, बातचीत में एक उत्साह, स्वर में आत्मीयता सदा एक विशिष्ट भावजगत में रहने वाली। बिमला सहदेव यह मूल नाम था जो श्री रामबीर गोगना से विवाह कर उपनाम गोगना  हो गया। अध्यापिका के रूप मे नगर पालिका के स्कूल में पढ़ाती थी। सरकारी स्कूलों में आज किन के बच्चे पढ़ते हैं यह हम जानते हैं। पढ़ाते  – पढ़ाते उन बच्चों से आत्मीयता बढ़ने लगी। पर आत्मीयता किताबों तक ही सीमित नहीं हो सकती तो  आत्मीयता दुख – सुख से जुड़ी । फिर तो वे बच्चे उनके बच्चे हो गए।  इधर उनका रूझान साहित्यिक हो चला था तो बच्चों को साहित्य और रचनाशीलता की दुनिया से कैसे जोड़ा जाए । यह सरोकार बना । बात कोई 20-25 साल पुरानी होगी। उन्होंने मुझसे कहा कि अनिल मेरे स्कूल मे आओ । बच्चों की कविता सुनो और उनका मार्गदर्शन करो। स्कूल जाने पर लगा ही नहीं कि यह एक औपचारिक कक्षा है। शिक्षा क्षेत्र के सभी प्रयोगों से गुजरती.. । कभी स्कूल के मैदान में बैठ बच्चों को मौसम पर कविता लिखने को कहती उनके  साये में कितने ही बच्चों की कल्पनाशीलता ने पर फैलाए। हमें भी पता चला कि कविता लिखना और सिखाना दो अलग चीजें हैं। वे साधारण अध्यापिका नहीं थी । यह बात सरकार की भी समझ में आई और उन्हें राष्टपति पुरस्कार भी मिला ।
कविता, कल्पनाशीलता, साहित्य और सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े बच्चों से उनका नाता घनिष्ठ से घनिष्ठतर होता चला गया। कल्पनाशील बच्चों की यह उड़ान क्या व्यर्थ चली जाएगी?  कोई उन नन्हों का कलरव नहीं पढ़ेगा?  उन्होंने उसके लिए बाल संकलन निकालने शुरू किए। यह एक नई शुरूआत थी। बच्चों द्वारा बनाए रंग – बिरंगे चित्रों के साथ अनगढ़ कविता। जिनका शब्दों से भी परिचय नहीं था वे शब्दों में तैरने लगे। उड़ान भरने लगे, गाने लगे , मुस्कराने लगे और मनुष्यता के ऩए अर्थ पाने लगे। साहित्य के मर्मज्ञों की नज़र उनकी साधना पर पड़ी। आजकल के विशेषांक में कवर पृष्ट पर उनका चित्र  आया और बाल रचनाकारों को मंच और दिशा देने वाली एक सह्रदय अध्यापिका और साहित्य जिज्ञासु के रूप में लोग उनको जानने लगे।
एक दशक पूर्व उनकी  सेवानिवृत्ति हो गई । अब तो सरकारी स्कूल नहीं रहा । इससे क्या ? उन्होंने घर के पीछे स्कूल शुरू किया। जहां बच्चों को पढ़ाती थी। समय – समय पर कार्यक्रम करती। बच्चों के साथ त्यौहार मनाती । साहित्यकारों को बुलाती । साहित्य का अर्थ यदि मानवीय मूल्यों की पहचान और उनका आत्मीय प्रसार है तो वे सच्चे अर्थों में प्रतिक्षण साहित्य और मानव सेवा कर रही थी।  झुड के झुंड बच्चे उनके पास उमड़े रहते । उनका छोटा सा परिवार बहुत बड़ा हो गया था । वे दिन भर उनकी समस्याओं को लेकर परेशान रहती । फोन पर भी वे कहती , मैं माता जी बोल रही हूं। किसी की बीमारी, शादी , त्यौहार देखते – देखते वे जगत मां हो गयी थी।  शायद यही तो व्यक्तित्व विकास की सर्वश्रेष्ठ परिणति है।
सेवा निवृत्ति के बाद उनकी साहित्यिक भूख बहुत बढ़ गई थी। वह निरंतर उत्कृष्ट साहित्य पढ़ती। गुनती । उसमें डूब जाती । हम सब को ऐसे लेख , कहानियां उनके थीम, मुख्य बातें फोन करकें बताती। वे स्वयं रचनाओं से आत्मीयता से जुड़ जाती । रचनाकार और उसकी रचना प्रक्रिया उनके मन में घूमती रहती। वे लेखक के बारे में उनके परिवेश के बारे में जानने का प्रयत्न करतीं। हाल में ही उन्होंने निर्मल वर्मा को पढ़ा। फिर निर्मल वर्मा जादू की तरह उनके दिमाग में छा गए। वे निर्मल वर्मा का स्टडी रूम , उनका परिवेश देखना चाहती थी। निर्मल वर्मा के शब्द और अर्थ सौंदर्य में डूबी विमला जी ने  गगन गिल को फोन किया। गगन गिल उनकी उत्कट इच्छा देख मयूर विहार आई। घर खोला गया । विमला जी ने निर्मल वर्मा के परिवेश को जाना. सूंघा, चित्र लिए, आत्मसात किया। लेखक, उसकी रचनाशीलता को जानने और उससे जुड़ने का यह एक उदाहरण है। वे हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट सह्रदय पाठिका थी जो अपने समय की सभी प्रमुख पत्रिकाओं को पढ़ती और उनके बारे में विमर्श करती। फेसबुक उनका प्रिय शौक था। सबकी रचनाओं को पढ़ टिप्पणियां करती । प्रवासी दुनिया पर प्रकाशित वैदिक जी के लेख उन्हें विशेष रूप से पसंद थे। बच्चों की फेसबुक पर लिख दिया –  वाइन अच्छी होती  है तो बच्चों ने परेशान होकर दादी -नानी को  फेसबुक से हटा दिया।
उनके परिवार में पति गोगना जी स्वयं एक प्रतिष्ठित वकील हैं, अंग्रेजी साहित्य के अध्येता । पुत्र राजेश गोगना भी नामी वकील हैं, सामाजिक जीवन में अत्यंत सक्रिय, हिंदी के परिवेश से जुड़े । पुत्रवधु डॉ मंजूषा गोगना – माता जी की घनिष्ठ सहयोगी और पुत्री ज्योतिका गोगना , स्थापित वकील और समाज सेवी। दामाद – विनोद कालरा – चार्टड एकाऊटेंट और समर्पित समाज सेवी। पोते , नाती भी रचनात्मकता और समाज सेवा के उसी रास्ते पर हैं।  जो बीज और खाद संस्कारों के रूप में मिली हैं उससे स्वभाविक रूप से सुगंध देने वाले फूलों की एक भरी – पूरी फुलवारी सृजित हुई ।

अभी जनवरी के अंतर्राष्ट्रीय. हिंदी उत्सव में प्रवासी दुनिया और अक्षरम की ओर से कुंवर नारायण के हाथों उन्हें सम्मानित किया गया। बच्चों की पूरी बटालियन कार्यक्रम में उपस्थित थी। सबसे ज्यादा उत्साह उनको सम्मान देते हुए नज़र आया।  हिंदी समाज इस सामान्यता के आवरण मे असामान्य व्यक्तित्तव की स्वामी  बिमला जी प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहता था … वंचित लोगों विशेषकर बच्चो के प्रति दया, ममता की मूर्ति से प्रेरणा ग्रहण करना चाहता था .. साहित्य में बिखरे हुए जीवन मूल्यों को जीने का क्या अर्थ होता है , यह सीखना चाहता था। साहित्य और साहित्यकारों को समझने का वास्तविक अर्थ क्या है , यह समझना चाहता था।
उनके पास कोई संस्था नहीं थी। उनका रचनाकार होने का कोई दावा नहीं था। समीक्षक जैसी कोई पहचान नहीं थी। परंतु वे दिन – रात साहित्य के अध्य्यन और मानवता की सेवा में डूबी हुई थी। अपनी ही सृष्टि के आनंद में गोते खाती विमला जी ने 10 जून, 2012 को अंतिम सांस ली। उन्हें अंतिम विदा देने आसपास के स्लम क्षेत्रों के बच्चों के आंसू रोके नहीं रूक रहे थे। पुत्र राजेश गोगना ने चिता को  अंतिम अग्नि देने के लिए बहन ज्योतिका को भी बुलाया। आंखों में अश्रु लिए उन्होंने भाई के साथ इस दायित्व का निर्वाह यह कहते हुए किया। ‘मेरी मां ने मुझे कभी बेटे से कम नहीं माना।‘ उपस्थित हम सब लोगों ने गीता के श्लोक के भाव के साथ विदा ली -
नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सत:।
जीवन के श्रेष्ठ मूल्य कभी नष्ट नहीं होते तो उन मूल्यों का पूंजीभूत रूप व्यक्तित्तव कैसे नष्ट होंगा.. वे हैं … यहीं , हमारे आसपास । कहती.. समझाती… प्रेम से आदेश देती अनिल… तुम निर्मल वर्मा  की  किताब  ’ धुंध की धुंध ‘ जरूर पढना।

मोर्चे पर

उसने चाकू को चाकू 
और
डाकू को डाकू कहा 
क्योंकि वह जानता था
हमारी कविता में 
कौशल की नहीं 
साहस की कमी है।