दिल्ली दंगों पर कविता -2
आख़िर इतनी घृणा कहाँ से आती है
किसी के पास है विजेता का ‘उन्माद ‘
किसी के पास विजित का ‘प्रतिशोध’
हमारी जड़ो में बैठ गया है
ग़लत इतिहास बोध
किसी के पास वैश्विक ‘जेहाद ‘ के सपने हैं
तो किसी के पास ‘अब बहुत सह लिया ‘के नारे है
इनके आगे बाक़ी सब बेचारे हैं
यह सवाल अस्मिता का है
बहुत से लोग बताते हैं
पर एक अस्मिता का पाँव दूसरी की गर्दन पर क्यों रखा है
यह क्या मजबूरी है ?
अस्मिताओं का सतत युद्ध किनके लिए ज़रूरी है !
ये अस्मिता
अभिव्यक्ति और पहचान की आवाज़ नहीं
बल्कि राजनीति का हथियार है
इसका धंधा इंसानियत का व्यापार है
पर कुछ के पास तो टैंक हैं
उनके पास सदाबहार नुस्ख़ा
वोट बैंक है
फ़ेसबुक , वटसएप , ट्विटर
भड़ास निकालने का अड्डा है
यहाँ दुर्भावना का गहरा गड्डा है
जहां हमारे द्वेष , घृणा , हिंसा को शब्दों का आकार मिलता है
बेवजह को वजह मिलती है
बामियान के बुद्ध की गर्दन
पहले विचारों की तलवार से कटती है
हम समझ लेते हैं
कि हम नहीं कोई अकेले धर्मांन्ध, विचारों के दीवालिया , चोर हैं
हमें ख़ुशी होती है, हमारे जैसे मूढ़मति सैंकड़ों और हैं
अब यह समूह नहीं माफ़िया हैं
हमारे पास एक ख़तरनाक ग़ज़ल का
का रदीफ और क़ाफ़िया है
अब उन सब पर धिक्कार है
जिनके दिल में इंसानियत के लिए प्यार है
उग आता है कैक्टस का जंगल
फैल जाता है संवेदनहीनता का रेगिस्तान
धीरे -धीरे इंसान नहीं रह जाता है इंसान
फिर अब हम वहाँ है जहाँ विचारों का अकाल है
रोज टेलिविज़न पर नेशन पूछता एक सवाल है
टी आर पी के लिए देश के लिए रोज दी जाती कैसी दिलचस्प दवाई
हाय जो विचारकनुमाा राजनीतिज्ञ बैठा है
वह सच में है कसाई
उसके पास जो तथाकथित विचार है
वो दरअसल एक हथियार है
उसकी हरेक बात , हर विचार , हर तर्क एक गहरा षड्यंत्र है
इनके पास सद्भावना ख़त्म करने का अचूक मारक मंत्र है
विवेकशील, संतुलित व्यक्ति उनके लिए ज़ीरो है
हर आक्रामक , ख़ूँख़ार व्यक्ति छोटे पर्दे पर हीरो है
ठहरिए जिसे आप एंकर कह रहे हैं
वह जानता है वह खड़ा कर रहा नाहक बवाल है
पर वह क्या करे वह तो एक दलाल है
एंकरों और वक्ताओं के पास ख़ूब जोश है
अब हम वहाँ तक आ गए कि
सारी जनता वैचारिक रूप से बेहोश है
अब वहां पहुँचे जहाँ इस कहानी का तर्कसंगत अंजाम है
यहाँ राजनीति का नंगा हमाम है ,
यहाँ सिसकते लोग है , लाशें है
देह और दिल पर लगा गहरा घाव है
उन्हें क्या
उनके सामने तो अगला चुनाव है
ये दिलों को , दिमाग़ों को, ख़ून को बाँटेंगे
लोग बँट चुके हैं
अब चुनाव की खड़ी फ़सल ये काटेंगे
अब द्वैष का गहरा कुआँ है
चारों तरफ नफ़रत का धुआँ है
और हम देखते हैं कि प्रेम , संवेदना , भाईचारा सब धू -धू कर जल रहा है
हमारे देखते -देखते एक घृणा का समंदर इंसानियत को निगल रहा है