शुक्रवार, 14 मई 2021

दो रंग



दो रंग 

अच्छा है यह

वह बुरा है

केवल दो रंग होते हैं 

हमारी परखनली में


फार्मुले देते रहे

बनाते रहे खाने

फिर खेलते शतरंज


रंगों और खुशबुओं के बीच 

कितनी तरह के सघन और जटिल संयोजन 



मुस्कराते रहे

करते रहे हमारे वयस्क होने का इंतजार


गुरुवार, 13 मई 2021

छवियाँ




अगर ये सफेद कमीज लूं तो--
अच्छा लगूंगा ! 

नीली पेंट

वह टंगी

और भी अच्छा….!

ब्रांडेड जूते भी

बहुत ज्यादा  अच्छा……!


होने और लगने के बीच

 हम चुनते रहे छवियों को

छायाओं, छवियों और प्रतिबिंबो में

 ढूंढते रहे अपनी पहचान

अनिल जोशी 
anilhindi@gmail.com

मंगलवार, 11 मई 2021

जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया- अनिल जोशी

 




जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया

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आयु का अमृत  घट, पल -पल कर रीत गया

जीवन से बाजी में, समय देखो जीत गया


प्रश्नों के जंगल में , गुम-सा खड़ा हूँ मैं

मौन के कुहासे में, घायल पड़ा हूँ मैं

शब्द कहाँ, अर्थ कहाँ, गीत कहाँ, लय कहाँ

वह एक स्वप्न था , यह है एक औ जहाँ

ख़ाली गलियारा है, और हर तरफ धुंध

परिचित क्या, मित्र क्या, प्रियतम मीत गया


जीवन से बाजी में समय देखो जीत गया 


अधरों की बातों को, कल तक तो टाला था

आज अंधेरा गहरा, कल तक उजाला था

टलते रहे प्रश्न जो, उत्तर क्या पाएंगें

अग्नि की लपटों में, धू -धू जल जाएँगे

मीलों -मील दुख झेलाक्षण भर को सुख पाया

पलक भी झपकी थी, वह क्षण भी बीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया


भोले विश्वासों को, आगत की बातों को

रेत से इरादों को, सपन भरी रातों को

सच माना, सच जानाऔर फिर ओढ़ लिया

शाश्वत हैं, दावों से, खुद को यूँ  जोड़ लिया

साँसे थी निश्चित, अनिश्चित इरादे थे

 श्मशानी वेदना में, अमरता का गीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया


उठते हाथ अब, पग भी ना बढ़ पाए

चेतना अचेत हुई, होंठ भी खुल पाए

दीप-सा समर्पित यह, नदिया को अर्पित यह

आँसू से गंगा का, आंचल अब विचलित यह

यही तो भागीरथ था, यही तो कान्हा था

साहस-गाथाएँ  रहीं, गया वह अतीत गया


जीवन से बाजी में , समय देखो जीत गया 

        (अनिल जोशी के सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह - ‘शब्द एक रास्तासे, anilhindi@gmail.com)

सोमवार, 3 मई 2021

असाधारण थे दाऊजी गुप्त

अनिल जोशी
 anilhindi@gmail.com
आदरणीय दाऊ जी का निधन दुखद: और अनेपक्षित था । एक सप्ताह पूर्व उनसे बात कर अपनी ऊर्जा व्यक्त की थी । उन्होंने सभी विश्व हिंदी सम्मेलनों मैं भागीदारी की । राजनीति में रहकर कमल के समान निष्कलंक रहे । हर सामाजिक काम मैं भागीदार । विद्वता के शीर्ष । मेरा हार्दिक नमन । मेयर रहने के नाते मृत्यु पर उन्हें यथायोग्य सम्मान मिला । ईश्वर उनके पुत्र पद्मेश गुप्त को और परिवार को यह दुख सहने की शक्ति दें। 
मैंने पद्मेश गुप्त की बहुप्रतिष्ठित काव्य संग्रह की भूमिका ‘ प्रवासी पुत्र ‘ की भूमिका में श्री दाऊ जी गुप्त के लिए लिखा था - 'बात गंगा की हो और गंगोत्री का न हो तो अधूरी रह जाएगी। पद्मेश जी के व्यक्तित्व को समझने के लिए उनके पिता लखनऊ के पूर्व मेयर रहे, हिंदी के कवि ,लेखक,विद्वान, यायावर, ज्ञान के पहाड़ और विनम्रता के सागर को जानना आवश्यक है। ऐसे असाधारण और चमत्कृत करने वाले प्रवाह का उद्गम अगर ऐसा धवल और पवित्र और सबका मंगल करने वाला न होता तो हमें ऐसी बहुमुखी प्रतिभा का समर्पित व्यक्तित्व नहीं मिल पाता। दाऊ जी के व्यक्तित्व की पवित्रता का एक उदाहरण मैं नहीं भूल सकता । अमेरिका में हिंदी की लेखिका है , श्रीमती विशाखा , वे मेडिकल फील्ड में काम करती हैं। वर्ष 2007 में न्यूयार्क के विश्व हिंदी सम्मेलन के पश्चात मै और दाऊ जी उनके घर गए। रात के 9-10 बजे होंगे। श्रीमती विशाखा के घर में एक कैंसर का मरीज था। हम तीन लोग थे । सब थके हुए थे और भोजन करना चाहते थे। पर अगले दिन सुबह जल्दी उस मरीज को हस्पताल ले जाना था। बिशाखा जी ने जिस तरह से मरीज से दाऊ जी का जिक्र किया था, वह उसी रात परामर्श और प्रेरणा के रूप में और आशा के दीपक के रूप में दाऊ जी से मिलना चाहता था। दाऊ जी तुरंत उनके पास गए। रात देर तक उनके साथ रहे। शायद तब तक जब तक वह स्वयं ना सो गया। जीवन के इन अंतिम अंधेरे अंतिम क्षणों मे किसी के जीवन में प्रेम , संवेदन और आशा का दीप जगाने वाल दाऊ जी के इस प्रेरणादायी पहलू को भुलाना असंभव है। ( विशाखा जी से फिर 2021 में मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि वह कैंसर का रोगी अभी भी जीवित है। ) ऐसे प्रेरणादायी व्यक्तित्व और परिवार के संस्कार को अगली पीढ़ी में ले जाकर ही यह महती उपलब्धियां हासिल की गई है।' ( प्रवासी पुत्र से )