गुरुवार, 12 नवंबर 2015

प्रवीण शुक्ल के व्यक्तित्व की फोरेंसिक जांच





प्रवीण शुक्ल के व्यक्तित्व  की  फोरेंसिक जांच
अनिल जोशी

प्रवीण शुक्ल अच्छे कवि हैं...चर्चित कवि हैं..लोकप्रिय कवि हैं..उनकी एक ख्याति है.. , एक मार्केट.. है। प्रवीण शुक्ल एक अच्छे आयोजक हैं -विषयों का चुनाव..वक्ताओ का चुनाव..कार्यक्रम की सुरूचिपूर्ण व्यवस्था..प्रत्येक अतिथि को यथायोग्य सम्मान देना और भाषा और साहित्य के लिए जहां तहां अधिकतम योगदान देना उनके खूनउनके संस्कार में है। वे एक लोकप्रिय शख्सियत हैं , जो देश विदेश में कविता के लिए जानी जाती है। वे एक समर्पित अध्यापक हैं जो अपने विद्यार्थयों और स्कूल के प्रति गहरी निष्ठा और स्नेह रखते हैं। पर सबसे बड़ी बात यह है  एक निहायत  ही भलेनेकदिलसज्जनसहनशीलविवेकशील (  विवेकशील और मित्र विनयशील की तुक भी ठीक आ रही है)औरों के लिए कुछ करने को तत्पर इंसान के रूप में नज़र आते हैं । हम कह सकते है कि  इस गला काट प्रतियोगिता के युग में जब कविता मंच पर रह गयी है और मंच बाजार बन गया हैतो प्रवीण शुक्ल  पूरी संवेदना के साथ अच्छी कविता और अच्छे कवियों की संगत मे मनुष्यता के सरोकारों को बनाए रखने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। 
अंग्रेजी में कहते हैं ‘A man is known by the company he keeps’ ,  या हिंदी में कहें तो  जैसी संगत वैसी रंगत ‘, साहित्यिक कार्यक्रमों मे सबसे ज्यादा वे भाई कुँवर बैचेन के साथ मिले हैं। कुंवर जी को सम्मान उनकी कविताओं पर चर्चा , उनकी अध्यक्षता में कवि सम्मेलन.. और ऐसे ही कितने प्रसंग । उन्होंने अपना शोध भी उनके अंतर्गत किया । यानि कुंवर जी उनके गुरू भी हैं। पर आजकल ज्यादातर ये हो रहा है कि गुरू घंटाल मिलते हैं ऐसे में कुँवर जी तो घंटाघर निकले जो अपने शिष्यों को युग और समयबोध का दिशादर्शन करा रहे है। उन्होने जिस तरह से प्रवीण शुक्ल को बनायातराशा साथ दिया , हाथ दिया ,मंच दिए ज्ञान दिया , वह सराहना योग्य है। प्रवीण जी को बधाई कि उन्होंने अपना रोल माडल सही ढूंढा । 

 प्रवीण शुक्ल पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंदी पट्टी से आते हैं। इस पट्टी ने हिंदी को कई कवि दिए हैं। नीरजसोम ठाकुरमधुर शाश्त्रीकुँवर बैचेन, किशन सरोज  आदि । इस पट्टी के अपने संस्कार हैं। एक तरफ रोली , चंदन , मेंहदीकुमकुम , रंगोली तो दूसरी तरफ ओज और शौर्य की कविता जिसके प्रतिनिधि कवि हरिओम पंवार है। इस पट्टी के गीतों में एक स्नेहएक संवेदना , एक  गहरा रागएक संस्कारशीलता मिलती है जो प्रवीण शुक्ल के कवि जीन में पहुंच गई  है-  

मन के आँगन में मना त्यौहार भी
बिन तुम्हारे सूना -सूना हो गया
जितना ज्यादा भूलना चाहा तुम्हें
उतना ज्यादा दर्द दूना हो गया
आँख से आंसू झरे अनगिन
अब तुम्हारी याद आए बिन



कितनी बार जीतकर हारे
आशाएँ इतनी दूरी पर
जितने चंदा सूरज तारे
दूरी का अनुमान लगाकर
रात-रात भर जाग रहे हम
बिना पते के पथिक सरीखे
जीवन पथ पर भाग रहे हम

ये भी कहती हैतुझको भूली मैं
और रहती है खोई - खोई भी

प्रवीण शुक्ल ने हास्य के लिए पारंपरिक छंद शैली अपनाई । यह हिंदी मंचों पर ओमप्रकाश आदित्य और अल्हड़ बीकानेरी की काव्य परंपरा का विस्तार है। उनकी लोकप्रियता में समकालीन स्थितियों की समझ , प्रत्युत्पन्नमति ( Presence of Mind) , विट, पंच के साथ हिंदी छंद की शक्ति भी है । जिससे एक साथ रस और काव्य चमत्कार की सृष्टि होती है।  हास्य कविता में छंदो का प्रयोग करने वाले  कवि बहुत कम है । उनकी सफलता में उनकी छंद साधना का भी बहुत हाथ है। 

प्रवीण शुक्ल का शोध अशोक चक्रधर पर है। यह भी अनायास नहीं है। अशोक चक्रधर वर्तमान मंच की कविता के शिखर पुरूष हैं। उनके पास भवानी प्रसाद मिश्र की बातचीत  की शैली और शरद जोशी के पंच हैं।  हास्य के रास्ते से व्यंग्य और व्यंग्य के रास्ते से करूणा की गलियों का गुगल मैप उनके पास है। मंच की कविता आज  फूहड़ हास्य के गंभीर संकट से जूझ रही है और हास्य कवियों के सामने शेष धाराओं के कवि अतिथि कलाकार लगते हैं। आयोजक विशेष रूप से हास्य कवियों को बुलाता है और बाकी कवि एक्सट्रा कलाकार हैं जो उसके आने और छाने की तैयारी करते हैं । हास्य कवियों को  लतीफेबाज ठेल रहे हैं , ऐसे में अशोका स्कूल ऑफ सेटायर एक महत्वपूर्ण संस्थान था जहां प्रवीण जी ने अकादमिक रूप से भी उनपर शोध कर और आन जाब’  कवि सम्मेलनों में साथ कविता सुना ट्रैनिंग की । आन जाब ट्रैनिंग में अभिव्यक्ति की सूक्ष्मताएं या आम आदमी की भाषा में कहें तो मंच के सारे लटक-झटके भी जान लिए होंगे। पर व्यंग्य की सूक्ष्म समझ विकसित करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण था और मेरे विचार से अशोक चक्रधर की व्यंग्य चेतना के अध्य्यन और समझ से उनकी वर्तमान सफलता और लोकप्रियता की नींव पड़ी है।

गीतव्यंग्य कविता पर ही प्रवीण शुक्ल नहीं ठहरे , वे महत्वाकांक्षी हैंवे बारीक कविता भी कातना चाहते थे। वो जानते हैं ,
 उनको ही शोहरत मिली जिनके थे तेवर अलग..
 गज़लों में उनकी रूचि थी। कुँवर जी से उन्हें यहां भी सहारा मिला पर दुर्गापुरी और गाजियाबाद में फासले को देखते हुए उन्होंने मंगल नसीम से संबंध विकसित किए और गज़ल की बारीकीयों पर काम करना शुरू किया । कुँवर बैचेन गुरू हैं तो मंगल नसीम उस्ताद। ग़ज़ल के इस मदरसे का प्रशिक्षण आसान नहीं है ।‘ यह इश्क नहीं आसां’ टाइप चक्कर है। परंतु कविता के विभिन्न रूपोंछंदों , भावों से निकलते हुए प्रवीण शुक्ल पकते गए ( आम की तरह हैं , इसीलिए)। उनमें ताजापन भी हैंमिठास भी , खुशबु भी और हास्य – व्यंग्य का खट्टा – मीठा स्वाद भी। 
उनके कुछ अशआर देखिए -
जिन परिंदों की किस्मत में पिंजरा लिखा
तूने उनको दिए थे ये पर किस लिए

जिस घर ने पाल पोस के तुमको बढ़ा किया
आँगन को उसके बांटो न दीवार की तरह
यह तो उनके ऊपर पड़ने वाले प्रभाव हैं। सवाल यह है कि यह आम है कहां का ! इसकी जड़े कहां हैदशहरी है , चौसर है…. इस काव्य गंगा का स्रोत कहां है । अगर इसे देखना हो तो आप उनके पिता जी से मिलें और जानना हों तो उनके जीवन और भाषा और साहित्य साधना को जानें। उनके पास बताने के लिए सैंकड़ों किस्से हैंउनके किस्सों में कवि सम्मेलनों और प्रख्यात कवियों के संस्मरणों की शहतूत सी मिठास है। हिंदी की संस्थाओं के घर फूंक कविता सुननेसुनाने वालों में उनका भी नाम है। हिंदी की संस्थाओं को चलाने में उन्होंने कई दशक लगा दिए। जब मैं कोई आयोजन और हिंदी के प्रति प्रवीण शुक्ल की निष्ठा देखता हूँ तो सोचता हूं यह  तो उनके पिता का एक्सटैंशन ही है। प्रवीण शुक्ल हिंदी के प्रति समर्पित , निष्ठावान उस पंरपरा का अंग है जिसके कारण इस देश में हिदी का पौधा पल्लवित – पुष्पित हुआ। उनके वर्तमान व्यक्तित्व के लिए मैं उनके पिता जी को साधुवाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि अगली पीढ़ी में भाषा की संवेदना को देने के मामले में हम और प्रवीण जी भी वैसे ही पिता सिद्ध हों जैसे उनके पिता हैं। 
प्रवीण शुक्ल एक गद्यकार भी हूँ और कुंवर बैचेन के साथ ब्रिटेन के संस्मरणो पर लिखी गई उनकी पुस्तक 'सफर बादलों काउनकी गद्य क्षमता का सशक्त प्रमाण है।

प्रवीण शुक्ल का व्यक्तित्व और कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि अपनी इमारत बनाने के लिए दूसरे की इमारत को ढहाना जरूरी नहीं है। उन्हें आप लोगो के बारे में छोटी और ओछी टिप्पणीया करते हुए नही पाएंगे। यह  उनके अपने  व्यक्तित्व संस्कार और संगत का प्रभाव है। प्रवीण का काव्य व्यक्तित्व कुंवर बैचेन अशोक चक्रधर , पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंदी पट्टी से निकले नीरज, किशन सरोज, मधुर शाश्त्री छंद के महारथी ओमप्रकाश आदित्य, अल्हड़ बीकानेरी जैसे समृद्द काव्य परंपरा से ग्रहण करते हुए , .. उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी ... वाला मामला है। अपने परिवेश के प्रति सजग रहते हुए प्रवीण शुक्ल ने अपने को विकसित किया । आज देश - विदेश मे उनकी मान्यता है। दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। पर फिर भी उन्होने अपनी सरलता सहजता और स्निग्धता नहीं छोड़ी । उनका व्यंग्य समकालीन परिस्थितियो पर पैनी नज़र रखता है। आशाराम जी पर उनकी व्यंग्य आरती ऐसा ही एक तीक्ष्ण व्यंग्य है। कविता गीतग़ज़ल और व्यंग्य जैसी विधाओ को सिद्ध कर अपने व्यवहार और सोच से  रोज नए मित्र बनाते मित्रों को आत्मीय बनाते  प्रवीण शुक्ल मंच के बाजार में मनुष्यता के सरोकार लिए चंद शख्सो में से एक दिखाए देते है। इस साधना में उनके परिवार और पत्नी का भी बहुत योगदान है। उन्हें भी बहुत साधुवाद। ईश्वर करे वो अपनी इन खूबियो को कायम रखे और बढाए क्योंकि-

अगर अदब में काम करोगे,  तुमको सदियां याद रखेगी 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

फीजी में दीपावली- एक छोटे से दिए की ताकत


फीजी में दीपावली
एक छोटे से दिए की ताकत

ना तलवार, हथियार
ना ताकत , ना अधिकार
एक पोटली, 
यही तो थी, जब वो चले थे
सात समुद्र पार, एक सपने को पाने
साथ मे बस
एक दीप… रामनाम 
तुलसी के तेल से जलता …अविराम  

गोरा मुस्कराया
उसकी कुटिल नजरें देख 
उस दीप को सीने से चिपकाया

तूफानी हवा के थपेड़े
आकाश को चूमती लहरें
डरावनी प्रभात, प्रलय की याद दिलाती झंझावात, काली- घनी अधिंयारी रात

रिश्ते बन गए स्मृतियां
माता - पिता, प्रेम , घर, चौबारा
पीछे के दृश्य धीरे - धीरे गए खो
केवल जलती रही 
टिमटिमाते हुए दीपक की लौ


गोरे का अहंकार था
जालिम सरदार था
बेनामी थी 
गुलामी थी
जलालत थी
पीड़ा ,आंसू . गहरी अंधियारी सुरंग

बस एक टिमिटिमाता दीप 
दिखाता था रोशनी

कहता था
देखो अंत में बजता है सत्य का डंका
कितनी ही वैभवशाली हो
जल ही जाती है, सोने की लंका
रावण का आसुरी शक्ति, दस सिर होने का अहंकार अंततोगत्वा  बेकार जाता है
एक छोटे से दीपक के आगे 
घनी रात का अंधेरा आखिर हार जाता है

दीपक अनंत ऊर्जा का स्रोत इसलिए है
कि वह भी तो आखिरकार सूर्य का पुत्र है..
सच्चाई तो यह है कि जीवन संघर्ष में -भीतर - बाहर का प्रकाश  ही जीत का सूत्र है.

जीवन भर उस टिमटिमाते दीप से ही
पाते रहे दिशा
उसके सहारे ही कट गई  जिंदगी की काली अंधियारी निशा
अंधियारे से की जिंदगी भर लड़ाई
और
जब आखिरी बेला आई , 
यही विरासत बच्चों को पकड़ाई

एक नाम
एक देश
वो शब्द.. जिसमें  सांस्कृतिक इतिहास कसमासाता है
वो… जो रामनाम की लौ से जगमगाता है
वही… जो  पहचान है
वही… जिसकी वजह से 
लोग कहते हैं कि देखो… ये संस्कृति महान है
एक दृष्टि….
जिसमें समायी है… पूरी सृष्टि
सात समुद्र पार
गुजर गए साल.., दशक .., सदी.. 
आज भी बह रही है, तुलसी के स्रोत से निकली , वही… संस्कारों की नदी
 जल रहा है… जलता रहेगा…  गर्व और गौरव के साथ
अनंत प्रकाश से भरा 

 वही छोटा सा दिया

शनिवार, 7 नवंबर 2015

शब्द एक रास्ता है


शब्द एक रास्ता है
शब्द एक रास्ता है
मेरा विश्वास है
यह सोचकर मैंने उसे पुकारा
पर उधर से कोई उत्तर नहीं मिला
मैंने फिर सोचा

शब्द एक रास्ता है
और शब्दों को कागज पर उतार कर
एक जहाज बनाया
उसे उड़ा दिया
तुम्हारे मनदेश में
पर पता नहीं कहां लैंड किया वह


मैंने फिर दोहराया
शब्द एक रास्ता है
फिर से उसे कागज पर उतारा
और भावनाओं के सागर में उतार कर  कश्ती बना कर छोड़ दिया
घूमता रहा  वह ना जाने कौन - कौन कौन से द्वीप 


पर मेरा विश्वास टूटा नहीं
 मैेंने शब्दों को प्राथनाओं में पिरोया
समर्पण से उसका अभिषेक किया
अब वे मंत्र बन गए
देखो  चट्टान से झरना फूटा
बन गया सागर पर पुल
मैंने कहा था ना
शब्द एक रास्ता है
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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

कारावास में खिड़की


कारावास में खिड़की
कारावास में छोटी सी कोठरी
कोठरी के कोने में एक खिड़की
तीसरे दरजे के टार्चर के बाद
भीतर तक टूटा हुआ
देख रहा है एकटक
छत की तरफ नहीं
खिड़की की तरफ

खिड़की जालीदार नहीं है
उस पर शीशा लगा है
उससे हवा नहीं आती
हवा जितनी भी आती है
दरवाजे के नीचे से आती है
दरवाजे के बीच में एक जाली है
जिससे उसको मिलता है
लानतों के साथ दो वक्त का खाना
पर उसे लगता है
वह हवा और खाने की वजह से नहीं
खिड़की की वजह से जिंदा है

खिड़की से दिखता है
पूरा आकाश नहीं
आकाश का कोना
खिड़की देती है
उसकी स्मृतियों का आयाम
परिवार , छुटे हुए मित्र, बचपन ,  प्रेम
खिड़की देती है
इतनी जलालत और जिल्लत और थर्ड डिग्री टार्चर के बाद
जीने की वजह

कभी कभी खिड़की पर बैठ जाती है चिड़िया
खटखटाती है,
संवाद करती है
उसे बाहरी दुनिया की खबर देती है
तब उसे पता लगता है
अब भी धरती में है स्पंदन

कभी कभी उसे लगता है
यह खिड़की एक दिन बन जाएगी दरवाजा
और उसे ले जाएगी
नीले आकाश के उस पार
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anilhindi@gmail.com

इधर एक अकेला सच था

इधर एक अकेला सच था
निहत्था और अहिंसक
दूसरी तरफ झूठ का विशाल साम्राज्य
अपने पूरे सैनिक साजो-सामान के साथ
झूठ ने सच के तीन टुकड़े किए
एक को उठा कर फेंक दिया
हिमालय के दूसरे तरफ

हिमालय की वादियों पर थे खून के निशान
हिमालय से आने वाली बर्फीली हवाएं
सायं - सायं कर
टकराती खिड़कियों से
कहती लहुलूहान कहानी

सच्चाई के दूसरे अंश को डाल दिया
कारागार में
पर झूठ को विश्वास नहीं था अपने सैनिकों पर
रात को सोते- सोते वह जाग जाता
और देखता
सच्चाई को बंधा हुआ जंजीरों में
जांच करता उसके गर्भ में क्या पल रहा है

कहीं आठवां शिशु तो नहीं

सच्चाई मुस्कराती
यातना में करूणामयी मुस्करहाट
एक बेड़ी और बढ़ाने का आदेश देता झूठ

अपनी नींद में आश्वास्त होता

सच के तीसरे अंश को
मिलाया झूठ में कुछ इस तरह
झूठ लगे सच से ज्यादा चमकदार
यातनागृह बनाए गए ताजमहल से भी खूबसूरत
देखने आते पर्यटक
देखते सच की फोटुएं
खुशी- खुशी झूठ के साथ दावतें उड़ाते

सच लहुलुहान था
सच कारागार में था
सच दयनीयता के साथ दर्शनीय था
सच  अकेला था
सच की सबसे बड़ी ताकत यह थी कि
वह सच था

इतने वर्ष , दशकों  बाद भी
दीप की तरह जलता रहा सच
पर ना जाने क्यों बार -बार बुझने लगी है झूठ की मशाल




रणनीति




रणनीति
छुपा लेता हूँ
अपने आक्रोश को नाखून में
बदल देता हूँ
अपमान को हंसी में
आत्मसम्मान पर होने वाले हर प्रहार से
सींचता हूँ जिजिविषा को


नहीं

ना पोस्टर , ना नारे, ना इंकलाब
मन के गहरे पोखर से
ढूँढ कर लाता हूँ एक शब्द
पकाता हूँ उसे, आत्मा की आँच पर
बदलता हूँ कविता में
लाकर रख देता हूँ
मोर्चे पर