बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

ज़ड़ो, अस्मिता और द्वद्व की अभिव्यक्ति का साहित्य – प्रवासी साहित्य

ज़ड़ो, अस्मिता और द्वद्व  की अभिव्यक्ति का साहित्य – प्रवासी साहित्य
अनिल जोशी
‘घर छोड़ देने या बदल देने के बावजूद किसी की आंखें है कि वहीं उन्ही दीवारों से चिपकी छूट गई हैं’. राजेन्द्र यादव की प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी।
यही घर की खोज ब्रिटेन के कवि मोहन राणा की कविताओं में यह रूप लेती है-
 उस घर की चौखट पर /अजनबी की तरह झिझकते/खटखटाऊंगा दरवाजा आशा करते हुए /स्वागत की ,
/मैं देता हूं दस्तक / मैं करता हूं स्वागत /एक पल को मैं भूल जाता हूं/ जीवन के अंतरों को
एक दिन में लौटूंगा खोई हुई दिशा में( आशा –  कविता संग्रह , जैसे जनम कोई दरवाजा)
इसी खोज को खाड़ी के देशों की पृष्ठभूमि में कृष्ण बिहारी अपनी कहानी ‘ज़ड़ो से कटने पर’ लिखते हैं, ये छह –सात घंटे जिस तरह बता – बताकर गुजर रहे थे, उनसे अजीब – सी उलझन होने लगी थी । बार-बार एक बेतुका ख्याल भरता कि यदि हिंदुस्तान में कत्ल भी कर दिया होता तो इतनी मानसिक यातना से नहीं गुजरना पड़ता। झूठे आरोप पर परेशान होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। पहली बार एहसास हुआ कि अपने देश के अंदर आदमी की अपनी जड़ो की जो ताकत होती है, वह दूसरे देश में कोई औकात नहीं रखती’।

प्रवासी साहित्य में भारत हमेशा सकारात्मक रूप से ही उपस्थित नहीं होता। ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि सत्येंद्र श्रीवास्तव अपनी कविता ‘बार-बार भारत’ में लिखते हैं- उन्हें लगता है कि भारत के लोग अपने देश की आंतरिक शक्ति को नहीं पहचानते/ कि जिस भारतवासी के मुंह में पैसे का गोश्त लग जाता है /वह अपने देश की आत्मा को फेरो राजा-रानियों की तरह तहखानों में


अनिल जोशी
‘घर छोड़ देने या बदल देने के बावजूद किसी की आंखें है कि वहीं उन्ही दीवारों से चिपकी छूट गई हैं’. राजेन्द्र यादव की प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी।
यही घर की खोज ब्रिटेन के कवि मोहन राणा की कविताओं में यह रूप लेती है-
 उस घर की चौखट पर /अजनबी की तरह झिझकते/खटखटाऊंगा दरवाजा आशा करते हुए /स्वागत की ,
/मैं देता हूं दस्तक / मैं करता हूं स्वागत /एक पल को मैं भूल जाता हूं/ जीवन के अंतरों को
एक दिन में लौटूंगा खोई हुई दिशा में( आशा –  कविता संग्रह , जैसे जनम कोई दरवाजा)
इसी खोज को खाड़ी के देशों की पृष्ठभूमि में कृष्ण बिहारी अपनी कहानी ‘ज़ड़ो से कटने पर’ लिखते हैं, ये छह –सात घंटे जिस तरह बता – बताकर गुजर रहे थे, उनसे अजीब – सी उलझन होने लगी थी । बार-बार एक बेतुका ख्याल भरता कि यदि हिंदुस्तान में कत्ल भी कर दिया होता तो इतनी मानसिक यातना से नहीं गुजरना पड़ता। झूठे आरोप पर परेशान होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। पहली बार एहसास हुआ कि अपने देश के अंदर आदमी की अपनी जड़ो की जो ताकत होती है, वह दूसरे देश में कोई औकात नहीं रखती’।
प्रवासी साहित्य में भारत हमेशा सकारात्मक रूप से ही उपस्थित नहीं होता। ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि सत्येंद्र श्रीवास्तव अपनी कविता ‘बार-बार भारत’ में लिखते हैं- उन्हें लगता है कि भारत के लोग अपने देश की आंतरिक शक्ति को नहीं पहचानते/ कि जिस भारतवासी के मुंह में पैसे का गोश्त लग जाता है /वह अपने देश की आत्मा को फेरो राजा-रानियों की तरह तहखानों में गाड़ देता है../.वह महान देश उन्हें सारे जहां से अच्छा नहीं लगा।
प्रवासी लेखक यद्यपि भारत मे नहीं है , पर उनमे  भारत गहरी जड़े जमा चुका है, उनके फोर्मेटिव वर्ष इस देश  में बीते । उनकी संवेदनाओं के तंतु यही विकसित हुए। उनके मूल्य , मान्यताएं, अवधारणाएं , संकल्पनाएं भारत में ही बीज रूप में पनपी और पल्लवित हुई। भारत प्रवासी साहित्य में एक रेफरेंस प्वाईंट है । उनकी हर तुलना भारत से है। इन नास्टेलजिया को लेकर कई लेखकों को परेशानी है। उनका सोचना है कि यह नोस्टेलजिया उन्हें अतीतजीवी बनाता है और समकालीन गंध से वंचित करता है। किंतु यह तो अपनी जड़ों से जुड़ना है। अगर भविष्य हमें संकल्प देता है तो हमारा इतिहास हमें खुद को समझने और विश्लेषित करने की शक्ति देता है। नास्टेलजिया के संदर्भ में प्रवासी साहित्य अतीत का नहीं जड़ो की तलाश का साहित्य है। दिल्ली मे रह रहे लेखक भी तो अपने कस्बे- गांव से इसी तरह की शक्ति ग्रहण करते आए हैं।
हम जिसे जड़ें, अस्मिता और द्वद्व का साहित्य कहते हैं , कौन है उनके प्रतिनिधि रचनाकार , कौन सी है प्रतिनिधि रचनाएं ? कौन है वे रचनाकार जिनके बल पर कहा जा सकता है कि भारतीय डायसपोरा का सूरज दुनिया में अस्त नहीं होता ? भारतीय मूल के देशों में मारिशस- फिजी – सूरीनाम मे एक अलग प्रकार का साहित्य सृजित किया है। अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर , प्रो. सुब्रमणि , जोगिंदर सिंह कंवल, जीत नारायण  जैसे लेखक इन देशों ने दिए हैं। डा कमल किशोर गोयनका के शब्दों में  अभिमन्यु अनत सत्ता से प्रश्न करने का साहस रखते हैं। वह मारिशस के गूंगे इतिहास की आवाज है। वह अपने साहित्य से अज्ञात दरवाजों को खोलकर उसमें दबी-ढकी –बंधी – बांसो और कोड़ों की अनुगूंजो और प्रतिध्वनियों को साहित्य का रूप देते है। उनकी उपन्यास त्रयी ‘ लाल पसीना ‘ ‘गांधी जी बोले थे’ ‘और पसीना बहता रहा’ है । यह उपन्यास भारत से गए गिरमिटिया मजदूरो तथा कुलियों पर हुए घोर अमानवीय, क्रूर एवं पाशविक अत्याचारों का इतिहास है। इन देशों में साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष और सांस्कृतिक अस्मिता की तलाश  इसमें है।
अगर हम ब्रिटेन की बात करते हैं तो सत्येन्द्र श्रीवास्तव, मोहन राणा, अचला शर्मा, दिव्या माथुर, गौतम सचदेव , प्राण शर्मा , शैल अग्रवाल , सोहन राही कविता में प्रमुख नाम हैं। सोहन राही की पंक्तियां देखें  -समंदर पार करके अब परिंदे घर नहीं आते, अगर वापिस भी आते हैं तो लेकर पर नही आते।
 दिव्या माथुर, तेजेन्द्र शर्मा, गौतम सचदेव,  उषा राजे  सक्सेना, शैल अग्रवाल, उषा वर्मा वहां के प्रतिनिधि कहानीकार हैं। दिव्या माथुर का पिछले वर्ष  कहानी संग्रह ‘ पंगा और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हुआ। ‘आक्रोश’ और ‘हिंदी एट स्वर्ग डाट काम’ उनके अन्य कहानी संग्रह है। उन्होंने प्रयोगधर्मी दृष्टि से पंगा कहानी में कार के नंबर प्लेटों के माध्यम से ब्रिटेन का समाजशाश्त्रीय चित्र प्रस्तुत कर दिया है। अत्यंत सहजता और संवेदना से रची दिव्या माथुर की कहानियों का फलक बहुत बड़ा है। उसमें ब्रिटेन का स्थानीय समाज, भारतीय समाज,  पीढीगत द्वद्व, स्त्री विमर्श सब मौजूद है। तेजेन्द्र शर्मा का कहन अद्भुत है। उनकी कहानियां काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत गहन मानवीय पीड़ा की स्थिति में विडंबनाओं का चित्रण हैं। एक कुशल शिल्पी की तरह उनकी कहानियां रोचक सफर कराते हुए आपको मानवीयता का संस्कार देती हैं। कब्र का मुनाफा , पासपोर्ट का रंग आदि कहानियां प्रवासी जीवन और उनके वैचारिक संघर्ष की सशक्त अभिव्यक्ति है। वह रात और अन्य कहानियो, वर्किंग पार्टनर, मुलाकात, प्रवास मे जैसे संग्रहों से उषा राजे ने कहानी जगत में एक अलग जगह बनायी है। उनके बाद के संग्रहों को रोहिणी अग्रवाल हिंदी पट्टी की सुपरिचित साहित्यिक संवेदनाओं से बिल्कुल भिन्न एक नए भाव-जगत में गहरी पैठ के बाद लिखी कहानियां मानती हैं। शैल अग्रवाल की मौलिकता और सूक्ष्म दृष्टि उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है।
प्रवासी साहित्य का दूसरा केंद्र अमरीका – कनाडा है। यहां सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री, सुधा ओम ढींगरा , शालिग्राम शुक्ल, रेणु राजवेंशी गुप्ता, इला प्रसाद, विशाखा ठाकर जैसे साहित्यकार नई जमीन तोड़ रहे हैं। डा धनंजय और गुलशन मधुर जैसे साहित्यकारों ने अमेरिका के रचनाकारों के ‘ देशांतर’ और ‘कथांतर’ जैसे संग्रहों का संपादन कर प्रवासी साहित्य की अपूर्व सेवा की है। सुषम बेदी के लेखन मे जितना वैविध्य है और दृष्टि मे जो आधुनिक बोध है उसने प्रवासी साहित्य को नई जमीन दी है,  प्रवासी नारी विमर्श की अवधारणा दी है । उनके लेखन में वे सब प्रमुख सवाल और चुनौतियां हैं जिनसे प्रवासी को दो – चार होना पढ़ा है। ‘हवन’, ‘गाथा अमरबेल की ‘, ‘लौटना’, ‘नवाभूम की रसकथा’ जैसे उपन्यासों और ‘चिडिया और चील’ जैसी कहानी संग्रह से उन्होंने उषा प्रियवंदा के बाद प्रवासी गद्य  साहित्य की सर्वाधिक सशक्त लेखिका के रूप में अपनी जगह बनायी है। कहानीकार, व्यंग्यकार, नाटककार उमेश अग्निहोत्री का लेखन ‘क्लास लेखन’ है। उनकी कहानी ‘हैप्पी न्यू इयर’   गहन मानवीय संवेदनाओं की कहानी है । ‘लकीर’ कहानी में विदेशों में रहने वाले पाकिस्तानियों के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण अभिव्यकत हुआ है। विदेश में भारत – पाकिस्तानी सब एशियाई हैं। पिघलते आपसी पूर्वाग्रहों, द्वेष और आशंकाओं को दूर करते , अस्मिता की एक सी लड़ाई लड़ते ! सुधा ओम ढींगरा के सद्य प्रकाशित  संग्रह ‘कौन सी जमीन अपनी’ एक बार फिर प्रवासियों के भारत के प्रति रूमानी प्रेम को तोड़ता है। अमेरिका में अपनी जमीन- जायदाद बेच कर भारत में बसने का स्वपन , रिश्तेदारों की घोर स्वार्थपरकता के चलते कैसे चकनाचूर होता है, यह कहानी  उसका चित्रण है। कुल मिलाकर कनाडा - अमेरिका में लिखा जा रहा प्रवासी साहित्य ग्लोबलाइजेशन के समस्त संदर्भों को प्रस्तुत करता है। सैक्स के टेबू तोड़ता है। यहां अभिव्यक्ति में भारतीय रूढियां नहीं है जो 50 की फिल्मों की तरह प्रेम दृश्यों मे दो पक्षियों को चोंच लड़ाता दिखा देंगी। गेय और लेस्बियन सवालों पर बेबाक बातचीत है, पवित्र रिश्तों की पवित्रता पर सवाल हैं ! प्रेम संबंधों का परत –दर परत का विश्लेषण और  व्याख्या है। जहां विवाह नहीं  कैरियर  महत्वपूर्ण है साथी तो नए शहर या नए देश में भी ढूंढ लिए जाएंगे !
मारिशस –फिजी- सूरीनाम, कनाडा- अमरीका, ब्रिटेन प्रवासी साहित्य के इन तीन केंद्रों के अतिरिक्त अलग – अलग देशों में रह रहे प्रवासी भी महत्वपूर्ण साहित्य रच रहे हैं। उदाहरण के लिए जापान में लक्ष्मीकांत मालवीय की कहानी ‘ छुट्टी का दिन’ का संदर्भ लें । यह प्रेम संबंधों के देह संबंधों मे बदलने की कहानी है जिसमे प्यार नहीं है सिर्फ छुट्टी के दिन का सहवास है। नामवर सिंह जैसे आलोचक ने इस कहानी को बहुत महत्वपूर्ण माना है। इसी प्रकार रूस  में मदनलाल मधु, अर्जेंटीना में लिख रही प्रेमलता वर्मा, या डेनमार्क की अर्चना पैन्युली महत्वपूर्ण रचनाकार है। आस्ट्रेलिया  और न्यूजीलैंड में भी अंगड़ाई लेता प्रवासी साहित्य विश्व फलक पर एक स्थान बना रहा है।    
 रामदरश मिश्र कहते हैं  ‘प्रवासी साहित्य हिंदी साहित्य के परिदृश्य को बड़ा करता है। हमारे अनुभव के संसार को  लेखन को व्यापक बनाता है।‘ वैश्विकरण के और उदारीकरण के दौर में प्रवासी साहित्य हिंदी का एक वैश्विक चेहरा प्रस्तुत करता है ।  मारिशस – फिजी के संदर्भ में यह वहां के संघर्ष और अमानवीय स्थितियों से जूझने का इतिहास है तो यूरोप और अमेरिका के संदर्भ में यह अस्मिता और संस्कृतियों का द्वद्व है। यह भारतीयता को नई दृष्टि से गढ़ता है , आधुनिकता के मानदंडों पर उसका आकलन करता है, समकालीन समय के औजारों से उसको तराशता है। स्थानीय संस्कृति से खुले मन से कुछ ग्रहण करता है। और हिंदी और भारतीयता के क्षितिज को विस्तार देता है , इस पार से उस पार एक सेतु का निर्माण करता है।









दक्षिणी पेसिफिक में हिंदी सिनेमा- ये रोहित कौन है ?


हाल ही में फीजी फिल्म फेस्टिवल हुआ । दर्शकों की भारी भीड़ थी । राष्ट्रपति स्वयं उद्घाटन करने आए थे फेस्टिवल में भारतीय फिल्मों का एक वर्ग था। फिल्म समारोह का उद्घाटन फीजी के राष्ट्रपति ने किया । भारी भीड़ थी । ये लोग समारोह की फिल्में देखनें में रूचि रखते ही थे । परंतु भीड़ का मुख्य कारण था सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का प्रीमीयर। भारतीय फिल्मों के अन्य सितारों की तरह सलमान यहां भी बहुत लोकप्रिय हैं ।  समारोह से पहले जलपान पर चर्चा हो रही थी। राष्ट्रपति महोदय से भारतीय फिल्मों की बात हुई। उन्होंने कहा कि भारतीय फिल्में  पैसीफिक में  लोकप्रिय हैं और वे इसलिए लोकप्रिय हैं क्योंकि उन्हें समूचा परिवार बैठकर इक्ट्ठा देख सकता है।  पारिवारिक मूल्य , जड़ों से जुड़ाव, रिश्तों का महत्व, संगीत, नृत्य की बीट  ये सब ऐसी चीजे हैं जिनके कारण बालिवुड फिल्में  फीजी में बहुत लोकप्रिय हैं।
लेकिन यह स्थिति सिर्फ फीजी में नहीं है । पूरे दक्षिण प्रशात में यही स्थिति है। अभी हाल में ही मै किरीबास किया । किरीबास में भारतीय नहीं है । कोई दस -बीस होंगे । मेरे साथ फीजी मेेंं भारतीय सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक श्री कृष्ण लाल कनौजिया भी थे। हम लोग समुद्र तट पर फोटो खींच रहे थे। इतने में एक साईकल पर कुछ लड़के आए । हमने सोचा साईकल पर बैठने से फोटो मे कुछ विचित्रता आएगी । हम लोग साईकल पर बैठकर फोटो खिचवा रहे थे कि पीछे से आवाज आई - राहुल और रोहित । सभी हंस पड़े । हम दोनो रोहित और राहुल को नहीं जानते थे। हम लोग जिस होटल में रूके थे वहां से वापसी पर होटल स्टाफ  से वापस जाते हुए बात हुई। उसने कहा कि यहां हम सब बालिवुड की फिल्में खूब देखते हैं। उनके गाने और डास बहुत पसंद आते हैं। किरीबास में ए.एन.जेड बैंक की तरफ से आईडोल कंपीटिशन होता है। उसमें दूसरा स्थान प्राप्त करने वाला लड़का पहले पुजांस ( भारतीय मूल के भारतीयों का व्यापारिक संस्थान में काम करता था । उसका एक ही शौक था हिंदी फिल्मों के गाने गाना। उसके मंच पर लटकों - झटकों में सब शाहरूख खान की झलक थी।  मंच पर आकर उसने गाना गाया - गोरों की ना कालों की  , दुनिया है दिलवालों की । लोग थिरकने लगे। उसी प्रकार वहां की एक युवा लड़की से बात करने पर उसने कहा कि हमारे घरवाले हमें हालीवुड फिल्मे देखने की अनुमति नहीं देते चूंकि उसमें किस सीन बहुत होते हैं। वह इशारों में अपनी बात कह रही थी। परंतु उसने शिकायत की अब भारतीय फिल्मों विशेषकर गानों में बहुत अश्वीलता आने लगी है। उसने वालीवुड फिल्मों के लोकप्रिय होने की वजह बतायी  कि हालीवुड की फिल्मो में इतना एक्शन , इतनी हत्याएं और इतना सैक्स होता है कि यहां के लोग हिंदी फिल्मे पसंद करते हैं। 
किरीबास में बालुवुड के चाहने वालों के लिए एक रोचक कहानी भी है - यह कहानी वहां बहुत प्रचलित है। 90 के दशक में बालीवुड वहां बहुत लोकप्रिय था। दो युवा- एक लड़का और एक लड़की सार्वजनिक  कार्यक्रमों में नृत्य करते थे । लोग उनका नृत्य बहुत पसंद करते थे । उन्हें कार्यक्रमों में खूब बुलाया जाते । दोनों बहुत सुंदर थे और नृत्य तो उनका अद्भुत था। पर किरीबास एक पारंपरिक समाज है। शायद उनका प्रेम परवान नहीं चढ़ पाया । दोनों की मृत्यु हो गयी । वो आत्महत्या थी या प्राकृतिक मौत । ज्यादातर लोग नहीं जानते । किरीबास छोटा सा द्वीप है सब ने उनकी अनुपस्थिति को महसूस किया ।  लोगों ने उसका संबंध उनके भावुक होने से जोड़ा और भावुक होने को बालीवुड फिल्मों से फिर काफी वर्षों तक वहां के माता-पिता अपने बच्चों को बालीवुड फिल्में दिखाने से डरते रहे। 
अब सवाल है कि कौन सी फिल्में पसंद करते हैं यहां  के लोग । होटल में फिर हमने ये सवाल किया । सबसे लोकप्रिय फिल्में थी कुच कुच होता ( कुछ कुछ होता है) कहो ना प्यार है । गाने आप अनुमान करें - नहीं कर पाएगे । आजकल तेरे मेरे प्यार के चर्चे , या  जिमी जिमी आजा आजा  - इन गानों में कुछ खास बात है, जो कई दशकोें के बाद भी लोकप्रिय है। लेकिन रोहित वाली पहेली का अभी भी समाधान नही हुआ ना । मुझे भी नहीं पता था। मै  भी बहुत फिल्में नहीं देखता । मेरा अनुमान शाहरूख खान था । मुझे पता नहीं चला । एक बार कार मे किरीबास के विदेश मंत्रालय की प्रोटोकाल आफिसर से बात कर रहा था, हिंदी फिल्मो के बारे मे । वह कुछ रूचि लेकर कुछ  अनमने ढंग से उत्तर दे रही थी। इतने में मैने रोहित का जिक्र किया । उसकी प्रतिक्रिया ठहाके के साथ बड़ी भावपूर्ण  थी। आंखों में रोहित के लिए असीम लगाव। तो फिर रोहित कौन है । जी हां -ये रोहित है , 'कोई मिल गया' के रितिक रोशन । जिनकी सुंदर देह यष्टि , अद्भुत नृत्य . अभिनय और अदा भारत से हजारों किलोमीटर दूर इतनी लोकप्रिय हैं कि वह वहां सबसे लोकप्रिय भारतीय है। 
फीजी में हिंदी फिल्में 1930  के दशक से लोकप्रिय हैं। तब से गांव के छोटे - छोटे झोंपड़ों में राधा - कृष्ण, राम और शिव के साथ धर्मैन्द्र, देवानंद और दिलीप कुमार के फोटो लगते थे। फिर अमिताभ बच्चन का युग आया और अब तो खान बंधुओं की बारी है । चालीस - पचास के दशक से नाम रखने में हिंदी फिल्मी सितारे पहली पसंद होते थे। 
वहां के राष्ट्रपति भारत के हाई कमिश्नर के किरीबास आगमन पर विशेष रूप से प्रसन्न थे । उन्होंने दोपहर को औपचारिक पद ग्रहण ( एक्रीडेशन ) के बाद शाम को स्वतंत्रता दिवस समारोह में आने का निमंत्रण दिया । कहा शाम को आपके लिए एक सस्पेंस है। शाम के समय पूरे किरीबास के महत्वपूर्ण लोगों और राजदूतों और अन्य विशिष्ट अतिथियों के सामने वह सस्पेंस खुला । इस स्वतंत्रता दिवस समारोह में उन्होंने विशेष रूप से बालीवुड के एक डांस ग्रुप की प्रस्तुति तैयार की थी। सभी लोगों ने कार्यक्रम का बहुत आनंद लिया।
 फीजी में हिंदी फिल्में 1930  के दशक से लोकप्रिय हैं। तब से गांव के छोटे - छोटे झोंपड़ों में राधा - कृष्ण, राम और शिव के साथ धर्मैन्द्र, देवानंद और दिलीप कुमार के फोटो लगते थे। फिर अमिताभ बच्चन का युग आया और अब तो खान स्टारों की बारी है । चालीस - पचास के दशक से नाम रखने में हिंदी फिल्मी सितारे पहली पसंद हेोते थे । पुराने समय में हिंदी फिल्म देखना गांव वालों के लिए उत्सव की तरह होता था। पूरा परिवार तैयार होकर देखने जाता था। फिल्में केवल फीजीवासियों को हिंदी से नहीं जोड़ती बल्कि भारत से जोड़ती है। उनका रहन - सहन, सोच, जीवन शैली उससे प्रभावित होती है । डायसपोरा निर्माण में बालीवुड की भूमिका का ठीक मूल्यांकन आवश्यक है। फीजी और दक्षिण प्रशांत को भारत से जोड़े रखने में वालीवुड की महत्वपूर्ण भूमिका है। 

फीजी में हिंदी पत्रकारिता के 80 साल के गौरवपूर्ण इतिहास का प्रतिनिधि - शांतिदूत साप्ताहिक



फीजी में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास है।  इन साधनविहीन भारतीयों ने,  अपने जन्मस्थान से हजारों किलोमीटर दूर , समुद्र की गर्जना करती लहरों  के सान्निध्य में और मूल रूप से जंगलों में रहने वाले अपरिचित मूल निवासियों के साथ रहकर तालमेल बिठाया ,  अंग्रेजों के अत्याचारों को सहा और अपने परिश्रम और  कर्मठता से घने और बीहड़ जंगलो को हरे- भरे खेतों में बदल दिया। यह यात्रा बड़ी संघर्षपूर्ण रही है। इसमें इतनी कठिनाईयां,  इतनी चुनौतियां हैं कि फीजी के गिरमिटयों की कहानी एक रोचक , लोमहर्षक परिदृश्य प्रस्तुत करती है। इस इतिहास को जानना - समझना  भारत और उसके डायसपोरा के लिए बहुत आवश्यक है। इस गौरवगाथा को,  उसके उतार - चढ़ाव को,  उसकी चुनौतियों को उनकी भाषा में प्रस्तुत करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। लेकिन दो - चार साल नहीं ,  दो - चार दशक नहीं बल्कि आठ दशक तक ऐतिहासिक घटनाओं,  युद्दों,  विद्रोहों,  समस्याओं को प्रस्तुत करने का काम हिंदी भाषा में ‘शांतिदूत’ नामक साप्ताहिक  हिंदी समाचार पत्र ने किया । वर्ष 2015 में 11 मई को साप्ताहिक शांतिदूत के 80 वर्ष पूरे हुए। शायद ही भारत से बाहर किसी हिंदी समाचार पत्र की इतनी आयु हो। शांतिदूत के इस गौरवशाली प्रकाशन का प्रवासी हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।  

शांतिदूत की शुरूआत की पृष्ठभूमि द्वितीय विश्वयुद्द की है। विश्वयुद्द के बादल मंडरा रहे थे। इटली की सेना युद्ध में उतर चुकी थी। उस समय अंग्रेजी समाचार पत्र फीजी टाईम्स छपा करता था । उसके जनरल मैनेजर थे श्री बाकर  विश्वयुद्द में फीजी की जनता के सामने मित्र राष्ट्रों का पक्ष रखने और ब्रिटेन के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए  चर्चाएं कर रहे थे। बैठकें इत्यादि आयोजित की जा रही थी। ऐसे ही एक बैठक में विचार आया कि स्थानीय लोगों को िमत्र राष्ट्रों के पक्ष मे विश्वयुद्द से जोड़ने के लिए क्यों ना हिंदी में अखबार निकाला जाए ?  उसी बैठक में एक युवा मौजूद था जिसकी वर्षों से इच्छा थी कि फीजी में रहने वाले भारतीयों के लिए हिंदी में एक समाचार पत्र होना चाहिए । उसने मौके के महत्व को समझा और स्वयं को यह कार्य करने  के लिए प्रस्तुत कर दिया । उसका नाम था पंडित गुरूदयाल शर्मा । परंतु अखबार की अपेक्षा  केवल संपादन करना ही नहीं था। अखबार में समाचार संग्रह, चयन, प्रूफ रीडिंग, संपादन , ले - आउट , प्रस्तुति, वितरण सब अपेक्षित है। गुरूदयाल शर्मा ने यह सारा कार्य एक दो साल नहीं , दस -बीस साल नहीं , बल्कि अनवरत 48 साल तक किया ।
 11 मई 1935  में शांतिदूत के प्रकाशन से हिदी का जो शंख बजा वह हुंकार आज भी ध्वनित हो रही है।  गुरूदयाल शर्मा का जन्म १० दिसंबर 1913 को सुवा में हुआ था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की पारी पैसिफिक प्रैस से शुरू की जहां वे हिंदी पत्र के सहायक संपादक बने । इन्होंने ‘वृद्धिवाणी’ जैसे नए पेपर की भी शुरूआत की । अंतत : 1935 में उन्होंने शांतिदूत के संपादक का कार्यभार संभाला और 48 वर्ष तक शांतिदूत के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की अनवरत सेवा की । वे प्रसिद्ध ऋषिकुल कालेज के संस्थापकों में से थे और बहुत सी सामाजिक  गतिविधियों से जुड़े थे। वर्ष 1982 में उन्होंने सेवानिवृति ली । उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी ‘ Memories of Fiji 1887-1987 ’ ।  

शांति दूत का नाम कैसे पड़ा होगा पहले इसको सोच लें !  यह विश्वयुद्द का समय था तो ऐसे समय में ब्रिटेन का पक्ष या मित्र राष्ट्रों का पक्ष ही शांति का पक्ष है , इसके लिए जनमत तैयार करना तात्कालिक प्रबंधन की दृष्टि रही होगी। 11 मई 1935 को लिखे पहले संपादकीय में श्री गुरूदयाल शर्मा पत्र की नीतियों को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - इस पत्र के द्वारा भारतीयों को समस्त संसार की जानकारी मिलती रहेगी जिससे हिंदी भाषा जानने वाली जनता अनभिज्ञ रहती है। वे लिखते हैं ' इस पत्र में भारत , इंगलैण्ड, चीन , जर्मनी  के समाचार बेतार द्वारा प्राप्त किए जाएंगे, जो आज तक कोई हिंदी का अखबार नहीं कर सका है। लोक भलाई को स्मरण रखना प्रत्येक पत्रकार का कर्तव्य है अर्थात असत्य एवं विवाद विषयों से दूर रहकर शांति का प्रचार जनसमूह में करना उद्देश्य होना चाहिए। उन्होंने संपादकीय में लिखा- शांतिदूत पार्टीबंदियों से दूर रहेगा।  द्वीप की भलाई और  लोकप्रियता को बढ़ाएगा और सभी लोगों के लिए इसके कालम बिना भेदभाव के खुले रखेंगे। इसका मुख्य उद्देश्य समाज और जनसेवा है। उस समय शांतिदूत की सबसे बड़ी विशेषता समुद्री तार से प्राप्त विदेशों के समाचार बनी। नई तकनीक के द्वारा नवीनतम समाचार तार के द्वारा उपलब्ध करवा -शांतिदूत जो कि  विश्वयुद्द में भारतीयों को अपने पक्ष में करने को आधार बना निकाला गया समाचार पत्र था, धीरे - धीरे फीजी में हिंदी  का मुख्य समाचार -पत्र बन गया और उसने अपने जन्म के समय लिए गए सभी संकल्पों को पूरा किया।

प्रबंधन का कुछ भी लक्ष्य रहा हो परंतु जल्दी ही शांतिदूत ने फीजी में रह रहे भारतीय मूल के लोगों का हित पोषण करना शुरू कर दिया और अपने दूसरे ही संपादकीय में श्री गुरूदयाल शर्मा ने फीजी की संसद में चल रही मनोनीत प्रथा का जोरदार विरोध किया और आम निर्वाचन की मांग की।  शातिदूत के वर्ष 1935 में प्रकाशित अंकों में इस संबंध में विचारोत्तेजक रिपोर्ट और आलेख हैं। जिससे स्पष्ट होता है कि शांतिदूत ने  प्रारंभ से ही फीजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करनी शुरू कर दी थी। प्रवासी भारतीयो  के प्रति सरोकार सिर्फ फीजी में नहीं बल्कि भारत में भी हो इसके लिए शातिदूत में पर्याप्त सक्रियता दिखाई देती है। शांतिदूत के 1935  के अंको में भवानी दयाल सन्यासी के दो लेख छपे हैं । पहले लेख में उन्होंने एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं जैसे महात्मा गांधी , बनारसी दास चतुर्वेदी आदि की प्रशंसा की है दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रवासी भारतीय प्रकोष्ठ की कम सक्रियता पर दुख प्रकट किया है। उन्होंने कांग्रेस के विदेश विभाग को प्रभावी बनाने के लिए नेहरू जी की सराहना की । ब्रिटीश प्रभाव का समाचार पत्र होते हुए भी शांतिदूत में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के युरोप दौरे के भाषणों को प्रकाशित किया गया। प्रवासी भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण नाम भवानी दयाल सन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका और फीजी में भारतीयों की स्थिति सुधारने के लिए बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। शातिदूत में 1935 मे प्रकाशित  एक लेख में उन्होंने गिरमिटिया प्रवासन के संबंध में भारत में किसानों की स्थिति को जिम्मेदार ठहराया है । स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आह्वान किया।  प्रारंभिक काल से ही शांतिदूत में गन्ना किसानों की स्थिति की बेहतरी के लिए भी रिपोर्ट और लेख छपने लगे थे। । भारतीयों के अधिकारों को लेकर एक पत्र में पासपोर्ट पर तत्कालीन सरकार द्वारा लिखी जा रही  इन पंक्तियां के संबंध में आपत्तियां दर्ज की गई “ बिना फीजी सरकार के लेंडिग परमिट के इस पासपोर्ट द्वारा फीजी वापिस नहीं आया जा सकता ।“ पाठक संपादक के नाम पत्र में संपादक जी महाराज का संबोधन भी प्रयोग करते थे। उस समय समाज में फैले अंधविश्वास, जादू-टोने आदि का भी परिचय शांतिदूत में प्रकाशित रिपोर्ट और लेखों से मिलता है।  शांतिदूत प्रारंभ से ही भारत और फीजी में समस्याओं , मुद्धों , सरोकारों को समझने में समर्थ था और निष्पक्ष व प्रभावी रूप से उसको प्रस्तुत करता था। 
शांतिदूत की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने भारत के साथ संबंधों को मजबूत बनाए रखने का काम किया। 1935-1947 तक तो ऐसे लगता है कि यह भारत का ही कोई समाचार पत्र है। भाषा भी चुस्त- दुरूस्त ।  भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित प्रत्येक समाचार प्रमुखता से छापा जाता था। पंडित गुरूदयाल शर्मा गांधी जी के विशेष भक्त थे। गांधी जी की प्रत्येक गतिविधि शांतिदूत में छपती थी । विशेषकर हिंदु -मुसलमानों में सौहार्द के लिए  उनके प्रयास । भारत में हिंदु - मुस्लिम संबंधो में तनाव भी शांतिदूत में खबर बनता रहा। स्वतंत्रता आंदोलन , भारतीय गणतंत्र की स्थापना इस सबको यहां के लोग जानना चाहते थे।

हिंदुस्तान - पाकिस्तान युद्द  के बारे में फीजी - भारतीयों की जिज्ञासा शांतिदूत से शांत होती थी । सनातन धर्म सभा के राष्टीय सचिव विजेन्द्र प्रकाश लिखते हैं- ‘भारत और पाकिस्तान के बीच जब प्रथम युद्द हुआ था ' उस समय गिरमिटये पागलों की तरह उधर- उधर शान्तिदूत की खोज में दौड़ पड़े थे। जिसे शान्तिदूत मिला वह पहले पढ़ लेता और जिसे नहीं मिला वह दूसरों से पेपर लेने के लिए लालयित रहता और कभी - कभी तो होड़बाजी भी लग जाया करती थी। गिरमिटिए यह जानना चाहते थे कि इस युद्द में भारत का क्या हुआ, क्या वह पराजित हो गई या उसकी जीत हो गई।' 

जिस समय महेश चन्द्र विनोद शांतिदूत के संपादक बने वह समय राजनीतिक अस्थिरता का समय था। इस समय कू याने विद्रोह भी हुआ । शातिदूत के पत्रकारों को बंदूक की नोक पर कार्यालय से निकाला गया। परंतु उसके बाद भी साहस और निर्भीकता व संतुलन और विवेक से शांतिदूत ने अपनी बात रखी । डर , भय , आशंका और हिंसा के उस दौर में शांतिदूत की भूमिका अविस्मरणीय रही। शांतिदूत ने  विभिन्न समुदायों में एकता और शांति की मशाल जलाए रखी। इसके संपादकीयों मे राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा गया। महेश चन्द्र विनोद प्रभावी पत्रकार थे। राजनीतिक अस्थिरता के दौर मे उन्होंने शांतिदूत की नीति के अनुसार निर्भय होकर अपने विचार रखे। वे सांसद भी रहे । उन्होंने लेबर पार्टी की तरफ से संसद का चुनाव जीता। उसके बाद संपादक  श्री हेमन्त विमल शर्मा संपादक बने, वे इस समय आस्ट्रेलिया मे रहते हैं। वे  लगभग 6 वर्षों तक शांतिदूत के संपादक रहे । वर्ष 2000  से श्रीमती नीलम शांतिदूत की संपादन का दायित्व उठा रही है। इनके प्रमुख सहयोगी हैं । श्री राकेश कुमार और श्रीमती ज्ञानप्रभा । दोनों रेडियो फीजी से आए हैं। घर-परिवार , सामाजिक दायित्वों को निभाते हुए श्रीमती नीलम ने जिस तरह से इतने वर्षों तक साधनों की कमी और विपरीत वातावरण में अखबार निकाला है , वह प्रशंसनीय है। श्रीमती नीलम ने अपना हिंदी संबंधी प्रशिक्षण केंद्रीय हिंदी संस्थान से किया है। गुरूदयाल जी के समय से ही वे शांतिदूत से जुड़ी । पत्रकारिता उन्होंने युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक और नेशनल फीजी युनिवर्सटी से सीखी।
    फ्रीलांसर के रूप में बाद में पूर्णकालिक शांतिदूत मे आ गई ।  उनके युवा साथी राकेश कुमार भी उसी तरह निष्ठावान और कर्मठ हैं। पिछले कुछ वर्षो से शांतिदूत भारतीय समाज का सामाजिक - सांस्कृतिक आईना बन गया है। यहां होने वाले प्रत्येक सामाजिक - सांस्कृतिक कार्यक्रम का रिपोर्ताज शांतिदूत में प्रकाशित होता है। एक महिला होकर भी श्रीमती नीलम ना दिन देखती हैं ना रात ।  पारिवारिक विपरीत परिस्थितयों के बावजूद भी कार्यक्रमों में नजर आती है। वे एक पत्रकार ही नहीं हिंदी की समर्पित सिपाही हैं जो हिंदी के प्रोत्साहन के लिए सदा तत्पर हैं।  महेश चन्द्र विनोद , लो कर लो बात और हेमन्त विमल शर्मा शूलपाणि नाम से फीजी हिदी में स्तंभ भी लिखते रहे

।  

हिंदी शिक्षण और हिंदी के प्रचार - प्रसार में तो शातिदूत की भूमिका बहुत प्रशंसनीय है। एक तरह से शांतिदूत फीजी में हिंदी का प्रवक्ता है। वर्ष 1935 में ही याने अपनी स्थापना के  वर्ष से शांतिदूत में हिदी के स्वरूप को लेकर बहस शुरू हो गई । इस संबंध में 1935 के शांतिदूत में श्री बंभानी के लेख मिलते हैं और उन्हें शांतिदूत में क्रमवार छापा गया । शांतिदूत के कारण हजारो लोगों ने हिंदी सीखी । वर्ष 1987 के  शांतिदूत मे हिंदी अध्यापकों के लिए की जा रही कार्यशाला का उल्लेख है। हिंदी के तत्कालीन प्रथम सचिव श्री विमलेश कांति वर्मा का भाषा अस्मिता पर लेख है।  वर्तमान में भी हिदी विद्यार्थियों के लिए दो पृष्ठ विशेष रूप से आरक्षित हैं जिनमें स्कूलो के पाठ्यक्रम से जुड़े विषयों को क्रमवार प्रस्तुत किया जाता है.। प्रसन्नता की बात है इस संबंध में उन्हें शिक्षा मंत्रालय से भी सहयोग प्राप्त हो रहा है। दूरदराज के लोग किस प्रकार शांतिदूत के कारण हिदी तथा भारत से जुड़े रहे यह जानना अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है।

शांतिदूत की एक अन्य विशेषता यह है कि वह  भारतीय समुदाय विशेष रूप से हिंदू मान्यताओं , आस्थाओं, विश्वासों को पालित-पोषित करता रहा है। यह भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में उभरा है।  हिंदुओ की दो प्रमुख संस्थाओं सनातन धर्म सभा और आर्य समाज की गतिविधियां शांतिदूत में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही हैं। दीवाली विशेषांक तो शांतिदूत की जीवनवाहनी शक्ति है। कभी - कभी तो यह 365 पृष्ठो तक का होता रहा है। प्रत्येक अंक में ना केवल उस समय के त्यौहार आदि की विशेष जानकारी होती है बल्कि उस अवसर पर किए गए धार्मिक - सांस्कृतिक आयोजनों को भी इसमें प्रमुखता से छापा जाता है। सनातन धर्म सभा के अध्यक्ष रहे शालिग्राम शर्मा इसके नियमित स्तंभकार थे। वे विभिन्न त्यौहारों की धार्मिक - सांस्कृतिक - दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करते रहे हैं। अंग्रेजी का अखबार सांस्कृतिक - धार्मिक मान्यताओं से एक दूरी बना लेता है पंरतु हिंदी का अखबार , उसका संपादक मंडल , उसका प्रबंधन उन गतिविधियों में एक दृष्टा के रूप में नही एक सहभागी के रूप में भाग लेता हैं। रामायण मंडलियों की गतिविधियों को भी इसमे प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। ईद के अवसर पर इसमें विशेष सामग्री प्रकाशित की जाती है। क्रिसमिस के अवसर पर संपादकीय लिखे जाते हैं। इन विषयों में पाठकों की रूचि का यह आलम है कि 1935-36 में द्रौपदी द्वारा दुर्योधन को अपशब्द कहने के समय धृतराष्ट्र उपस्थित थे या नहीं इस विषय पर संपादक के नामक पत्र कालम में कई अंकों तक विवाद चलता रहा।

शांतिदूत फीजी मूल के भारतीय किसानों का अखबार रहा है। गांवों में पढ़ा जाता रहा है । इसकी प्रसार संख्या गांवों मे शहरों से अधिक है और वहां यह पंचायती अखबार रहा है जहां एक समय में दसियों लोग इसे पढ़ते थे। किसानों की समस्याओं को लेकर यह प्रारंभ से ही आवाज उठाता रहा है। 

फीजी डायसपोरा को जोड़े रखने  में भी शांतिदूत का विशेष हाथ रहा है । पिछले पचास वर्षो में आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैण्ड और अमरीका जाने वाले प्रवासियों में फीजीवासिययों की संख्या बहुत है । सिडनी ,मेलबोर्न, आकलैँड में तो ये बड़ी संख्या में हैं। वे लोग आज भी शांतिदूत पढ़ते हैं। शांतिदूत के लेखक हेमन्त विमल शर्मा मेलबर्न, तेजराम शर्मा, सिडनी, मास्टर राधे प्रसाद, सिडनी, पंडित हरिशचन्द्र शर्मा सिडनी । यहां तक की कैलिफोर्निया में भी फीजी का डायसपोरा हिंदी  और शांतिदूत के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
जहां तक रचनात्मक साहित्य की बात है। शांतिदूत में कविता , कहानी व्यंग्य निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। फीजी के वरिष्ठ लेखक जोगिन्दर सिंह कंवल शांतिदूत में निरंतर लिखते रहे हैं। कविता –शायरी को लेकर एक नियमित स्तंभ छपता है। इसमें नए लिखने वालें को स्थान दिया जाता है। भारत की आजादी से पहले शांतिदूत में वे कहानियां प्रकाशित की जाती रही हैं जिससे भारत की स्वतंत्रता की ज्वाला और प्रदीप्त हो।
फीजी हिंदी
शांतिदूत मानक हिंदी में प्रकाशित होता है  परंतु फीजी हिंदी में भी इसके कई - एक कालम छपते हैं । फीजी हिंदी की  अपनी मिठास है , भोजपुरी - अवधी मिश्रित, फीजी के स्थानीय समाचार पत्र शांतिदूत में एक कालम आता है बईठकी - इसमें वरिष्ठ लोगों से बीते समय और घटनाओं के बारे में च्रर्चा की जाती है। बईठकी में दी जा रही फीजी हिंदी की एक बानगी प्रस्तुत है-
बईठकी- कुशल सिंह 
बड़का के घर आए रही बड़का के सास,  बबरीबन से। एक सौ सात बरस के रही। लेकिन रही बड़ी चरफर, नाक में बड़का किल पहिने, बड़का – बड़का मोहर, हथवा में चांदी के मोट – मोट चुड़िया, कनफुलवो रहे सोना के, बड़का लहंगा, मुड़िया पे फुल टायेम ओढ़नी अऊर बातचीत में तो पूछो नई भाई, मू तोड़ जवाब। बईठकी दल वाले भी पहुँच गईन, सोचिन चलो थोरा पुराना समाचार ले लई जाए। वही डरमवा वाला फूस घर में पाल – वाल बिछा, घोर-घार भय, एक-एक चला अऊर गपोड़वार्ता शुरू होई गए। अऊर हाँ, बड़का के सास के सब माई बोलत रहिन ( पहिले के टेम पे ससुर के ‘बाबा’ अऊर सास के ‘ माई’ बोला जाता रहा, आज कल तो सब मम्मी डैडी होई गईन है)।

शांतिदूत ने कई प्रतिभाओं को स्थान दिया है। इसमें रामा नारायण, मास्टर सुधाकर, मास्टर राम नारायण गोविंद , बाल राम वशिष्ठ, काशी राम कुमुद , जे.एस.कंवल जैसे लेखक लिखते रहे हैं। कई प्रतिभाएं तो ऐसी हैं कि उन्हें केवल शांतिदूत में ही स्थान मिला है। उनकी प्रतिभा को अन्य प्लेटफार्म नहीं मिल सकता । ऐसे ही एक कवि हैं’ हलाहल’ उनकी कविताएं 1946-1947 में शातिदूत  में प्रकाशित होती रही । आइए इस अचर्चित कवि की एक कविता का आनंद ले-

“कोई कहता है न्यूजीलैण्ड जा कर तुम बस बी.ए. कर लो, कोई कहता है तुम भारत जा कर विद्यालंकार करो
कोई कहता है पुलिस बनो , कोई कहता सैनिक बन लो, कोई कहता कि ’ सिविल सर्विस ‘ से ही भवसागर पार करो
कुछ कहते अरे फकीर बनो, झटपट सन्यास ग्रहण कर लो, कोई कहता तुम घूम घूम बस विद्या का प्रचार करो
कोई कहता है कि वकील बनो, कोई कहता कि बनो लीडर, भारत से जब कोई नेता आए तुम टग आफ वार करो
कोई कहता इस और चलो, कोई कहता उस और चलो,मुझको अब सच्ची राह दिखा , गुरूवर मेरा उद्धार करो .”
गूरूवर ने झट ब्लूबुक देखी, आंखें मूंदी , कुछ ध्यान किया, कुछ सोच - समझ कर फिर बोले - ‘ प्यारे चेला ! व्यापार करो’

राजनीतिक अस्थिरता जब चरम पर थी। देश में अशांति थी , हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में फीजी के शीर्षस्थ साहित्यकार जोगेन्द्र सिंह कंवल की प्रकाशित कविता देखिए-
जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते , संघर्ष करते लोग,कभी रोते , कभी हंसते, ये डर डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती , उम्मीदों की हलचल, कभी बनते कभी टूटते, दिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थतियों के बनते रहे पहाड़, भविष्य उलझा पड़ा है , कांटे - कांटे आज
चेहरों पर अंकित अब, पीड़ा की अमिट प्रथा, हर भाषा में लिखी हुई , यातनाओं की कथा
जोश, उबाल व आक्रोश, छाती में पलटे हर दम, चुपचाप ह्रदय में उतरते सीढी सीढी गम
दर्द की सूली पर टंगा, कोई धनी है या मजदूर, है सब के हिस्से आ रहे, ज़ख्म और नासूर

बोझल बोझल है जिंदगी, टुकड़े टुकड़े सपने, हम सब पीते हैं दोस्तो .आज दर्द अपने अपने

शांतिदूत गिरमिटया अनुभव का प्रस्तोता रहा है  । देखिए शांतिदूत की अस्सीवी वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित एक गिरमिटिया अनुभव को । श्री गंगा प्रसाद -  ये 1916  में फीजी आए थे। लिखते हैं- ‘अपनी अम्मा सुगमा और पिता सोमई के साथे हम जहाज पर आया रहा । हमें बहुत डर लगत रहा और मैंया बहुत डांटत रही कि बोट में चुप्पे बैठो। मैया भी कांपत रही जब बहुत देरी तक बोट पानी में रहा। ऊ सोचे कि हम लोग कुछ ही दूर पर जात रहिन लेकिन जब दिन से रात होवत रहा और फिर से दिन से रात तो मैया घबरात रही कि  ई का होवत  है और केतना दूर जाए के है। बप्पा धीरज धरात रहा और थोरा याद है बोले कि तुम काहे के डरत हौ, जब पैसा कमईहो तो डर सब भाग जई ।’

फीजी में गिरमिटयों के हालात बदलने में गाधी जी का बहुत हाथ रहा । गांधी जी के आदेश पर मणिलाल फीजी आए थे। सी.एफ. एन्ड्रूज भी गांधी जी की रूचि के चलते फीजी में गिरमिटियों की दशा सुधारने के लिए फीजी आए। वर्ष 1935 के शांतिदूत में ही श्री मणिलाल का एक पत्र छपा है जिसमें प्रवासियों को धर्ममार्ग पर प्रेरित करने वाली पुस्तक के लिए शुभकामना संदेश है। साथ ही एक ब्रिटीश प्रमुख व्यक्तित्व की भारत यात्रा का उल्लेख है जो भारत जा कर पुणे में गांधी जी को मिला और फीजी की स्थितियों से गांधी जी को अवगत कराया। 

बालिवुड फिल्मों , कलाकारो आदि के संबंध में शांतिदूत किसी भारतीय पत्रिका जैसा ही है। प्रत्येक अंक में फिल्मों की समीक्षा, फिल्म कलाकारो के जीवन के बारे मे किस्से कहानियां छपते हैं। दीवाली अंक का एक विशेष आकर्षण किसी फिल्मी सितारे का रंगीन पोस्टर होता है। वर्ष 1935 के अंकों में भारतीय फिल्मो के विज्ञापन हैं। जिससे स्पष्ट हैं कि फीजी में रहने वाले भारतीयों  के लिए वर्षों से मनोरंजन का प्रमुख माध्यम बालिवुड है। 
इसके सतत प्रकाशन के लिए फीजी टाईम्स बधाई का पात्र है। जबकि अन्य अखबार बंद होते चले गए शांतिदूत चलता रहा । इसका कारण फीजी टाईम्स का प्रबंधन है जिसने केवल व्यावसायिक लाभ को ही ध्यान में नही रखा बल्कि हिंदी के प्रचार - प्रसार को मिशन बना कर  निरंतर निकालते रहे।

कुल मिलाकर डायसपोरा पत्रकारिता में शांतिदूत का विशेष महत्व है। फीजी में रहने वाले भारतीय समाज के आशाओं - अपेक्षाओं , आशंकाओ, रूचियों और सरोकारों को शांतिदूत ने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया । इस कार्य के लिए शांतिदूत की संपादकीय टीम ने हिंदी पत्रकारिता की गौरवशाली परंपरा का पालन किया । इस संदर्भ में प. गुरूदयाल शर्मा फीजी में हिंदेी पत्रकारिता  के भीष्म पितामह हैं। फीजी में भारतीय समाज विशेष रूप से हिदी समाज की धड़कने इसमें सुनाई पड़ती है। इनकी शब्द साधना और तपस्या को हम सब का प्रणाम।--

मुझे भाषा से इश्क है - जोगिंदर सिंह कँवल

जोगिंदर सिह कँवल फीजी में हिंदी लेखन के भीष्म पितामह हैँ। 88 वर्ष की आयु में  चहल - पहल महत्वाकांक्षाओं से दूर बा की पहाड़ियों में साहित्य  साधना में रत हैं। जीवन के इस लंबी दौड़ -धूप और यात्रा मे उन्होंने अपनी मुस्कान नहीं खोयी हैसाहित्यकारों को सामान्य रूप से मिलने वाली सांसारिक असफलताओं के कारण उनमें कोई  कटुता नहीं आई उदासीनता और निराशा तो उनसे कोसों दूर है। बात - बात पर ठहाके अपनी कवियत्री पत्नी अमरजीत कौर के साथ वे निरंतर जीवन और भाषा के सत्यों का अन्वेषण कर रहे हैं। हिंदी के 4  उपन्यास,  3   काव्यसंग्रह फीजी के हिंदी लेखकों की कविताओं कहानियों  और निबंधों के संग्रहअपना कहानी संग्रहअंग्रेजी में एक उपन्यास याने वे पिछले 40 सालों से लगातर लिख रहे हैं ।  उनसे मिलकर मुझे  हिंदी के लेखक विष्णु प्रभाकर रामदरश मिश्र और प्रभाकर श्रोत्रिय की याद आती है। जिनकी कलम को उम्र की आंच ने गला नहीं दिया बल्कि जिन्होंने अनुभवोे के प्रकाश में दुनिया को और बारीकी से देखा उसकी सुंदरताओ और पल-पल परिवर्तन के स्वभाव को समझा जमीन की खुशबू को महसूस किया और क्षितिज के उस पार के अबूझे भविष्य को जन- जन के सामने प्रस्तुत किया। उनका पहली पुस्तक 'मेरा देश मेरी धरती' 1974 मेें प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक याने  40 वर्ष से वे निरंतर साधनारत हैं। इतिहास को खंगालते हुएइतिहास के निर्जीव तथ्यों में अपनी रचनात्मकता से प्राण फूंक कर जीवंत खिलंदड़ी कहानियोंकविताओंउपन्यासों को सृजित करते हुए …..

 फीजी में आने के कुछ दिनोंं के बाद मेरी कँवल जी से फोन पर बात हुई जब आप किसी वरिष्ठ लेखक से बात करते हैं तो आमतौर पर पाते हैं कि वह अपनी वरिष्ठता याने आयु और ज्ञान के बोझ से दबा होता है या आपको दबाना चाहता है। उम्र उसे तल्ख बना देती है । वो आसमान में बादलो को इतनी बार आते - जाते देख चुका होता है कि  बरसात की संभावना उसमें उत्साह पैदा नही करती । पर ये तो अलग थे । खुशमिजाज हर बात  में सकारात्मकता देखने वाले सबको प्रोत्साहित करने वालेआशावादी । लाटुका में ( फीजी के पश्चिमी क्षेत्र) में अध्यापकों की  एक कार्यशाला  18 सितंबर को थी। मैं राजधानी सुवा ( मध्य क्षेत्र )से लाटुका गया तो कँवल जी के घर जाने का कार्यक्रम बनाया ।  मेरे साथ पत्नी सरोज शर्मायुनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफीक की श्रीमती इंदु चन्द्रा और शिक्षा विभाग के अधिकारी थे। लाटुका से बा का रास्ता बहुत सुंदर है । चारो और पहाड़ गन्ने के खेत और हरियाली । यहां सुवा ( फीजी की राजधानी) की तरह निरंतर बरसात नहीं होती रहती । अगर आपको बताया जाए कि यहां बहुत बार सूखा रहता है तो आप आश्चर्य करेंगे कि समुद्र  के इतनी पास और सूखा। कँवल जी के उपन्यास सवेरामें इस बात का जिक्र आता है कि सूखा होने पर अंग्रेजो के  अत्याचार बढ़ जाते थे। बा के रास्ते में चौराहे पर मूर्तियां बनी हुई हैं जहां अंग्रेजों को  किसानो को कोड़े मारते हुए  गन्ने के खेतोें में काम करवाते हुए दिखाया गया है।  बा पहुंचे तो देखा कंवल जी का घर हिल व्यू पर है। कुछ भटकाव के बाद पहुंचे तो कंवल जी की प्रसन्नता का पारावार नहीं था । उन्होंने और उनकी कवियत्री पत्नी अमरजीत ने स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी। खीर और पंजाबी पकोड़े । खीर खिलाने के साथ ही कँवल जी ने अमीर खुसरो की खीर संबंधी पंक्तियां सुना दी। माहौल खुशगवार हो गया था।  हालचाल पूछने के बाद  कँवल जी से फीजीसाहित्ययहां का जीवन ,  जीवन शैली के बारे में बात हुई।   नीचे दिए चित्र में-
    श्री जोगिंदर सिंह कंवल व उनकी पत्नी अमरजीत श्रीमती सरोज शर्मा को पुस्तकें भेंट करते हुए





बातचीत शुरू हुई और मैंने पूछा- कब लिखना शुरू किया । जवाब मे वही खिलंदड़ापन और विनम्रता । मैं लिखता - विखता कहा हूंं। मुझे तो भाषा से इश्क है। फिर कहते हैं सुनो पहली कविता अमरजीत ( पत्नी)  के बारे में लिखी थी-
 मैं बेड़े दा माली तू गलियां दी रानी ,
वाह वाह फेंका सदरां दा पानी,
 रही युगां तू दबी मेरी प्रीत कंबारी,
  मेरी कविता बन गयी ,
 तेरी अलख जवानी -
 अमरजीत जी मजाक में कहती हैं मै तो तब तक आपको मिली नहीं थी ये कविता किसी और पर लिखी होगी। कँवल जी के प्रिय लेखकों मे अमृता प्रीतमफैज़ अहमद फैज़  रहे हैं।  फीजी के वरिष्ठ
 साहित्यकार कमला प्रसाद मिश्र उनके प्रिय मित्र थे। उन्होंने  पचास के दशक में  पंजाब में पढ़ाई की थी । वे अर्थशाश्त्र में एम.ए है।  स्कूल में उस समय पंजाबी और उर्दु पढ़ाई जाती थी  । परंतु डी.ए.वी कालेज में पढ़ने के कारण वे हिदी भी पढ़ सके। खालसा कालेज में पढाने  के कारण वे पंजाबी से भी जुड़े रहे । भगवान सिंह जी की प्रेरणा से जब हिंदी में लिखने लगे तो प्रारंभ में मुश्किलें आई। परंतु पत्नी अमरजीत हिंदी की अध्यापिका थी । वे मदद करती । इधर हिदी के पढ़ने वालो की संख्या कम होने के कारण वे अंग्रेजी में लिखने लगे। अपने उपन्यास सवेराका अनुवाद द मार्निंगके रूप में किया । नब्बे के दशक में उन्होंने द न्यू इमिग्रेंटउपन्यास लिखा ।  जो प्रवास के कारण नई पीढ़ी के पति -पत्नी में आए मतभेदों को प्रस्तुत करता है।
  लेखन के लिए उन्हें सबसे अधिक प्रेरणा भारत के सत्तर के दशक में उच्चायुक्त रहे भगवान सिंह से मिली । भगवान सिंह फीजी में बहुत लोकप्रिय थे। वे भारतीय हिंदी और संस्कृति के सच्चे पोषक थे।   रेडियो पर हर हफ्ते उनके प्रसारण होते थे जिसे हजारोेंे लोग बड़े चाव से सुनते थे। फीजी आजाद हो चुका था। नया देश और सुनहरा भविष्य सबको दिखाई दे रहा था। गिरमिट के नाम पर भारतीयों पर हुए अत्याचारोें की याद अभी ताजा थी। गिरमिटियों की आखिरी पीढ़ी अभी जीवित थी।   पर उनकी दर्द भरी दास्तान का दस्तावेजीकरण ( documentation ) अभी नहीं हुआ था। भगवान सिह के कहने से कँवल जी में यह प्रेरणा जाग्रत हुई । उन्होंने तोताराम सनाढ्य की किताब फीजी में मेरे 21  वर्ष’  पढ़ी। वह रौंगटे खड़े कर देने वाली पुस्तक थी । जो लोग पूछते हैं लिखने का क्या प्रभाव होता है उन्हें तोताराम सनाढ्य की पुस्तक और  उसके प्रभाव का अध्य्यन करना चाहिए। तोताराम सनाढ्य ने अपने संस्मरण बनारसी दास चतुर्वेदी को सुनाए थे। चतुर्वेदी जी ने उसे पुस्तक का रूप दिया । पुस्तक के प्रकाशन के साथ ही भारत में गिरमिट प्रथा के खिलाफ जबर्दस्त जनमत बन गया  और अंतत :  गिरमिट प्रथा समाप्त हुई । कँवल जी उस दर्द भरे इतिहास को उसके मानवीय परिप्रेक्ष्य  में प्रस्तुत करना चाहते थे।  उन्होंने गिरमिटियों के इतिहास पर रिसर्च करनी शुरू की । इसमें उन्हे सबसे अधिक मदद मिली- आस्ट्रेलिया के लेखक श्री के.एल.गिलियन की किताब से । गिलियन ने इस विषय पर काफी रिसर्च की थे । गिलियन इस संबंध मे रिसर्च करने भारत इंगलैण्ड और आस्ट्रेलिया भी गए।  कँवल जी बताते हैं कि इस संबंध में उनकी चर्चा फीजी के प्रमुख विद्वानों सुब्रामणिब्रजलाल सत्येन्द्र नंदनमोहित प्रसाद  से होती रहती थी । लेकिन वे केवल किताबी रिसर्च से संतुष्ट नहीं थे । वे गांवो मे ब्याह - शादी या अन्य समारोहो मे जाते तो पाते कि बड़े - बूढ़े गिरमिट के दिनो की बात कर रहे हैं। और यगोना ( फीजी शराब) पीने के बात तो फिर जो महफिल जमतीतो यादें फीजी की बरसात की तरह  उमड़ आतीँथमने का नाम ना लेती । कँवल जी ने वहां से किस्से बटोरने शुरू किए ।  उनका कहना है कि उनका उपन्यास सत्य घटनाओं से भरा है उन्होंने तो केवल घटनाओं को  एक सूत्र में पिरोने का काम किया है।
सवेराउपन्यास मे भारत से फीजी आए भारतीयों की भारत में परिस्थितियां फीजी लाने मे झुठ- कपट बेईमानी का हाथ,  अंग्रेजोंकोलम्बरोंसरदारों की कारस्तानियां को प्रस्तुत किया गया है । इसमे निरीह भारतीय मजदूरो के साथ अमानवीयपशुओं  जैसे बर्ताव का मार्मिक वर्णन है । उन दिनों भारतीयों की कोड़ो और जूतो से पिटना कोई ऐसी घटना नही थी जो कभी एक बार होती थीबल्कि यह रोज होने वाली घटना थी। घर से हजारों किलोमीटर दूर समुद्र में बिना माझी की  एक छोटी नावलहरों के थपेड़े खाती... अपनी नियति को झेलती... । उसे पता नहीं कि भारत  में उसका परिवार बूढ़े माता -पिता  किस हालत मे हैवह कभी मिल पाएंगे अथवा नही ! उसकी मौत  समुद्री जहाज पर होगी या फीजी पहुंचने के बाद वह ज्यादा काम करने से मर जाएगा या बीमारी से मुहँ खोलने पर उसे जेल मे ठूंस दिया जाएगा या विद्रोह करने पर हत्या कर पेड़ से लटका आत्महत्या का मामला बना दिया जाएगा किसी भी महिला की  अस्मिता सुरक्षित नहीं थी । खेतों में काम करती  ये औरतें कभी भी सरदारओवरसियर या अंग्रेज अधिकारी का शिकार बन सकती थी। सवेरा' 1880 से शुरू होता है और 1920  में गिरमिट प्रथा की समाप्ति की खबर से समाप्त होता है । इतिहास का यह लोमहर्षक कालखंड जोगेन्द्र सिंह  कँवल ने ‘ सवेरा’  उपन्यास  में  बडे़ ही संवेदना और विज़न के साथ दर्ज किया है।
उपन्यास की खास बात है,  पात्रों का चरित्र चित्रण और कँवल जी की उदात्त दृष्टि । उपन्यास के दो महिला पात्र जमना और शांति की कहानी भारतीय महिलाओ के त्यागसंघर्षप्रेम समर्पण और अदम्य साहस की कहानी है। जिस- तिस की बुरी नजरों की पात्र बनी भारत की बालविधवा जमना परिस्थतियों का शिकार बन फीजी पहुँच जाती है। पर फीजी में उपन्यास के मुख्य पात्र अमर सिंह से संपर्क में आऩे के बाद उसके जीवन में बड़ा परिवर्तन आता है और वह अपनी जान पर खेलकर अमरसिह की जान बचाती  है और आखिर में पुरूष पात्र जो  चाह कर भी ना कर पाए वह करने का साहस दिखाती है और अत्याचारी अंग्रेज अधिकारी की महिलाओं से ऐसी पिटाई करती और करवाती है कि वह दुष्ट अपमान के चलते  फीजी छोड़कर भाग जाता है। लेखक की दृष्टि इतनी उदात्त है कि छूआछूत में यकीन रखने वााले  पंडित परमात्मा प्रकाश को सद्दबुद्धि देता है और दलित पात्र कर्मचन्द और मुसलमान रहीम की मानवीयता को सशक्त रूप से प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार उपन्यास का नायक जिस प्रेमिका को भारत छोड़कर आ गया था । वह नायक की प्रेरणा और प्रेम पा स्वाधीनता सेनाानी बन जाती है।  पूरा उपन्यास विडंबनाओँकुरीतियोंदुर्बलताओं द्वेष से ऊपर उठकर मानवता का सशक्त दस्तावेज बन गया है।
कँवल जी गिरमिटियों के इस उपन्यास का चित्रण करते हुए गिरमिटिया काल पर नहीं रूके।  सामाजिक - राजनैतिक जागृति और 20वीं सदी के नागरिक होने के नाते अपने अधिकारों को लेकर भारतीयों के संघर्ष को उन्होंने अगले उपन्यास  करवट'  प्रस्तुत किया। 



'धरती मेरी माता’  उपन्यास का पहला संस्करण 1978  में प्रकाशित हुआ दूसरा संस्करण 1999 मंे।  दूसरे संस्करण की भूमिका में वे लिखते हैं - 'कुछ लोग कहते हैं कि वक्त रूकता नहीं। वह आगे ही बढ़ता है लेकिन अपनी इस रचना को पढ़कर मुझे महसूस होने लगा कि जैसे वक्त पिछले इक्कीस सालो से एक ही स्थान पर ठहरा हुआ है। वक्त की घड़ी की सुईयां एक ही जगह पर रूककर खड़ी है। जमीन की जो समस्याएं भारतीय किसानों के लिए वर्षों से पहाड़ बनकर खड़ी हैंवे आज भी उसी तरह सिर उठाए खड़ी हैं। '

'धरती मेरी माता’  उपन्यास मे फीजी मे भूमि संबंधी कानूनों की समस्या को उठाया गया है और इस संबंध मे भूमि के साथ किसानों के गहरे - आत्मीय और मां - बेटे जैसे संबंध  को रेखंकित किया गया है। कँवल जी ने यह कथा बा के पास के ऐसे गाँव के किसान की कहानी के माध्यम से कही है जिसमे उसकी जमीन  ले ली जाती है। उसकी इच्छा है कि उसके मृतक शरीर को उसी जमीन मे जलाया जाए और वो अपनी पीड़ा इस तरह व्यक्त करता है ‘  यह काूनन भी कितना अंधा होता है। जो जमीन में हल चलाता है और इस मिट्टी से सोना निकालता हैउसका पक्ष नहीं करता । इतने साल हम इस मिट्टी े में मिट्टी होते रहे मगर ये खेत फिर भी पराये कहलाते हैं ।  अगर विधाता ने हमारे भाग्य मे यहां भी उजड़ना और ठोकरें खाना ही लिखा है ऊपर वाले की मर्जी। ‘  'धरती मेरी माताउपन्यास विचार और संवेदना का सशक्त मिश्रण है। यह उपन्यास फीजी के पाठ्यक्रम का भी हिस्सा है।
कँवल जी सशक्त कवि है। उन्होने फीजी के कवियो के संकलन  का संपादन किया है और फीजी की कविता शक्ति को एक स्थान पर प्रस्तुत किया है। उनकी अपनी कविताएं अपने समय का आइना हैं। 1987  के कू याने विद्रोह के कुछ दिन बाद शांतिदूत में प्रकाशित एक कविता उनके काव्य कौशलसंवेदन शक्ति और हिम्मत की कहानी कहती है।उन दिनों  राजनीतिक अस्थिरता चरम पर थी। देश में अशांति थी हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में  कंवल जी की प्रकाशित कविता उनके साहस और राजनीतिक परिस्थितियो के सटीक आकलन का प्रमाण हैं।  देखिए-

जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते संघर्ष करते लोग,कभी रोते कभी हंसतेये डर डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती उम्मीदों की हलचलकभी बनते कभी टूटतेदिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थतियों के बनते रहे पहाड़भविष्य उलझा पड़ा है कांटे - कांटे आज
चेहरों पर अंकित अबपीड़ा की अमिट प्रथाहर भाषा में लिखी हुई यातनाओं की कथा
जोशउबाल व आक्रोशछाती में पलटे हर दमचुपचाप ह्रदय में उतरते सीढी सीढी गम
दर्द की सूली पर टंगाकोई धनी है या मजदूरहै सब के हिस्से आ रहेज़ख्म और नासूर

कँवल जी ने 1983 के विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लिया था। वे   सम्मेलन की भीड़ को याद करते हैं । कहते हैंयद्यपि हमारे स्थान आरक्षित थे परंतु वहां भीड़ मे ं हमारे लिए बैठने का कोई स्थान  नहीं बचा था । भारत से हिंदी के सैंकड़ो प्राध्यापक वहां उपस्थित थे। वो तो भला हो सुरेश ऋतुपर्ण का कि उन्होंने पहचान लिया और स्थान दिलवा दिया । उन्हेी की तरह की कुछ यादें पंडित कमला प्रसाद मिश्र की भी हैं जिन्होंने तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन मे भाग लिया था और उन्हें वहां सम्मानित भी किया गया था।  कँवल जी कहते हंैं कि  उन्हें भारत जाने का लाभ यह हुआ कि सम्मेलन के पश्चात दिल्ली के सप्रू हाऊस में उनकी पुस्तक  सवेराका लोकार्पण हुआ । कार्यक्रम का आयोजन अमरनाथ वर्मा ,  हिंदी बुक सेंटर  द्वारा  किया गया था।  कार्यक्रम में महीप सिंह और दिल्ली के बहुत से प्रमुख लेखक उपस्थित थे। कँवल जी के मन में उस समय की यादें अभी तक ताजा हैंं। अमेरिका में आयोजित विश्वहिंदी सम्मेलन में कँवल जी को सम्मानित किया गया था पर उम्र के तकाज़े और भीड़- भाड़ और समारोहों से दूर रहने की अपनी आदत के कारण वे नही गए। उनकी पत्नी भी फीजी की महत्वपूर्ण कवियित्री हैं। हाई कमीशन उनका नाम 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में सम्मान के लिए बनी प्रस्तावित सूची में भारत भेजना चाहता था। परंतु पति - पत्नी का कहना था वे इस आयु में भारत जाने में और ऐसे समारोहो में भाग लेने में समर्थ नहीं हैं। उन्होंने किसी और विद्वान का नाम भेजने की सलाह दी। ऐसी निस्पृहता और अनासक्ति और लेखन के साथ ऐसी प्रतिबद्धतानिष्ठा और प्रेम ही उन्हें विशिष्ट बनाता है।

जिस तरह से प्रेमचंद अपने समाज की एक - एक समस्या को समझ ,  उसको बारीकी से पकड़ उपन्यास लिखते हैं उसी प्रकार कँवल जी की पकड़ अपने देश और समाज  की नब्ज पर है। आपको अगर फीजी को समझना है तो सवेरा करवट धरती मेरी माता जैसे उपन्यासों को पढ़नाजानना और  समझना आवश्यक है। ये उपन्यास नहीं है ,यह पिछले 150 वर्षों का फीजी का रचनात्मक इतिहास है।





गिरमिट प्रथा की समाप्ति - भारत का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम



सरकार कुछ भी कहे , इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा  सरकार की सहमति और भागीदारी के बिना  कभी की समाप्त हो गई होती। इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहां से गिरमिट मजदूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है। भारत की  ंअंतरआत्मा  दुर्भाग्य से  बहुत दिनों से सो रही थी।  अब उसे इस समस्या की विराटता का अनुभव हुआ है। और मुझे कोई संदेह नहीं है कि वह अपने को अभिव्यक्त किए बिना चैन नहीं लेगी। मैं सरकार से कहूंगा कि हमारी भावनाओं की अवहेलना ना करें। ‘ गोपालकृष्ण गोखले , 4 मार्च , 1912 भारत की Imperial legislative Council में. 

भारत ने 1947 में आजादी प्राप्त की ।  यह माना जाता है  कि 1857 की क्रांति  भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था।  मेरे विचार से  लाखों भारतीयों को शर्तबंदी की प्रथा से निकालने वाला , उन्हें खुले आकाश के नीचे सांस लेने का अधिकार देने वाला, जंजीरों से मुक्त करने वाला, लाखो भारतीय अबलाओं को घिनौने जीवन से मुक्त करने वाला गिरमिट समाप्ति का आदेश देश का दूसरा स्वतंत्रता संग्राम था। इससे भारत भौगिलिक रूप से तो  आजाद नहीं हुआ पर विदेशों मे रहने वाली लाखों भारतीय संतानों को अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करने का , स्वतंत्र जीवन जीने का अवसर मिला । इस महत्वपूर्ण व ऐतिहासिक उपलब्धि के शताब्दी समारोह  के अवसर पर इसके  विभिन्न आयामों और गिरमिट समाप्ति की यात्रा की चर्चा करना जरूरी है। 

यह वर्ष गिरमिट की समाप्ति का शताब्दी समारोह है। मार्च 2017 में औपचारिक रूप से गिरमिट प्रथा  समाप्त हुई थी।  इस अवसर को  सौ साल पूरे होने का आए ।   इस अवसर पर देश -विदेश में कई कार्यक्रम कई किए जा रहे हैं। फीजी में मजदूरों को लाने वाले  आखिरी जहाज सतलुज V के आने का शताब्दी समारोह 2016 में धूम-घाम से मनाया गया । इसी प्रकार हाल में ही फीजी में गिरमिट  शताब्दी समारोह के चलते एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें देश -विदेश के विद्वानों / लेखकों ने भाग लिया  । इसी कड़ी में त्रिनिडाड में भी एक सम्मेलन आयोजित किया गया है । इसी तरह भारत में भी प्रवासी भारतीयों की संस्था अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद की ओर से एक भव्य कार्यक्रम आयोजित किया जा रहा है। इन सब कार्यक्रमों का क्या महत्व है? शताब्दी समारोह हो ना हो क्या फर्क पड़ता है? यह कौन सा डायसपोरा है ?  इस प्रथा के समाप्त करने के लिए किन महापुरूषों ने काम किया ? लाखों भारतीयों के जीवन को नर्क बनाने वाली इस प्रथा का खत्म होने क्यों जरूरी था और कैसे खत्म हुई ? यह संघर्ष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम मे क्या महत्व रखता है। इन सब प्रश्नों पर इस लेख में विचार किया गया है। 

लाखों भारतीयों को गुलामी में ठेलने वाले , कोड़ो और जूतों की मार खिलाने वाली , महिलाओं की अस्मिता से खिलवाड़ करने वाली,  भारतीयों के किसी प्रतिकार को अपराध कह जेल में ठेलने वाली ,  हजारों भारतीयों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाली , अमानवीयता की इस घिनौनी दास्तान को समाप्त करने में महात्मा गांधी के साथ गोपाल कृष्ण गोखले, पं मदन मोहन मालवीय, रविन्द्र नाथ टैगोर,   सी.एफ. एंड्र्यूस , सरोजनी नायडू , बनारसी दास चतुर्वेदी ,  और तोताराम सनाढ्य  जैसे लोगों के भागीरथ प्रयत्न  रहे हैं।  भारतीय  अस्मिता के इस संघर्ष और भारतीय पुनर्जागरण के इस शंखनाद की इस यात्रा को समझना बहुत जरूरी है। 

प्रवासी भारतीयों का यह सौभाग्य था कि गांधी जी एक प्रवासी के रूप में दक्षिण अफ्रीका गए और उन्हें प्रवासी भारतीयों के जीवन को निकट से देखने का , उनके कष्टों और प्रताड़नाओ में सहभागी बनने का , उनके संघर्षों की अगुआई करने का मौका मिला । बैरिस्टर होने के कारण अंग्रेजी भाषा और कानून पर उनकी पकड़ थी । उनकी नेतृत्व क्षमता ऐसी थी की बीसवीं शताब्दी में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं माना जाता । उनकी संघर्ष यात्रा की भूमि दक्षिण अफ्रीका बना जहां उन्होंने , रंगभेद और गिरमिट के नाम पर गुलामी के संघर्ष का नेतृत्व किया । उन्हें पता था कि ट्रांसवाल और नेटाल की यह लड़ाई दक्षिण अफ्रीका की भूमि पर नहीं लड़ी जाएगी। 1896 में पहली बार गांधी जी ने भारत में आकर कांग्रेस के अधिवेशन में यह मुद्दा उठाया । इसको राष्ट्रीय और अंतर्राष्टॅीय विस्तार दिया । धीरे -धीरे भारत के स्वतंत्रता संग्राम में गिरमिट की समाप्ति का मुद्दा एक बड़े प्रश्न के रूप में उभरा । 

फीजी की कहानी इस पूरे परिदृश्य में विशेष है । फीजी को गिरमिट प्रथा की दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में लाने का काम मुख्य रूप से श्री तोताराम सनाढ्य ने किया।  उत्तरप्रदेश के इस निर्धन और अर्धशिक्षित व्यक्ति ने स्वयं गिरमिट के पांच साल काटे थे। आरकाटियों की चालों का शिकार बन इनकी भर्ती हुई थी । कलकता में रोते -पीटते आदमी की कोई सुनवाई ना होने पर  जहाज में बैठा दिया गया। फीजी में जाकर इन्होंने  हर तरह के अत्याचार सहे पर पांच साल में गिरमिट समाप्त होने पर फीजी वासियों की भलाई और मुक्ति के लिए प्रयत्न किए । बेगुनाह भारतीयों पर होने वाले अत्याचारों से रक्षा करने के लिए किसी बैरिस्टर को भेजने की प्रार्थना करते हुए  उन्होंने गांधी जी को पत्र लिखा -
 हम लोग फीजी में गोरे बैरिस्टरों से अनेक कष्ट पा रहे हैं। ये गोरे लोग हम पर नाना प्रकार के अत्याचार करते हैं और हमारे सैंकड़ों पौंड खा जाते हैं। यहां पर एक भारतवासी बैरिस्टर की बड़ी आवश्यकता है। श्रीमान एक प्रसिद्द देशभक्त हैं , अतएव आशा है कि आप हमारे ऊपर कृपा करके किसी भारतवासी बैरिस्टर को यहां भेजने का प्रबंध करेंगे। इस विदेश में आपके अतिरिक्त कोई सहारा नहीं है, गांधी जी ने जवाब में लिखा - 
श्रावण वदी 8 , सं 1967 
आपका खत मिला है। वहां के हिंदी भाईयों की दुख की कथा सुनके मैं दुखी होता हूँ। यहां से कोई बैरिस्टर भेजने का मौका नहीं है। भेजने जैसा कोई देखने में भी नहीं आता है। जो इजा परे उसका बयान मुझे भेजते रहना। मैॆं यह बात विलायत तक पहुंचा दूंगा। । 
स्टीमर की तकलीफ का ख्याल मुझे बारबार यहां आता है। यह सब बातों के लिेए वहां कोई अंग्रेजी पढ़ा हुआ स्वदेशाभिमानी आदमी होना चाहिए  मेरे ख्याल से आवेगा तो मैं भेजूंगा । 
आपके दूसरे खत की राह देखूँगा। 
मोहनदास करमचंद गांधी का यथायोग्य पहुँचे। 
गांधी जी ने यह पत्र हिदी में लिखा हैं। गांधी जी ने तोताराम जी से प्राप्त  पत्र को कई अखबारों में प्रकाशन के लिए दे दिया । बैरिस्टर मणिलाल ने पत्र को इंडियन ओपिनियन में पढ़ा। वे उस समय मारिशस में गिरमिटियों के लिए काम कर रहे थे। उन्होंने गांधी जी के आदेश पर फीजी में आने का निर्णय किया । फीजी में आने पर उनका जबर्दस्त स्वागत हुआ । सैकड़ो लोग सड़कों पर उतर आए । फीजी आदिवासियों ने भी मणिलाल  का स्वागत किया । बैरिस्टर मणिलाल के आने से फीजी में नेतृत्वविहीन भारतीयों को नेतृत्व मिला । उनके तार गांंधी जी के दूत से जुड़ गए। भारतीयों का संगठन खड़ा हुआ । मणिलाल जी ने इंडियन सैटलेर नाम से एक अखबार भी निकालना शुरू किया । थोड़े दिन में मणिलाल इतने लोकप्रिय हो गए कि जब फीजी की संसद में  भारतीयों के प्रतिनिधित्व की बात आई तो मणिलाल जी के समर्थन में हजारों भारतीयों ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए । इस बीच ब्रिटीश सरकार ने गिरमिट प्रथा पर अध्य्यन के लिेए श्री मैकलीन और चिम्मनलाल की दो सदस्यीय कमेटी बनाई थी । यह कमेटी जब फीजी में आई तो गन्ना खेत के मालिकों ने मजदूरों को डराना -धमकाना शुरू किया था ।      तोताराम सनाढ्य ने एक घटना का उल्लेख किया है ‘ एक दिन क्या हुआ कि एक गोरे ओवरसियर ने एक भारतवासी को इतने घूंसे मारे कि उस के मुंह से खून गिरने लगा और उसके दो दांत भी टूट गए । उस दशा में दांतों को हाथ पर रख कर चिम्मनलाल जी के पास लाया और कुल हाल सुनाया । श्री चिम्मन लान जी ने उसे चिट्ठी देकर थाने में जाने को कहा । वह थाने को जा रहा था कि ओवरसियर साहब मिल गए और उन्होंने उसे खूब धमकाया और कहा सब्र करो चार दिन बाद चमनलाल चले जाएँगे, क्या चिम्मनलाल तुम्हारा बाप है? पांच साल के लिए हम तुम्हारा बाप है। कमीशन के जाने पर हम तुम्हारी सारी गर्मी निकाल देंगे, वह बेचारा इस धमकी में आ गया और चुप रह गया। ‘ दुख की बात है कि यह सब देखकर भी कमेटी ने गिरमिट को जारी रखने की सिफारिश की और मजदूरों के हाल में बेहतरी आई है , यह रिपोर्ट दी। यद्यपि इसके पश्चात सी.एफ. एड्रूयज और पीयरसन ने एक स्वतंत्र कमेटी के सदस्य के रूप में फीजी की यात्रा कर अपनी रिपोर्ट दी।

तोतााराम सनाढय इस बीच गिरमिट प्रथा के खिलाफ प्रचार करने के लिए भारत आ गए थे। उनकी मुलाकात प्रसिद्द पत्रकार बनारसी दास चतुर्वेदी से हुई । उन्होंने अपनी आपबीती श्री चतुर्वेदी को सुनाई । बनारसीदास जी के सहयोग से उनकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई , फीजी में मेरे 21 वर्ष , किताब भारतीय समाज को झकझोरने वाली साबित हुई। फीजी में बैरिस्टर मणिलाल को आमंत्रित कर , इंडियन एसोशिएशन की स्थापना कर , अपनी पुस्तक से हलचल मचाकर   तोताराम सनाढ्य ने जो काम किया है , उसके आधार पर उन्हें गिरमिट के खिलाफ फीजी के संघर्ष का अगुआ कहा जा सकता है। उन्होंने अपना शेष जीवन भी गांधी आश्रम में रहकर  सामाजिक कार्यंों मे बिता दिया  । तोताराम सनाढ़्य ने अपनी पुस्तक में कई और लेखों और पुस्तकों के संदर्भ दिए। जैसे उसी समय  एक और पुस्तक प्रकाशित हुई जिसके लेखक एक मिशनरी जे. ़डब्लयू .बर्टन थे , पुस्तक का नाम था Fiji of Today उस  पुस्तक में भी फीजी में भारतीयों की स्थिति  का दारूण चित्र है। इसी प्रकार  एक और महिला मिशनरी  कुमारी डडले जो फीजी रहकर आई थी , उनके लेखों े के अंशोों को भी तोताराम जी ने अपनी पुस्तक में   सम्मलित किया  । कुमारी डडले के  Modren Review में प्रकाशित अंश को उन्होंने प्रकाशित किया  । वे लिखती हैं-
‘ जब यह स्त्रियां डिपो पहुंच जाती हैं तो उनसे कहा जाता है कि जब तक तुम खाने का खर्च ना दोगी और दूसरी चीजों का खर्च ना दोगी तब तक तुम यहां से अपने घर नहीं जा सकती हैं। ये बेचारी कहां से दे सकती हैं। ये भीरू ह्रदय और डरपोक स्त्रियाां इस देश मे भेज दी जाती हैं और उन्हे यह भी नहीं मालूम होता है कि कहां भेज दी गई हैं। वे खेतों पर काम करने के लिए गूंगे जानवरों की तरह लगा दी जाती हैं। जो काम उन्हें दिया जाता है , यदि वे उसे ठीक तरह से नहीं करती हैं तो पीटी जाती हैं, उनपर जुर्माना होता है। यहां तक कि जेल भेज दी जाती हैं। खेतों पर काम करते -करते उनके चेहरे और हाव -भाव बदल जाते हैं। कुछ टूट जाती हैं, कुछ उदास हो जाती हैं, कुछ पीड़ीत , कुछ कठोर और डरावनी। उनके चेहरे मेरी नजरों में हमेशा घूमते रहते हैं। ‘ 

श्री जे.डब्लयू . बर्टन ने भी  अपनी पुस्तक Fiji of Today में दारूण कहानी का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं- 

‘ असभ्य और जवान ओवरसियर जोकि आस्टॅेलिया, न्यूजीलैंड के होते हैं, खूबसूरत हिंदूस्तानी स्त्रियों पर मनमाने अत्याचार करते हैं और अगर ये स्त्रियां मना करती हैं तो उन पर और उनके पति पर बहुत अत्याचार करते हैं। कभी -कभी दवाखाने के कंपाऊडर किसी भारतीय स्त्री को एक बंद कमरे में बुला लेते हैं और यह बहाना करते हैं कि आओ हम तुम्हारी डॉक्टरी परीक्षा करें, चाहे वह बेचारी विरोध करे और कहे कि मुझे कोई बीमारी नहीं , मैं नहीं जाना चाहती , पर तब भी बलात उसे कोठरी में ले जाते हैं फिर अपनी कामेच्छा पूरी करने के लिए अत्यंत असभ्यता के साथ उस पर पाशविक अत्याचार करते हैं अथवा उसे इसलिए तंग करते है कि वह एक ऐसे भारतवासी के विरूद्ध गवाही दे दे जिससे कि उनकी कुछ अनबन हो गई है। सुना गया है कि स्त्रियां वृक्षों में एक कतार से बाँध दी गई है और उनके छोटे-छोटे बच्चों के सामने उन पर कोड़े फटकारे गए हैं। ‘
वो आगे लिखते हैं‘ जिस स्थिति में भारतीय रह रहे हैं उसमें और गुलामी में ज़रा सा ही फर्क है। ज्यादातर कुली इसे साफ तौर पर नर्क कहते हैं। ….जब तक कंपनी का काम मजदूर लोग भली प्रकार से करते रहते हैं , तब तक कंपनी वालों को कोई फर्क नहीं पढ़ता । और यही बात कंपनी के खच्चरों और बैलों के संबंध में कही जा सकती है। ‘
‘अगर किसी आदमी में थोड़ी भी दया है तो उसके लिए सबसे कष्टदायक और दुख और विषाद से भरने वाली जगह कुली लेन है।’ 


इस बीच अपना सम्मान बचाने के लिए जान की बाजी लगाने वाली फीजी की   महिला कुंती की चारों तरफ चर्चा  हो रही थी । 
तोताराम सनाढ्य , सुश्री डडले, श्री जे. डब्लयू . बर्टन , एंड्रूयज कमेटी की रिपोर्ट ने भारतीय चेतना को झकझोर दिया । प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी सुश्री सरोजनी नायडू ने इलाहबाद में मार्च 1916 में यह भाषण दिया -

‘मैं एक महिला हूँ , चाहे भारत की माँ - बहनों का अपमान देखकर आपकी आत्मा जाग्रत नहीं होती , पर मेरी होती है, स्त्री होने के नाते मेरे सम्मान पर कोई चोट करता है तो मुझे पीड़ा होती है। हमारे लिए सबसे गर्व की स्मृति वह है , जब सीता के सतीत्व को चुनौती दी गई  और उसने धरती माता से प्रार्थना की वह धरती में समा जाना चाहती है और धरती माँ ने उसको अपनी गोद में ले लिया। मै उन महिलाओं की तरफ से बोलने के लिए आयी हूँ  जिसके सबसे गौरव का क्षण वह है जब चितौड़ की रानी पद्मनी ने अपने सम्मान के लिए चित्ता पर चढ़ जाना बेहतर समझा। मैें उन स्त्रियों की तरफ से बोलने के लिए आई हूँ जो मृत्यु के द्वार से अपने पति को वापिस खींच लाई । मूक प्यार से उसमें प्राण फूंक डाले। मैें ऐसी ही एक मारी गई स्त्री के नाम पर अपील करती हैं, जैसा Mr Andrew  ने बताया जिसके भाईयों ने उसका सतीत्व , परिवार और धर्म को अपना खून देकर बचाया।’

वर्ष 1912 में श्री गोपालकृष्ण गोखले ने गिरमिट की समाप्ति के लिए संसद में प्रस्ताव रखा । यह प्रस्ताव ऐतिहासिक माना जाता है और  इसे श्री गोपाल कृष्ण गोखले की भारतीय राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण देन माना जाता है। इस  प्रस्ताव में गिरमिट के सभी पक्षों को व्यवस्थित , प्रभावशाली रूप से तर्कों और तथ्यों के साथ रखा गया। यह प्रस्ताव दिल और दिमाग का सुंदर संयोजन है।  - 4 मार्च , 1912 को भारत की Imperial legislative Council में गिरमिट प्रथा समाप्त करने के लिए   रखे गए इस प्रस्ताव की मुख्य बातें निम्नलिखित थीं -

प्रस्ताव के प्रारंभ में श्री गोखले ने  गिरमिट की समाप्ति की अपील करने के छह कारण बताए- पहला, यह कि जो लोग इस प्रथा के अंतर्गत आते हैं, वह ऐसे दूर और अज्ञात जगह पर जाने के लिए हाँ करते हैं , जिसकी भाषा, संस्कृति , रीति  -रिवाज के बारे में उनको नहीं पता होता , ना ही उनका वहां कोई संबंधी व मित्र होता है , दूसरा - उनको ऐसे जमीन मालिक से बांध दिया जाता है , जो उन्हें नहीं जानता और ना वो उसे जानते हैंं , जिसको चुनने में उसकी कोई भूमिका नहीं है। तीसरा - वो जमीन मालिक के स्थान को छोड़कर स्पेशल परमिट के बिना कहीं नहीं जा सकते , चौथा - उन्हें जो काम दिया जाएगा वह करना ही होगा। यह पांच साल के लिए उनपर अनिवार्य है उससे निकलने का उनके लिए कोई रास्ता नहीं है, पांचवां , वो ऐसे  वेतन पर काम करने के लिए तैयार होते हैं , जो उस क्षेत्र में काम करने वाला मुक्त मजदूर की तुलना में कम है, कई बार तो बहुत ही कम है, छठा,  उन्हें ऐसे कानून के अंतर्गत डाल दिया जाता है , जिसके बारे में उन्हें  देश छोड़ने से पहले बताया नहीं जाता , जो उस भाषा में है जिसकी उनको कोई जानकारी नहीं है। किसी छोटी सी बात पर उन्हें कड़े श्रम और जेल की सजा दी जा सकती है। यह धोखाधड़ी , अपराध की बात नहीं किसी छोटी सी बात पर जैसे जरा सी लापरवाही , कोई शब्द , कोई इशारा उन्हें दो -तीन महीने के लिए जेल में ले जा सकता है। 
उन्होंने अपनी बात रखते हुए जोर देकर कहा-

‘मैं यहां कहना चाहूँगा कि यह एक राक्षसी प्रणाली है, जो अपने आप में अन्यायपूर्ण है, जो धोखाधड़ी और ताकत के गलत प्रयोग पर आधारित है, जो न्याय और मानवीयता की वर्तमान भावनाओं के खिलाफ है और जो देश इसको सहता है उसकी सभ्यता पर गहरा कलंक है। ‘
उन्होंने गिरमिट प्रथा के  इतिहास की बात करते हुए कहा- 
गिरमिट प्रणाली के इतिहास पर नज़र डालें तो तीन बातें साफ नज़र आती हैं- पहला , गुलामी प्रथा का 1833 में समाप्त होने पर उसके विकल्प के रूप में 1834  में इस प्रथा को शुरू किया गया । दूसरा, इस प्रथा के अंतर्गत गुलामी प्रथा में काम करे गुलाम भी काम नहीं करना चाहते थे । तीसरा, शुरू से ही इसके अमानवीय पक्ष के कारण इतनी समस्याएं आई कि ब्रिटिश सरकार को भी इसे बार - बार बंद करना पड़ा क्योंकि इसके  खिलाफ बहुत शिकायतें थी । श्री गोखले ने यह सवाल भी उठाया कि जिसे Fair Contract  कहा जा रहा है , वह क्या है ?  उन्होंने कहा कि इसे Fair Contract कहना अंग्रेजी भाषा का अपमान है। यह ऐसा Contract  है जो ऐसे दो व्यक्तियों के बीच हो रहा है कि एक पक्ष अशिक्षित , भोला -भाला और साधनविहीन है और दूसरा शक्तिशाली । शक्तिशाली पक्ष यह भी सुनिश्चित करता है कि दूसरे पक्ष को यह भी पता ना चले कि इस Contract में क्या लिखा है। उसे यह नहीं बताया जाता कि इसमें काम ना करने , या कम करने पर दंड है,जुर्माना है। उन्होंने Protocter of Imigrants और मजिस्टॅेट को गिरमिटियों की सुरक्षा  के लिए होने की बात को मजाक बताया   । उन्होंने मारिशस के एक मजिस्ट्रेट Mr Coombs  का वक्तव्य पढ़ा जो यह कहते हैं ‘ कि हम कुलियों को यह बताते थे कि काम तो उनको करना ही है , अगर खेत में करोगे तो उसके पैसे मिलेंगे , वर्ना जेल में जाकर मुफ्त में काम करना पढ़ेगा। ‘उन्होंने त्रिनिडाड की एक घटना का उल्लेख किया  जिसमें एक गर्भवती मजदूर महिला के पेट पर लात मारने पर एक ओवरसियर पर सिर्फ 3 पोंड जुर्माना किया गया जबकि किसी साधारण सी  हुक्मउदूली पर मजदूरों को तीन महीने की जेल सुना दी गई।

उन्होंने 100 पुरूषों पर 40 महिलाओँ को भेजने को अनैतिकता की जड़ बताया और महिलाओं की करूण स्थिति के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया। उन्होने गिरमिट मजदूरों की दशा का वर्णन करते हुए कहा कि  उनकी कहानी सुनकर कोई पत्थरदिल भी पिघल जाएगा। ऐसे भोले -भाले लोग जो अत्याचारों से तंग आकर चल देते हैं कि क्या पता समुद्र के बीच में से कोई जमीन का रास्ता हो जो उनके देश और गांव तक जाता हो!  रास्ते में उन्हें पकड़ कर सजा दी जाती है या जंगली जानवरों ने खा लेते हैं, या सर्दी - गर्मी और भूख से बदहाल होकर मर जाते  हैं।  श्री गोखले ने कहा इऩ गिरमिट मजदूरों की मृ्त्यु दर बहुत  अधिक है , बड़ी संख्या में आत्महत्याओं का उल्लेख करते हुए उन्होंने पूछा कि वे क्या परिस्थितियां हैं जिसमें किसी व्यक्ति को अपना ही जीवन समाप्त करना पड़ता है!  
उन्होंने अंग्रेज सरकार के निष्पक्षता और इस सारे में कोई भूमिका नही होने की बात पर सवाल उठाए और पूछा कि यह सारी प्रणाली किस की मर्जी से चलती है  ? कौन भर्ती करने वालों को लाईसेंस देता है ? कौन मजिस्ट्रेट नियुक्त करता है ? 
उन्होंने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा  ‘सरकार कुछ भी कहे , इस देश में सब यह समझते हैं कि यह प्रथा  सरकार की सहमति और भागीदारी के बिना  कभी की समाप्त हो गई होती। इस समय भारत ही एक ऐसा देश है जहां से गिरमिट मजदूर जाते हैं, भारत को इस अपमान का भागीदार क्यों बनाया जा रहा है। भारत की  ंअंतरआत्मा  दुर्भाग्य से  बहुत दिनों से सो रही थी।  अब उसे इस समस्या की विराटता का अनुभव हुआ है। और मुझे कोई संदेह नहीं है कि वह अपने को अभिव्यक्त किए बिना चैन नहीं लेगी। मैं सरकार से कहूंगा कि हमारी भावनाओं की अवहेलना ना करें। ‘ 
 यह प्रस्ताव बहुमत से अस्वीकृत हो गया । परंतु भारतीयों ने हार नहीं मानी और श्री मदन मोहन मालवीय ने 20 मार्च  1916  में गिरमिट प्रथा समाप्त करने संबंधी प्रस्ताव रखा । उन्होंने भर्ती करने वालों की धोखा - धड़ी और भोले -भाले लोगों को फसाने की  बात की । Contract के अन्यायपूर्ण होेने की बात की । विदेशों में उनके साथ आने वाली समस्याओं की बात की । इस संदर्भ में उन्होंने एंड्रयू और पीयरसन  की गैर -सरकारी   कमेटी की फीजी यात्रा का उल्लेख किया । स्वतंत्र रूप से फीजी गई एंड्रयूस  कमेटी लिखती है ‘  हम कुली लेन को पहली बार देखने के अऩुभव को नहीं भूल सकते । आदमियों और औरतों के चेहरे के भाव इस घोर पाप और अत्याचार की कहानी कह रहे थे। आसपास छोटे बच्चों को देखना तो स्थिति को और भी करूण बना देता है। एक खेत से दूसरे खेत जाते हुए निरंतर वही एक जैसा चेहरा और हाव-भाव । वही नैतिक रोग जो उनके दिल और दिमाग को खाए जा रहा था। —— ऐसा नहीं कि हमने अपने जीवन में विपत्ति और करूणा में पड़े लोगें को देखा नहीं पर फीजी में हमने जिन स्थितियों को देखा । वो हमारी सोच से बाहर थी। कुछ नई और ऐसी परिस्थिति जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। बेहिसाब पाप और अत्याचार की महामारी  से ग्रस्त पूरा समाज। ‘ विवाह की पवित्रता का यहां कोई मतलब नहीं है, … लड़कियां बेची और खरीदी जाती हैं। धार्मिक परंपरा से विवाह होने को कोई मान्यता नहीं है। भारत में आत्महत्या की दर जो दस लाख पर 45-65 थी वह वहां पर 926 है। एंड्रयूज कमेटी की रिपोर्ट से उल्लेख करते हुए श्री मालवीय ने  कहा कि क्या वजह है जितनी हत्याएं होती हैं , वे सब महिलाओं की होती हैं. और जितनी आत्महत्या होती हैं  , वह सब पुरूषो की होती है। उन्होंने कहा कि अब इस प्रथा की मरम्मत करने से काम नहीं चलेगा अब इसको जड़ से उखाड़ना पडे़गा। 

जिस संसद ने 2012 में गोखले के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था , उसने अनमने मन से मालवीय जी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया । प्रस्ताव की स्वीकृति की भाषा में आश्वासन तो था पर समयबद्धता नहीं थी 


 अक्तूबर , 1916 को मुंबई राज्य का कांग्रेस अधिवेशन बुलाया गया । इसके तीसरे दिन याने 23 अक्तूबर को गांधी जी ने अपने विचार हिंदी और गुजराती में रखे। उन्होंने लार्ड हार्डिंग के इस आधे -अधूरे आश्वासन को स्वीकार नहीं किया जिसमें कहा गया था कि वह महामहिम से विहित समय में In due course  गिरमिट प्रथा को समाप्त करने का आश्वासन ले लेंगे। 

गांधी जी ने अपने भाषण में कहा भारत आधे-अधूरे आश्वासन से संतुष्ट नहीं होगा, भारत ने अपनी लापरवाही से इस प्रणाली को लंबे समय तक सहा । अब समय आ गया है कि इस समस्या को हल करे। इसके लिए सफलता पूर्वक आंदोलन करेंगे। जनमत और प्रेस इसे तत्काल समाप्त करना चाहती है। यह मेरे द्वारा सत्याग्रह का विषय हो सकता है। अंतत : गांधी जी के सत्याग्रह और भारत में उभरते असंतोष को देखते हुए मार्च 2017 में गिरमिट प्रथा समाप्त की गई। 


संदर्भ -
  1. तोताराम सनाढ़्य - फीजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष - मुद्रण - हनुमंत सिंह राजवंशी, राजपूत एंग्लो ओरियंटल प्रेस , आगरा, प्रकाशक , भारती भवन , फीरोजाबाद , यू.पी 
  2. एंड्रूयज .सी.एफ. और डब्लयू.डब्लयू पीयरसन, फीजी में शर्तबंदी मजदूरों पर रिपोर्ट , एक स्वतंत्र जांच, इलाहबाद, 1916
  3. महात्मा गांधी , समग्र , वाल्युम 1-100 , प्रकाशन विभाग , भारत सरकार, नई दिल्ली
  4. लेजिस्लेटिव विभाग की कार्यवाही, भारत 1912
  5. लेजिस्लेटिव विभाग की कार्यवाही , भारत 1916
  6. Indian Naionalist and Indentured Imigration and Labour . 2014, Nehru Museum and Library.
  7. Gokhle Finest hour: persuading the Briitish to abolish indenture. WWW. sablokcity.com
  8. Speeches of Madan Mohan Malviya , Malivyamission.
  9. Indenture system and Mahatama Gandhi - Dr Yogendera Yadav , gandhiking-ning.com
10. Mr J.E.Burton - Fiji of Today.
11. Ms Dudley - In Modren Economic Review
12. Dr Brij Lal - Chalo Jahaji, On a journey through Indenture in Fiji , Division of Pacific and Asian History, Australian National University, 2000