फीजी में भारतीय मूल के लोगों का गौरवशाली और संघर्षपूर्ण इतिहास है। इन साधनविहीन भारतीयों ने, अपने जन्मस्थान से हजारों किलोमीटर दूर , समुद्र की गर्जना करती लहरों के सान्निध्य में और मूल रूप से जंगलों में रहने वाले अपरिचित मूल निवासियों के साथ रहकर तालमेल बिठाया , अंग्रेजों के अत्याचारों को सहा और अपने परिश्रम और कर्मठता से घने और बीहड़ जंगलो को हरे- भरे खेतों में बदल दिया। यह यात्रा बड़ी संघर्षपूर्ण रही है। इसमें इतनी कठिनाईयां, इतनी चुनौतियां हैं कि फीजी के गिरमिटयों की कहानी एक रोचक , लोमहर्षक परिदृश्य प्रस्तुत करती है। इस इतिहास को जानना - समझना भारत और उसके डायसपोरा के लिए बहुत आवश्यक है। इस गौरवगाथा को, उसके उतार - चढ़ाव को, उसकी चुनौतियों को उनकी भाषा में प्रस्तुत करना बहुत ही चुनौतीपूर्ण कार्य था। लेकिन दो - चार साल नहीं , दो - चार दशक नहीं बल्कि आठ दशक तक ऐतिहासिक घटनाओं, युद्दों, विद्रोहों, समस्याओं को प्रस्तुत करने का काम हिंदी भाषा में ‘शांतिदूत’ नामक साप्ताहिक हिंदी समाचार पत्र ने किया । वर्ष 2015 में 11 मई को साप्ताहिक शांतिदूत के 80 वर्ष पूरे हुए। शायद ही भारत से बाहर किसी हिंदी समाचार पत्र की इतनी आयु हो। शांतिदूत के इस गौरवशाली प्रकाशन का प्रवासी हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है।
शांतिदूत की शुरूआत की पृष्ठभूमि द्वितीय विश्वयुद्द की है। विश्वयुद्द के बादल मंडरा रहे थे। इटली की सेना युद्ध में उतर चुकी थी। उस समय अंग्रेजी समाचार पत्र फीजी टाईम्स छपा करता था । उसके जनरल मैनेजर थे श्री बाकर विश्वयुद्द में फीजी की जनता के सामने मित्र राष्ट्रों का पक्ष रखने और ब्रिटेन के पक्ष में जनमत तैयार करने के लिए चर्चाएं कर रहे थे। बैठकें इत्यादि आयोजित की जा रही थी। ऐसे ही एक बैठक में विचार आया कि स्थानीय लोगों को िमत्र राष्ट्रों के पक्ष मे विश्वयुद्द से जोड़ने के लिए क्यों ना हिंदी में अखबार निकाला जाए ? उसी बैठक में एक युवा मौजूद था जिसकी वर्षों से इच्छा थी कि फीजी में रहने वाले भारतीयों के लिए हिंदी में एक समाचार पत्र होना चाहिए । उसने मौके के महत्व को समझा और स्वयं को यह कार्य करने के लिए प्रस्तुत कर दिया । उसका नाम था पंडित गुरूदयाल शर्मा । परंतु अखबार की अपेक्षा केवल संपादन करना ही नहीं था। अखबार में समाचार संग्रह, चयन, प्रूफ रीडिंग, संपादन , ले - आउट , प्रस्तुति, वितरण सब अपेक्षित है। गुरूदयाल शर्मा ने यह सारा कार्य एक दो साल नहीं , दस -बीस साल नहीं , बल्कि अनवरत 48 साल तक किया ।
11 मई 1935 में शांतिदूत के प्रकाशन से हिदी का जो शंख बजा वह हुंकार आज भी ध्वनित हो रही है। गुरूदयाल शर्मा का जन्म १० दिसंबर 1913 को सुवा में हुआ था। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की पारी पैसिफिक प्रैस से शुरू की जहां वे हिंदी पत्र के सहायक संपादक बने । इन्होंने ‘वृद्धिवाणी’ जैसे नए पेपर की भी शुरूआत की । अंतत : 1935 में उन्होंने शांतिदूत के संपादक का कार्यभार संभाला और 48 वर्ष तक शांतिदूत के माध्यम से हिंदी पत्रकारिता की अनवरत सेवा की । वे प्रसिद्ध ऋषिकुल कालेज के संस्थापकों में से थे और बहुत सी सामाजिक गतिविधियों से जुड़े थे। वर्ष 1982 में उन्होंने सेवानिवृति ली । उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी ‘ Memories of Fiji 1887-1987 ’ ।
शांति दूत का नाम कैसे पड़ा होगा पहले इसको सोच लें ! यह विश्वयुद्द का समय था तो ऐसे समय में ब्रिटेन का पक्ष या मित्र राष्ट्रों का पक्ष ही शांति का पक्ष है , इसके लिए जनमत तैयार करना तात्कालिक प्रबंधन की दृष्टि रही होगी। 11 मई 1935 को लिखे पहले संपादकीय में श्री गुरूदयाल शर्मा पत्र की नीतियों को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - इस पत्र के द्वारा भारतीयों को समस्त संसार की जानकारी मिलती रहेगी जिससे हिंदी भाषा जानने वाली जनता अनभिज्ञ रहती है। वे लिखते हैं ' इस पत्र में भारत , इंगलैण्ड, चीन , जर्मनी के समाचार बेतार द्वारा प्राप्त किए जाएंगे, जो आज तक कोई हिंदी का अखबार नहीं कर सका है। लोक भलाई को स्मरण रखना प्रत्येक पत्रकार का कर्तव्य है अर्थात असत्य एवं विवाद विषयों से दूर रहकर शांति का प्रचार जनसमूह में करना उद्देश्य होना चाहिए। उन्होंने संपादकीय में लिखा- शांतिदूत पार्टीबंदियों से दूर रहेगा। द्वीप की भलाई और लोकप्रियता को बढ़ाएगा और सभी लोगों के लिए इसके कालम बिना भेदभाव के खुले रखेंगे। इसका मुख्य उद्देश्य समाज और जनसेवा है। उस समय शांतिदूत की सबसे बड़ी विशेषता समुद्री तार से प्राप्त विदेशों के समाचार बनी। नई तकनीक के द्वारा नवीनतम समाचार तार के द्वारा उपलब्ध करवा -शांतिदूत जो कि विश्वयुद्द में भारतीयों को अपने पक्ष में करने को आधार बना निकाला गया समाचार पत्र था, धीरे - धीरे फीजी में हिंदी का मुख्य समाचार -पत्र बन गया और उसने अपने जन्म के समय लिए गए सभी संकल्पों को पूरा किया।
प्रबंधन का कुछ भी लक्ष्य रहा हो परंतु जल्दी ही शांतिदूत ने फीजी में रह रहे भारतीय मूल के लोगों का हित पोषण करना शुरू कर दिया और अपने दूसरे ही संपादकीय में श्री गुरूदयाल शर्मा ने फीजी की संसद में चल रही मनोनीत प्रथा का जोरदार विरोध किया और आम निर्वाचन की मांग की। शातिदूत के वर्ष 1935 में प्रकाशित अंकों में इस संबंध में विचारोत्तेजक रिपोर्ट और आलेख हैं। जिससे स्पष्ट होता है कि शांतिदूत ने प्रारंभ से ही फीजी में रहने वाले भारतीय मूल के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करनी शुरू कर दी थी। प्रवासी भारतीयो के प्रति सरोकार सिर्फ फीजी में नहीं बल्कि भारत में भी हो इसके लिए शातिदूत में पर्याप्त सक्रियता दिखाई देती है। शांतिदूत के 1935 के अंको में भवानी दयाल सन्यासी के दो लेख छपे हैं । पहले लेख में उन्होंने एक तरफ तो कांग्रेस के नेताओं जैसे महात्मा गांधी , बनारसी दास चतुर्वेदी आदि की प्रशंसा की है दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रवासी भारतीय प्रकोष्ठ की कम सक्रियता पर दुख प्रकट किया है। उन्होंने कांग्रेस के विदेश विभाग को प्रभावी बनाने के लिए नेहरू जी की सराहना की । ब्रिटीश प्रभाव का समाचार पत्र होते हुए भी शांतिदूत में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के युरोप दौरे के भाषणों को प्रकाशित किया गया। प्रवासी भारतीयों के लिए महत्वपूर्ण नाम भवानी दयाल सन्यासी ने दक्षिण अफ्रीका और फीजी में भारतीयों की स्थिति सुधारने के लिए बहुत महत्वपूर्ण काम किया है। शातिदूत में 1935 मे प्रकाशित एक लेख में उन्होंने गिरमिटिया प्रवासन के संबंध में भारत में किसानों की स्थिति को जिम्मेदार ठहराया है । स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आह्वान किया। प्रारंभिक काल से ही शांतिदूत में गन्ना किसानों की स्थिति की बेहतरी के लिए भी रिपोर्ट और लेख छपने लगे थे। । भारतीयों के अधिकारों को लेकर एक पत्र में पासपोर्ट पर तत्कालीन सरकार द्वारा लिखी जा रही इन पंक्तियां के संबंध में आपत्तियां दर्ज की गई “ बिना फीजी सरकार के लेंडिग परमिट के इस पासपोर्ट द्वारा फीजी वापिस नहीं आया जा सकता ।“ पाठक संपादक के नाम पत्र में संपादक जी महाराज का संबोधन भी प्रयोग करते थे। उस समय समाज में फैले अंधविश्वास, जादू-टोने आदि का भी परिचय शांतिदूत में प्रकाशित रिपोर्ट और लेखों से मिलता है। शांतिदूत प्रारंभ से ही भारत और फीजी में समस्याओं , मुद्धों , सरोकारों को समझने में समर्थ था और निष्पक्ष व प्रभावी रूप से उसको प्रस्तुत करता था।
शांतिदूत की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसने भारत के साथ संबंधों को मजबूत बनाए रखने का काम किया। 1935-1947 तक तो ऐसे लगता है कि यह भारत का ही कोई समाचार पत्र है। भाषा भी चुस्त- दुरूस्त । भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से संबंधित प्रत्येक समाचार प्रमुखता से छापा जाता था। पंडित गुरूदयाल शर्मा गांधी जी के विशेष भक्त थे। गांधी जी की प्रत्येक गतिविधि शांतिदूत में छपती थी । विशेषकर हिंदु -मुसलमानों में सौहार्द के लिए उनके प्रयास । भारत में हिंदु - मुस्लिम संबंधो में तनाव भी शांतिदूत में खबर बनता रहा। स्वतंत्रता आंदोलन , भारतीय गणतंत्र की स्थापना इस सबको यहां के लोग जानना चाहते थे।
हिंदुस्तान - पाकिस्तान युद्द के बारे में फीजी - भारतीयों की जिज्ञासा शांतिदूत से शांत होती थी । सनातन धर्म सभा के राष्टीय सचिव विजेन्द्र प्रकाश लिखते हैं- ‘भारत और पाकिस्तान के बीच जब प्रथम युद्द हुआ था ' उस समय गिरमिटये पागलों की तरह उधर- उधर शान्तिदूत की खोज में दौड़ पड़े थे। जिसे शान्तिदूत मिला वह पहले पढ़ लेता और जिसे नहीं मिला वह दूसरों से पेपर लेने के लिए लालयित रहता और कभी - कभी तो होड़बाजी भी लग जाया करती थी। गिरमिटिए यह जानना चाहते थे कि इस युद्द में भारत का क्या हुआ, क्या वह पराजित हो गई या उसकी जीत हो गई।'
जिस समय महेश चन्द्र विनोद शांतिदूत के संपादक बने वह समय राजनीतिक अस्थिरता का समय था। इस समय कू याने विद्रोह भी हुआ । शातिदूत के पत्रकारों को बंदूक की नोक पर कार्यालय से निकाला गया। परंतु उसके बाद भी साहस और निर्भीकता व संतुलन और विवेक से शांतिदूत ने अपनी बात रखी । डर , भय , आशंका और हिंसा के उस दौर में शांतिदूत की भूमिका अविस्मरणीय रही। शांतिदूत ने विभिन्न समुदायों में एकता और शांति की मशाल जलाए रखी। इसके संपादकीयों मे राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा गया। महेश चन्द्र विनोद प्रभावी पत्रकार थे। राजनीतिक अस्थिरता के दौर मे उन्होंने शांतिदूत की नीति के अनुसार निर्भय होकर अपने विचार रखे। वे सांसद भी रहे । उन्होंने लेबर पार्टी की तरफ से संसद का चुनाव जीता। उसके बाद संपादक श्री हेमन्त विमल शर्मा संपादक बने, वे इस समय आस्ट्रेलिया मे रहते हैं। वे लगभग 6 वर्षों तक शांतिदूत के संपादक रहे । वर्ष 2000 से श्रीमती नीलम शांतिदूत की संपादन का दायित्व उठा रही है। इनके प्रमुख सहयोगी हैं । श्री राकेश कुमार और श्रीमती ज्ञानप्रभा । दोनों रेडियो फीजी से आए हैं। घर-परिवार , सामाजिक दायित्वों को निभाते हुए श्रीमती नीलम ने जिस तरह से इतने वर्षों तक साधनों की कमी और विपरीत वातावरण में अखबार निकाला है , वह प्रशंसनीय है। श्रीमती नीलम ने अपना हिंदी संबंधी प्रशिक्षण केंद्रीय हिंदी संस्थान से किया है। गुरूदयाल जी के समय से ही वे शांतिदूत से जुड़ी । पत्रकारिता उन्होंने युनिवर्सटी ऑफ साउथ पैसिफिक और नेशनल फीजी युनिवर्सटी से सीखी।
फ्रीलांसर के रूप में बाद में पूर्णकालिक शांतिदूत मे आ गई । उनके युवा साथी राकेश कुमार भी उसी तरह निष्ठावान और कर्मठ हैं। पिछले कुछ वर्षो से शांतिदूत भारतीय समाज का सामाजिक - सांस्कृतिक आईना बन गया है। यहां होने वाले प्रत्येक सामाजिक - सांस्कृतिक कार्यक्रम का रिपोर्ताज शांतिदूत में प्रकाशित होता है। एक महिला होकर भी श्रीमती नीलम ना दिन देखती हैं ना रात । पारिवारिक विपरीत परिस्थितयों के बावजूद भी कार्यक्रमों में नजर आती है। वे एक पत्रकार ही नहीं हिंदी की समर्पित सिपाही हैं जो हिंदी के प्रोत्साहन के लिए सदा तत्पर हैं। महेश चन्द्र विनोद , लो कर लो बात और हेमन्त विमल शर्मा शूलपाणि नाम से फीजी हिदी में स्तंभ भी लिखते रहे
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हिंदी शिक्षण और हिंदी के प्रचार - प्रसार में तो शातिदूत की भूमिका बहुत प्रशंसनीय है। एक तरह से शांतिदूत फीजी में हिंदी का प्रवक्ता है। वर्ष 1935 में ही याने अपनी स्थापना के वर्ष से शांतिदूत में हिदी के स्वरूप को लेकर बहस शुरू हो गई । इस संबंध में 1935 के शांतिदूत में श्री बंभानी के लेख मिलते हैं और उन्हें शांतिदूत में क्रमवार छापा गया । शांतिदूत के कारण हजारो लोगों ने हिंदी सीखी । वर्ष 1987 के शांतिदूत मे हिंदी अध्यापकों के लिए की जा रही कार्यशाला का उल्लेख है। हिंदी के तत्कालीन प्रथम सचिव श्री विमलेश कांति वर्मा का भाषा अस्मिता पर लेख है। वर्तमान में भी हिदी विद्यार्थियों के लिए दो पृष्ठ विशेष रूप से आरक्षित हैं जिनमें स्कूलो के पाठ्यक्रम से जुड़े विषयों को क्रमवार प्रस्तुत किया जाता है.। प्रसन्नता की बात है इस संबंध में उन्हें शिक्षा मंत्रालय से भी सहयोग प्राप्त हो रहा है। दूरदराज के लोग किस प्रकार शांतिदूत के कारण हिदी तथा भारत से जुड़े रहे यह जानना अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है।
शांतिदूत की एक अन्य विशेषता यह है कि वह भारतीय समुदाय विशेष रूप से हिंदू मान्यताओं , आस्थाओं, विश्वासों को पालित-पोषित करता रहा है। यह भारतीय संस्कृति के प्रमुख प्रवक्ता के रूप में उभरा है। हिंदुओ की दो प्रमुख संस्थाओं सनातन धर्म सभा और आर्य समाज की गतिविधियां शांतिदूत में प्रमुखता से प्रकाशित होती रही हैं। दीवाली विशेषांक तो शांतिदूत की जीवनवाहनी शक्ति है। कभी - कभी तो यह 365 पृष्ठो तक का होता रहा है। प्रत्येक अंक में ना केवल उस समय के त्यौहार आदि की विशेष जानकारी होती है बल्कि उस अवसर पर किए गए धार्मिक - सांस्कृतिक आयोजनों को भी इसमें प्रमुखता से छापा जाता है। सनातन धर्म सभा के अध्यक्ष रहे शालिग्राम शर्मा इसके नियमित स्तंभकार थे। वे विभिन्न त्यौहारों की धार्मिक - सांस्कृतिक - दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत करते रहे हैं। अंग्रेजी का अखबार सांस्कृतिक - धार्मिक मान्यताओं से एक दूरी बना लेता है पंरतु हिंदी का अखबार , उसका संपादक मंडल , उसका प्रबंधन उन गतिविधियों में एक दृष्टा के रूप में नही एक सहभागी के रूप में भाग लेता हैं। रामायण मंडलियों की गतिविधियों को भी इसमे प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। ईद के अवसर पर इसमें विशेष सामग्री प्रकाशित की जाती है। क्रिसमिस के अवसर पर संपादकीय लिखे जाते हैं। इन विषयों में पाठकों की रूचि का यह आलम है कि 1935-36 में द्रौपदी द्वारा दुर्योधन को अपशब्द कहने के समय धृतराष्ट्र उपस्थित थे या नहीं इस विषय पर संपादक के नामक पत्र कालम में कई अंकों तक विवाद चलता रहा।
शांतिदूत फीजी मूल के भारतीय किसानों का अखबार रहा है। गांवों में पढ़ा जाता रहा है । इसकी प्रसार संख्या गांवों मे शहरों से अधिक है और वहां यह पंचायती अखबार रहा है जहां एक समय में दसियों लोग इसे पढ़ते थे। किसानों की समस्याओं को लेकर यह प्रारंभ से ही आवाज उठाता रहा है।
फीजी डायसपोरा को जोड़े रखने में भी शांतिदूत का विशेष हाथ रहा है । पिछले पचास वर्षो में आस्ट्रेलिया , न्यूजीलैण्ड और अमरीका जाने वाले प्रवासियों में फीजीवासिययों की संख्या बहुत है । सिडनी ,मेलबोर्न, आकलैँड में तो ये बड़ी संख्या में हैं। वे लोग आज भी शांतिदूत पढ़ते हैं। शांतिदूत के लेखक हेमन्त विमल शर्मा मेलबर्न, तेजराम शर्मा, सिडनी, मास्टर राधे प्रसाद, सिडनी, पंडित हरिशचन्द्र शर्मा सिडनी । यहां तक की कैलिफोर्निया में भी फीजी का डायसपोरा हिंदी और शांतिदूत के माध्यम से जुड़ा हुआ है।
जहां तक रचनात्मक साहित्य की बात है। शांतिदूत में कविता , कहानी व्यंग्य निरंतर प्रकाशित होते रहे हैं। फीजी के वरिष्ठ लेखक जोगिन्दर सिंह कंवल शांतिदूत में निरंतर लिखते रहे हैं। कविता –शायरी को लेकर एक नियमित स्तंभ छपता है। इसमें नए लिखने वालें को स्थान दिया जाता है। भारत की आजादी से पहले शांतिदूत में वे कहानियां प्रकाशित की जाती रही हैं जिससे भारत की स्वतंत्रता की ज्वाला और प्रदीप्त हो।
फीजी हिंदी
शांतिदूत मानक हिंदी में प्रकाशित होता है परंतु फीजी हिंदी में भी इसके कई - एक कालम छपते हैं । फीजी हिंदी की अपनी मिठास है , भोजपुरी - अवधी मिश्रित, फीजी के स्थानीय समाचार पत्र शांतिदूत में एक कालम आता है बईठकी - इसमें वरिष्ठ लोगों से बीते समय और घटनाओं के बारे में च्रर्चा की जाती है। बईठकी में दी जा रही फीजी हिंदी की एक बानगी प्रस्तुत है-
बईठकी- कुशल सिंह
बड़का के घर आए रही बड़का के सास, बबरीबन से। एक सौ सात बरस के रही। लेकिन रही बड़ी चरफर, नाक में बड़का किल पहिने, बड़का – बड़का मोहर, हथवा में चांदी के मोट – मोट चुड़िया, कनफुलवो रहे सोना के, बड़का लहंगा, मुड़िया पे फुल टायेम ओढ़नी अऊर बातचीत में तो पूछो नई भाई, मू तोड़ जवाब। बईठकी दल वाले भी पहुँच गईन, सोचिन चलो थोरा पुराना समाचार ले लई जाए। वही डरमवा वाला फूस घर में पाल – वाल बिछा, घोर-घार भय, एक-एक चला अऊर गपोड़वार्ता शुरू होई गए। अऊर हाँ, बड़का के सास के सब माई बोलत रहिन ( पहिले के टेम पे ससुर के ‘बाबा’ अऊर सास के ‘ माई’ बोला जाता रहा, आज कल तो सब मम्मी डैडी होई गईन है)।
शांतिदूत ने कई प्रतिभाओं को स्थान दिया है। इसमें रामा नारायण, मास्टर सुधाकर, मास्टर राम नारायण गोविंद , बाल राम वशिष्ठ, काशी राम कुमुद , जे.एस.कंवल जैसे लेखक लिखते रहे हैं। कई प्रतिभाएं तो ऐसी हैं कि उन्हें केवल शांतिदूत में ही स्थान मिला है। उनकी प्रतिभा को अन्य प्लेटफार्म नहीं मिल सकता । ऐसे ही एक कवि हैं’ हलाहल’ उनकी कविताएं 1946-1947 में शातिदूत में प्रकाशित होती रही । आइए इस अचर्चित कवि की एक कविता का आनंद ले-
“कोई कहता है न्यूजीलैण्ड जा कर तुम बस बी.ए. कर लो, कोई कहता है तुम भारत जा कर विद्यालंकार करो
कोई कहता है पुलिस बनो , कोई कहता सैनिक बन लो, कोई कहता कि ’ सिविल सर्विस ‘ से ही भवसागर पार करो
कुछ कहते अरे फकीर बनो, झटपट सन्यास ग्रहण कर लो, कोई कहता तुम घूम घूम बस विद्या का प्रचार करो
कोई कहता है कि वकील बनो, कोई कहता कि बनो लीडर, भारत से जब कोई नेता आए तुम टग आफ वार करो
कोई कहता इस और चलो, कोई कहता उस और चलो,मुझको अब सच्ची राह दिखा , गुरूवर मेरा उद्धार करो .”
गूरूवर ने झट ब्लूबुक देखी, आंखें मूंदी , कुछ ध्यान किया, कुछ सोच - समझ कर फिर बोले - ‘ प्यारे चेला ! व्यापार करो’
राजनीतिक अस्थिरता जब चरम पर थी। देश में अशांति थी , हिंसा की लपटें जल रही थी ऐसे में फीजी के शीर्षस्थ साहित्यकार जोगेन्द्र सिंह कंवल की प्रकाशित कविता देखिए-
जीवन संग्राम
जीवन संग्राम में जूझते , संघर्ष करते लोग,कभी रोते , कभी हंसते, ये डर डर जीते लोग
कभी सीनों में धड़कती , उम्मीदों की हलचल, कभी बनते कभी टूटते, दिलों में ताजमहल
पत्थर जैसी परिस्थतियों के बनते रहे पहाड़, भविष्य उलझा पड़ा है , कांटे - कांटे आज
चेहरों पर अंकित अब, पीड़ा की अमिट प्रथा, हर भाषा में लिखी हुई , यातनाओं की कथा
जोश, उबाल व आक्रोश, छाती में पलटे हर दम, चुपचाप ह्रदय में उतरते सीढी सीढी गम
दर्द की सूली पर टंगा, कोई धनी है या मजदूर, है सब के हिस्से आ रहे, ज़ख्म और नासूर
बोझल बोझल है जिंदगी, टुकड़े टुकड़े सपने, हम सब पीते हैं दोस्तो .आज दर्द अपने अपने
शांतिदूत गिरमिटया अनुभव का प्रस्तोता रहा है । देखिए शांतिदूत की अस्सीवी वर्षगांठ के अवसर पर प्रकाशित एक गिरमिटिया अनुभव को । श्री गंगा प्रसाद - ये 1916 में फीजी आए थे। लिखते हैं- ‘अपनी अम्मा सुगमा और पिता सोमई के साथे हम जहाज पर आया रहा । हमें बहुत डर लगत रहा और मैंया बहुत डांटत रही कि बोट में चुप्पे बैठो। मैया भी कांपत रही जब बहुत देरी तक बोट पानी में रहा। ऊ सोचे कि हम लोग कुछ ही दूर पर जात रहिन लेकिन जब दिन से रात होवत रहा और फिर से दिन से रात तो मैया घबरात रही कि ई का होवत है और केतना दूर जाए के है। बप्पा धीरज धरात रहा और थोरा याद है बोले कि तुम काहे के डरत हौ, जब पैसा कमईहो तो डर सब भाग जई ।’
फीजी में गिरमिटयों के हालात बदलने में गाधी जी का बहुत हाथ रहा । गांधी जी के आदेश पर मणिलाल फीजी आए थे। सी.एफ. एन्ड्रूज भी गांधी जी की रूचि के चलते फीजी में गिरमिटियों की दशा सुधारने के लिए फीजी आए। वर्ष 1935 के शांतिदूत में ही श्री मणिलाल का एक पत्र छपा है जिसमें प्रवासियों को धर्ममार्ग पर प्रेरित करने वाली पुस्तक के लिए शुभकामना संदेश है। साथ ही एक ब्रिटीश प्रमुख व्यक्तित्व की भारत यात्रा का उल्लेख है जो भारत जा कर पुणे में गांधी जी को मिला और फीजी की स्थितियों से गांधी जी को अवगत कराया।
बालिवुड फिल्मों , कलाकारो आदि के संबंध में शांतिदूत किसी भारतीय पत्रिका जैसा ही है। प्रत्येक अंक में फिल्मों की समीक्षा, फिल्म कलाकारो के जीवन के बारे मे किस्से कहानियां छपते हैं। दीवाली अंक का एक विशेष आकर्षण किसी फिल्मी सितारे का रंगीन पोस्टर होता है। वर्ष 1935 के अंकों में भारतीय फिल्मो के विज्ञापन हैं। जिससे स्पष्ट हैं कि फीजी में रहने वाले भारतीयों के लिए वर्षों से मनोरंजन का प्रमुख माध्यम बालिवुड है।
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इसके सतत प्रकाशन के लिए फीजी टाईम्स बधाई का पात्र है। जबकि अन्य अखबार बंद होते चले गए शांतिदूत चलता रहा । इसका कारण फीजी टाईम्स का प्रबंधन है जिसने केवल व्यावसायिक लाभ को ही ध्यान में नही रखा बल्कि हिंदी के प्रचार - प्रसार को मिशन बना कर निरंतर निकालते रहे।
कुल मिलाकर डायसपोरा पत्रकारिता में शांतिदूत का विशेष महत्व है। फीजी में रहने वाले भारतीय समाज के आशाओं - अपेक्षाओं , आशंकाओ, रूचियों और सरोकारों को शांतिदूत ने प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया । इस कार्य के लिए शांतिदूत की संपादकीय टीम ने हिंदी पत्रकारिता की गौरवशाली परंपरा का पालन किया । इस संदर्भ में प. गुरूदयाल शर्मा फीजी में हिंदेी पत्रकारिता के भीष्म पितामह हैं। फीजी में भारतीय समाज विशेष रूप से हिदी समाज की धड़कने इसमें सुनाई पड़ती है। इनकी शब्द साधना और तपस्या को हम सब का प्रणाम।--
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