ज़ड़ो, अस्मिता और द्वद्व की अभिव्यक्ति का साहित्य – प्रवासी साहित्य
अनिल जोशी
‘घर छोड़ देने या बदल देने के बावजूद किसी की आंखें है कि वहीं उन्ही दीवारों से चिपकी छूट गई हैं’. राजेन्द्र यादव की प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी।
यही घर की खोज ब्रिटेन के कवि मोहन राणा की कविताओं में यह रूप लेती है-
उस घर की चौखट पर /अजनबी की तरह झिझकते/खटखटाऊंगा दरवाजा आशा करते हुए /स्वागत की ,
/मैं देता हूं दस्तक / मैं करता हूं स्वागत /एक पल को मैं भूल जाता हूं/ जीवन के अंतरों को
एक दिन में लौटूंगा खोई हुई दिशा में( आशा – कविता संग्रह , जैसे जनम कोई दरवाजा)
इसी खोज को खाड़ी के देशों की पृष्ठभूमि में कृष्ण बिहारी अपनी कहानी ‘ज़ड़ो से कटने पर’ लिखते हैं, ये छह –सात घंटे जिस तरह बता – बताकर गुजर रहे थे, उनसे अजीब – सी उलझन होने लगी थी । बार-बार एक बेतुका ख्याल भरता कि यदि हिंदुस्तान में कत्ल भी कर दिया होता तो इतनी मानसिक यातना से नहीं गुजरना पड़ता। झूठे आरोप पर परेशान होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। पहली बार एहसास हुआ कि अपने देश के अंदर आदमी की अपनी जड़ो की जो ताकत होती है, वह दूसरे देश में कोई औकात नहीं रखती’।
प्रवासी साहित्य में भारत हमेशा सकारात्मक रूप से ही उपस्थित नहीं होता। ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि सत्येंद्र श्रीवास्तव अपनी कविता ‘बार-बार भारत’ में लिखते हैं- उन्हें लगता है कि भारत के लोग अपने देश की आंतरिक शक्ति को नहीं पहचानते/ कि जिस भारतवासी के मुंह में पैसे का गोश्त लग जाता है /वह अपने देश की आत्मा को फेरो राजा-रानियों की तरह तहखानों में
अनिल जोशी
‘घर छोड़ देने या बदल देने के बावजूद किसी की आंखें है कि वहीं उन्ही दीवारों से चिपकी छूट गई हैं’. राजेन्द्र यादव की प्रवासी साहित्य पर टिप्पणी।
यही घर की खोज ब्रिटेन के कवि मोहन राणा की कविताओं में यह रूप लेती है-
उस घर की चौखट पर /अजनबी की तरह झिझकते/खटखटाऊंगा दरवाजा आशा करते हुए /स्वागत की ,
/मैं देता हूं दस्तक / मैं करता हूं स्वागत /एक पल को मैं भूल जाता हूं/ जीवन के अंतरों को
एक दिन में लौटूंगा खोई हुई दिशा में( आशा – कविता संग्रह , जैसे जनम कोई दरवाजा)
इसी खोज को खाड़ी के देशों की पृष्ठभूमि में कृष्ण बिहारी अपनी कहानी ‘ज़ड़ो से कटने पर’ लिखते हैं, ये छह –सात घंटे जिस तरह बता – बताकर गुजर रहे थे, उनसे अजीब – सी उलझन होने लगी थी । बार-बार एक बेतुका ख्याल भरता कि यदि हिंदुस्तान में कत्ल भी कर दिया होता तो इतनी मानसिक यातना से नहीं गुजरना पड़ता। झूठे आरोप पर परेशान होने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। पहली बार एहसास हुआ कि अपने देश के अंदर आदमी की अपनी जड़ो की जो ताकत होती है, वह दूसरे देश में कोई औकात नहीं रखती’।
प्रवासी साहित्य में भारत हमेशा सकारात्मक रूप से ही उपस्थित नहीं होता। ब्रिटेन के प्रसिद्ध कवि सत्येंद्र श्रीवास्तव अपनी कविता ‘बार-बार भारत’ में लिखते हैं- उन्हें लगता है कि भारत के लोग अपने देश की आंतरिक शक्ति को नहीं पहचानते/ कि जिस भारतवासी के मुंह में पैसे का गोश्त लग जाता है /वह अपने देश की आत्मा को फेरो राजा-रानियों की तरह तहखानों में गाड़ देता है../.वह महान देश उन्हें सारे जहां से अच्छा नहीं लगा।
प्रवासी लेखक यद्यपि भारत मे नहीं है , पर उनमे भारत गहरी जड़े जमा चुका है, उनके फोर्मेटिव वर्ष इस देश में बीते । उनकी संवेदनाओं के तंतु यही विकसित हुए। उनके मूल्य , मान्यताएं, अवधारणाएं , संकल्पनाएं भारत में ही बीज रूप में पनपी और पल्लवित हुई। भारत प्रवासी साहित्य में एक रेफरेंस प्वाईंट है । उनकी हर तुलना भारत से है। इन नास्टेलजिया को लेकर कई लेखकों को परेशानी है। उनका सोचना है कि यह नोस्टेलजिया उन्हें अतीतजीवी बनाता है और समकालीन गंध से वंचित करता है। किंतु यह तो अपनी जड़ों से जुड़ना है। अगर भविष्य हमें संकल्प देता है तो हमारा इतिहास हमें खुद को समझने और विश्लेषित करने की शक्ति देता है। नास्टेलजिया के संदर्भ में प्रवासी साहित्य अतीत का नहीं जड़ो की तलाश का साहित्य है। दिल्ली मे रह रहे लेखक भी तो अपने कस्बे- गांव से इसी तरह की शक्ति ग्रहण करते आए हैं।
हम जिसे जड़ें, अस्मिता और द्वद्व का साहित्य कहते हैं , कौन है उनके प्रतिनिधि रचनाकार , कौन सी है प्रतिनिधि रचनाएं ? कौन है वे रचनाकार जिनके बल पर कहा जा सकता है कि भारतीय डायसपोरा का सूरज दुनिया में अस्त नहीं होता ? भारतीय मूल के देशों में मारिशस- फिजी – सूरीनाम मे एक अलग प्रकार का साहित्य सृजित किया है। अभिमन्यु अनत, रामदेव धुरंधर , प्रो. सुब्रमणि , जोगिंदर सिंह कंवल, जीत नारायण जैसे लेखक इन देशों ने दिए हैं। डा कमल किशोर गोयनका के शब्दों में अभिमन्यु अनत सत्ता से प्रश्न करने का साहस रखते हैं। वह मारिशस के गूंगे इतिहास की आवाज है। वह अपने साहित्य से अज्ञात दरवाजों को खोलकर उसमें दबी-ढकी –बंधी – बांसो और कोड़ों की अनुगूंजो और प्रतिध्वनियों को साहित्य का रूप देते है। उनकी उपन्यास त्रयी ‘ लाल पसीना ‘ ‘गांधी जी बोले थे’ ‘और पसीना बहता रहा’ है । यह उपन्यास भारत से गए गिरमिटिया मजदूरो तथा कुलियों पर हुए घोर अमानवीय, क्रूर एवं पाशविक अत्याचारों का इतिहास है। इन देशों में साम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष और सांस्कृतिक अस्मिता की तलाश इसमें है।
अगर हम ब्रिटेन की बात करते हैं तो सत्येन्द्र श्रीवास्तव, मोहन राणा, अचला शर्मा, दिव्या माथुर, गौतम सचदेव , प्राण शर्मा , शैल अग्रवाल , सोहन राही कविता में प्रमुख नाम हैं। सोहन राही की पंक्तियां देखें -समंदर पार करके अब परिंदे घर नहीं आते, अगर वापिस भी आते हैं तो लेकर पर नही आते।
दिव्या माथुर, तेजेन्द्र शर्मा, गौतम सचदेव, उषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल, उषा वर्मा वहां के प्रतिनिधि कहानीकार हैं। दिव्या माथुर का पिछले वर्ष कहानी संग्रह ‘ पंगा और अन्य कहानियां’ प्रकाशित हुआ। ‘आक्रोश’ और ‘हिंदी एट स्वर्ग डाट काम’ उनके अन्य कहानी संग्रह है। उन्होंने प्रयोगधर्मी दृष्टि से पंगा कहानी में कार के नंबर प्लेटों के माध्यम से ब्रिटेन का समाजशाश्त्रीय चित्र प्रस्तुत कर दिया है। अत्यंत सहजता और संवेदना से रची दिव्या माथुर की कहानियों का फलक बहुत बड़ा है। उसमें ब्रिटेन का स्थानीय समाज, भारतीय समाज, पीढीगत द्वद्व, स्त्री विमर्श सब मौजूद है। तेजेन्द्र शर्मा का कहन अद्भुत है। उनकी कहानियां काला सागर, ढिबरी टाइट, देह की कीमत गहन मानवीय पीड़ा की स्थिति में विडंबनाओं का चित्रण हैं। एक कुशल शिल्पी की तरह उनकी कहानियां रोचक सफर कराते हुए आपको मानवीयता का संस्कार देती हैं। कब्र का मुनाफा , पासपोर्ट का रंग आदि कहानियां प्रवासी जीवन और उनके वैचारिक संघर्ष की सशक्त अभिव्यक्ति है। वह रात और अन्य कहानियो, वर्किंग पार्टनर, मुलाकात, प्रवास मे जैसे संग्रहों से उषा राजे ने कहानी जगत में एक अलग जगह बनायी है। उनके बाद के संग्रहों को रोहिणी अग्रवाल हिंदी पट्टी की सुपरिचित साहित्यिक संवेदनाओं से बिल्कुल भिन्न एक नए भाव-जगत में गहरी पैठ के बाद लिखी कहानियां मानती हैं। शैल अग्रवाल की मौलिकता और सूक्ष्म दृष्टि उन्हें एक विशिष्टता प्रदान करती है।
प्रवासी साहित्य का दूसरा केंद्र अमरीका – कनाडा है। यहां सुषम बेदी, उमेश अग्निहोत्री, सुधा ओम ढींगरा , शालिग्राम शुक्ल, रेणु राजवेंशी गुप्ता, इला प्रसाद, विशाखा ठाकर जैसे साहित्यकार नई जमीन तोड़ रहे हैं। डा धनंजय और गुलशन मधुर जैसे साहित्यकारों ने अमेरिका के रचनाकारों के ‘ देशांतर’ और ‘कथांतर’ जैसे संग्रहों का संपादन कर प्रवासी साहित्य की अपूर्व सेवा की है। सुषम बेदी के लेखन मे जितना वैविध्य है और दृष्टि मे जो आधुनिक बोध है उसने प्रवासी साहित्य को नई जमीन दी है, प्रवासी नारी विमर्श की अवधारणा दी है । उनके लेखन में वे सब प्रमुख सवाल और चुनौतियां हैं जिनसे प्रवासी को दो – चार होना पढ़ा है। ‘हवन’, ‘गाथा अमरबेल की ‘, ‘लौटना’, ‘नवाभूम की रसकथा’ जैसे उपन्यासों और ‘चिडिया और चील’ जैसी कहानी संग्रह से उन्होंने उषा प्रियवंदा के बाद प्रवासी गद्य साहित्य की सर्वाधिक सशक्त लेखिका के रूप में अपनी जगह बनायी है। कहानीकार, व्यंग्यकार, नाटककार उमेश अग्निहोत्री का लेखन ‘क्लास लेखन’ है। उनकी कहानी ‘हैप्पी न्यू इयर’ गहन मानवीय संवेदनाओं की कहानी है । ‘लकीर’ कहानी में विदेशों में रहने वाले पाकिस्तानियों के प्रति भारतीयों का दृष्टिकोण अभिव्यकत हुआ है। विदेश में भारत – पाकिस्तानी सब एशियाई हैं। पिघलते आपसी पूर्वाग्रहों, द्वेष और आशंकाओं को दूर करते , अस्मिता की एक सी लड़ाई लड़ते ! सुधा ओम ढींगरा के सद्य प्रकाशित संग्रह ‘कौन सी जमीन अपनी’ एक बार फिर प्रवासियों के भारत के प्रति रूमानी प्रेम को तोड़ता है। अमेरिका में अपनी जमीन- जायदाद बेच कर भारत में बसने का स्वपन , रिश्तेदारों की घोर स्वार्थपरकता के चलते कैसे चकनाचूर होता है, यह कहानी उसका चित्रण है। कुल मिलाकर कनाडा - अमेरिका में लिखा जा रहा प्रवासी साहित्य ग्लोबलाइजेशन के समस्त संदर्भों को प्रस्तुत करता है। सैक्स के टेबू तोड़ता है। यहां अभिव्यक्ति में भारतीय रूढियां नहीं है जो 50 की फिल्मों की तरह प्रेम दृश्यों मे दो पक्षियों को चोंच लड़ाता दिखा देंगी। गेय और लेस्बियन सवालों पर बेबाक बातचीत है, पवित्र रिश्तों की पवित्रता पर सवाल हैं ! प्रेम संबंधों का परत –दर परत का विश्लेषण और व्याख्या है। जहां विवाह नहीं कैरियर महत्वपूर्ण है साथी तो नए शहर या नए देश में भी ढूंढ लिए जाएंगे !
मारिशस –फिजी- सूरीनाम, कनाडा- अमरीका, ब्रिटेन प्रवासी साहित्य के इन तीन केंद्रों के अतिरिक्त अलग – अलग देशों में रह रहे प्रवासी भी महत्वपूर्ण साहित्य रच रहे हैं। उदाहरण के लिए जापान में लक्ष्मीकांत मालवीय की कहानी ‘ छुट्टी का दिन’ का संदर्भ लें । यह प्रेम संबंधों के देह संबंधों मे बदलने की कहानी है जिसमे प्यार नहीं है सिर्फ छुट्टी के दिन का सहवास है। नामवर सिंह जैसे आलोचक ने इस कहानी को बहुत महत्वपूर्ण माना है। इसी प्रकार रूस में मदनलाल मधु, अर्जेंटीना में लिख रही प्रेमलता वर्मा, या डेनमार्क की अर्चना पैन्युली महत्वपूर्ण रचनाकार है। आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी अंगड़ाई लेता प्रवासी साहित्य विश्व फलक पर एक स्थान बना रहा है।
रामदरश मिश्र कहते हैं ‘प्रवासी साहित्य हिंदी साहित्य के परिदृश्य को बड़ा करता है। हमारे अनुभव के संसार को लेखन को व्यापक बनाता है।‘ वैश्विकरण के और उदारीकरण के दौर में प्रवासी साहित्य हिंदी का एक वैश्विक चेहरा प्रस्तुत करता है । मारिशस – फिजी के संदर्भ में यह वहां के संघर्ष और अमानवीय स्थितियों से जूझने का इतिहास है तो यूरोप और अमेरिका के संदर्भ में यह अस्मिता और संस्कृतियों का द्वद्व है। यह भारतीयता को नई दृष्टि से गढ़ता है , आधुनिकता के मानदंडों पर उसका आकलन करता है, समकालीन समय के औजारों से उसको तराशता है। स्थानीय संस्कृति से खुले मन से कुछ ग्रहण करता है। और हिंदी और भारतीयता के क्षितिज को विस्तार देता है , इस पार से उस पार एक सेतु का निर्माण करता है।
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