शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

समय हमें रचता है


फोटो - सरोज शर्मा

समय हमें रचता है

समय सबको गढ़ता है
तोड़ता है, बनाता है, मांजता है
घाव देता है,
जख्म भरता है
हम समय को रचते हैं
समय हमें रचता है

समय हमसे पूछता है
आदमी बनना चाहते है
भीड़
हम भीड़ बनना चाहते हैं
समय देखता है आदमी को भीड़ बनते...
समय चुपचाप प्रतीक्षा करता है..
निश्चित वर्ष,
और हमारे लिए सुरक्षित करता है जगह
 लकड़ियों का इंतजाम


जो समय की नदी में देखते हैं अपनी परछाईं
और कूद पड़ते है
अतल तल में
बेपरवाह भंवरों से
वे  छोड़ते  हैं निशान तटों पर



समय देखता है 
हमें छलांग लगाते हुए
चीखते हुए
वह हमे रोकता है
पर हम उसकी सुनते कहां है
अपनी विशिष्टता के मारे
जब सेंकते है 
अपनी हड्डियो
तो समय सांत्वना देता है
मरहम लगाता है
मैं कल भी हूँ..... दोस्त

समय देखता है
उन्मत्त चेहरों को मुकुट और मुखौटे लगाए
विदूषक की तरह 
समय हंसता है, लोटपोट हो जाता है
सुबह कुड़ेदान में 
दिखते हैं मुकुट, नोचे जाते हैं मुखौटे 
समय देखता है सिकंदर को मलेरिया से मरते हुए


जीवन जो सहेजता है 
समय को
प्रेम से 
किसी मुस्कान को
गुलाब में परिवर्तित कर देता है
उसकी सुगंध से भर लेता है
खुद को
एक पत्ती रह जाती है
किसी 
कविता की किताब में
स्मृति समय की
प्रेम की
प्रेम क्षण को अमर कर देता है
ताजमहल की तरह 

हम देखते है समय को
घाट से
नदी की तरह बहते 
सोचते है 
इतनी है इसकी गति, माप, आकार, 
समय की लहर हंसती है
जाती है सागर तक
छोड़ती घाट, पेड़, अमराईयां, झूले, प्रेम, घृणा

समय भर देता है
चेहरे को झूर्रियों से
विकलांग बना देता ह
बालों में चांदी ला देता है
उसके पास हमारे लिए निश्चित कालखंड है
तोड़ता है देह का दर्प ,अमरता का
झुका देता है, तोड़ देता है उनकी डालियों को
सुखा देता है
देता है पीड़ा, 
फिर देता है हरियाली, आशा विश्वास

समय सरल नही वक्र है
सीढ़ी नहीं चक्र है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

होने का अर्थ




बहुत दिनों से ना मुलाकात
ना बात
ना चिट्ठी, ना फोन ,ना ई- मेल
यूं तो निकला सूरज, हुआ दिन
यू तो निकला चांद, हुई रात
पर लगता है सब कुछ वहीं रहा खड़ा
समय आगे नहीं बढ़ा

क्या तुम नाराज हो
या संकोच है
आत्मा पर यह कैसा बोझ है
इसे उतारो
मिलो ,बातें करो, मुझे समझाओ
किसी भी कीमत पर मुझसे दूर नहीं जाओ

यह पत्र नहीं है, यह स्वालाप है
जो रोज करता हूँ
पूछता हूं, अपने होने का अर्थ
आह्वान करता हूँ -स्व: का


अपने को समय के बरक्स रख
समय जो बीत गया
समय जो  बीत रहा है
समय जो है क्षितिज के पार

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

क्यों खास है नरेश शांडिल्य के नुक्कड नाटक के गीतो की पुस्तक - अग्निध्वज


सन 1985 -2000 तक हमारी टीम, जिनमें मैं प्रमोद शाश्त्री और नरेश शांडिल्य शामिल थे, ने ‘सक्रिय नाट्य मंच’ के नाम से नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में काम किया और सैंकड़ो प्रस्तुतियों से भाषा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध , भ्रष्टाचार विरोध, राष्ट्रीय अस्मिता को पोषित करने वाले अभियानों- आंदोलनों का समर्थन किया देखते ही देखते यह मंच नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में एक सशक्त आवाज बन गया। मंच में ज्यादातर नाटकों के लेखन और निर्देशन का दायित्व मैंने निभाया तो अभिनय का दायित्व मुख्य रूप से अत्यंत लोकप्रिय और प्रतिभाशाली अभिनेता प्रमोद शाश्त्री के पास था। परंतु इन नाटकों का अत्यंत प्रभावी, धारदार पक्ष जिसने इन्हें लोकप्रियता के शिखर पर बिठाया वह इन नाटकों का गीत – संगीत था। नरेश शांडिल्य के गीतों ने उन अभियानों- आंदोलनों के मूल भाव को गीतों में पिरोया और अंबरीश पुन्यानी , जफर संजरी, राजीव राज ‘आदित्य’ और संजय प्रभाकर जैसे गायक –संगीतकारों के साथ मिलकर उसे जनप्रिय बनाया।
नुक्कड़ नाटक एक विशिष्ट विधा है । साहित्य का उद्देश्य बदलाव लाना है परंतु यह बदलाव दिखाई नहीं देता तो साहित्यकार निराश हो जाता है। उसे लगता है उसका लिखा व्यर्थ गया। परंतु नुक्कड़ नाटक का माध्यम स्पष्ट और तत्काल परिवर्तन की अपेक्षा करता है।  रचनाशीलता से समाज में बदलाव का औजार बनता है, उसमें भागीदार बनता है । इस विधा का उपयोग इप्टा और जन नाट्य मंच ने अत्यधिक किया । सामाजिक आंदोलनों में बदलाव के एजेंट के रूप में  अगर कोई नवीनतम उदाहरण ही लेना हो तो अन्ना हजारे के आंदोलन में भी परिवर्तन के औजार के रूप में नुक्कड़ नाटकों का उपयोग किया गया। यद्य़पि ज्यादातर यह बदलाव का औजार तो बनता है परंतु बहुधा व्यवस्था परिवर्तन का नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन का।  हबीब तनवीर और सफदर हाशमी जैसे नाम इस विधा में से ही निकले और हमारे सांस्कृतिक लैण्डस्केप का अंग बन गए। लेकिन नुक्क़ड़ नाटकों से जुड़े कलाकारों को वह दर्जा नहीं मिलता जैसा कि थियेटर के कलाकारों को। अपनी आत्मकथा में शबाना आजमी की मां शौकत आजमी ने हबीब तनवीर तक के नाटकों का जिक्र तक बहुत सम्मान से नहीं किया। नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को मौटे तौर पर केवल ‘ एक्टिविस्ट’ माना जाता रहा है।
अगर नुक्कड़ नाटक के कलाकारों के योगदान को यथोचित सम्मान नहीं मिलता तो उसके लेखन और गीतों को अपेक्षित सम्मान कैसे मिलता ? यद्यपि दूसरी तरफ जनता उनके काम और संदेश को स्वीकार करती है और तद्नुरूप परिवर्तन में भागीदार बनती है। राष्ट्रीय- सांस्कृतिक विचारधारा में जहां पारंपरिक सोच और माध्यम महत्वपूर्ण हैं वहां उनके महत्व को रेखांकित करना और भी कठिन था। इन परिस्थितियों में नरेश शांडिल्य के गीतों का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह गीत उनकी लेखन क्षमता के साथा उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता का भी आईना हैं और एक एक्टिविस्ट के रूप में उनके जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर करते हैं।
संकल्प जोशी , अभिनेता जिन्हें यह पुस्तक समर्पित है

नुक्कड़ नाटकों के लिए गीत स्वतंत्र नहीं होते वे किसी घटना और परिस्थति का हिस्सा होते हैं। आप कह सकते हैं यूं तो फिल्मों के गीत भी किसी ना किसी सिचुएशन के लिए लिखे जाते हैं। परंतु नुक्कड़ नाटक के गीत तो एक तात्कालिक उद्देश्य किसी अभियान, आंदोलन या व्यवस्था विरोध के लिए लिखे जाते हैं और उसका उद्देश्य निर्धारित उद्देश्य के लिए मोबलाईजेशन होता है और दर्शक भी मजदूर, किसान , मजदूर , आम आदमी, राह चलते लोग होते हैं जिन्हें अभियान या आंदोलन को साफ, स्पष्ट भाषा में बताना होता होता है और अभिव्यक्ति की शब्दावली, मुहावरे, मिजाज़ ऐसा होते हैं जो त्तत्काल उसे उद्देश्यों के साथ जोड़ दें। यह उद्देश्यपरकता नुक्क़ड़ नाटक के  लेखक और गीतकार के लिए एक सीमा बना देती है। पर बड़ा लेखक – कवि –गीतकार उन सीमाओं को पार करता है। फिल्मी गीत भी तो  ऐरे –गैरे लोगों ने भी लिखे है और साहिर, शैलेन्द्र और गुलज़ार ने भी।
नुक्कड़ नाटक के गीत लिखना बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना है। उसकी अपेक्षाएं बड़ी हैं। वे गीत सीधे और स्पष्ट तो होने चाहिएं पर उनमें सपाट बयानी ना हों, उद्देश्यपरक तो हों पर पार्टी- संस्था के भोंपू ना हों, विचार से जुड़े हों पर विचार का अतिक्रमण भी करें, अभियान से जुड़े हों पर उसके वृहतर उद्देश्यों को भी प्रस्तुत करें, गुनगुनाएं जा सकते हों पर केवल तुकबंदी ना हों, भाषा आमफ़हम हो पर सस्ती ना हो, अपरिपक्व और अमर्यादित ना हो, अर्थगर्भित हों पर अबूझ ना हों, तात्कालिक उद्देश्यों को पूरा करते हों पर उनमें साहित्यिक अमरता का भी तत्व हो,  प्रतिबद्धताएं हों पर वे संकीर्ण ना हों, व्यापक समाज हित में हों। इन शर्तों की बात करना आसान है पर खरा उतरना मुश्किल ।  नरेश शांडिल्य  के नुक्क़ड़ नाटक के गीतों में सुखद आश्चर्य के रूप में यह सब विशेषताएं यथोचित अनुपात में पूरी परिपक्वता और पूर्णता के साथ उपलब्ध हैं। इसलिए यह गीत बीस – पचीस साल पहले लिखे जाने के बावजूद ताजा हैं, सदाबहार हैं और उन्होंने अपने तात्कालिक उद्देश्यों को तो पूरा किया ही है साथ ही उनका अतिक्रमण भी किया है और एक साहित्यिक कृति के रूप में अपनी विशिष्ट जगह बनाई है।
नुक्कड़ नाटक के उपलब्ध साहित्य में इन गीतों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमने देखा है कि ‘जन नाट्य मंच’ जैसे नाट्य दलों के लोग फिल्मी गीतों का इस्तेमाल करते हैं या सतही तौर पर सिचुएशनल गीत लिखते हैं। उन गीतों में जबरन उर्दु घुसेड़ी जाती  है और तात्कालिकता ही उसका प्राण तत्व है । इसलिए उनका जीवन क्षणिक ही रहा। नरेश शांडिल्य के मुखड़े सुनिए और सोचिए क्या उन्हें भुलाया जा सकता है। अब बात नहीं बस, अब समाज को बदल ही डालेंगे, भारत देश में हम  भारत की भाषाएं लाएंगे, बदलो – बदलो इस दिल्ली की सूरत को।.... हमने सीलमपुर, शाहदरा, शाहपूरा गांव, बोटक्लब, कनाट प्लेस, नेहरू प्लेस, दिल्ली विश्वविद्यालय, लखनऊ , मेरठ पट्टी के गांवो में गीत –संगीत के साथ सुना है वह कला को समाज के पास ले जाने का एक विशिष्ट अनुभव था। उसे याद करना लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले, बदलने वाले ऐतिहासिक क्षणों में साझीदार होना है और उन पलों की सबसे महत्वपूर्ण स्मृति इन गीतों पर  खिलखिलाते, जोश में आते , आक्रोशित, रोते हुए, उत्साहित होते, गाते लोगों की स्मृति है। एक साहित्यकार की विशेष उपलब्धि अगर भावनाओं का सह्दय में जाग्रत करना और साझीदार बनाना है तो इन गीतों के गीतकार और हमने उन भावनाओं में डूबे हजारों- हजारों लोगों के सैलाब को देखा है। किसी पुरस्कार , किसी मान्यता से उस आनंद की तुलना नहीं की जा सकती । हाँ, उन स्मृतियों में गायक –संगीतकारों का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।
नरेश शांडिल्य ने दोहे लिखे, गीत लिखे, गज़लें लिखीं, माहिए लिखे अब यह पुस्तक नुक्कड़ नाटकों के गीतों की है। यह उनकी पूरी रेंज को दिखाती है। यह आसान नहीं है। कठिन काम के लिए विलक्षण प्रतिभा चाहिए होती है। जीनीयस सरल बात को कठिन बनाने में नहीं । कठिन और जटिल सामाजिक उद्देश्यों को सरल भाषा और शब्दों में जन- जन के लिए पिरोना है। इन गीतों में ना केवल उन उद्देश्यों की पूर्ति है जिनके लिए यह लिखे गए थे परंतु एक स्वतंत्र साहित्यिक रचना के रूप में भी इनका महत्व है। यह गीत विभिन्न सामाजिक प्रयोजनों और उद्देश्यों के लिए आज भी प्रासांगिक और मौजूं है। जनता के पक्ष में रचनाशीलता के प्रमाण है और एक ईमानदार, बदलाव समर्थक, सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध हिंदुस्तानी की आवाज है । इन गीतों के प्रकाशन पर मेरी शुभकामनाएं-
अनिल जोशी