गुरुवार, 12 नवंबर 2015

प्रवीण शुक्ल के व्यक्तित्व की फोरेंसिक जांच





प्रवीण शुक्ल के व्यक्तित्व  की  फोरेंसिक जांच
अनिल जोशी

प्रवीण शुक्ल अच्छे कवि हैं...चर्चित कवि हैं..लोकप्रिय कवि हैं..उनकी एक ख्याति है.. , एक मार्केट.. है। प्रवीण शुक्ल एक अच्छे आयोजक हैं -विषयों का चुनाव..वक्ताओ का चुनाव..कार्यक्रम की सुरूचिपूर्ण व्यवस्था..प्रत्येक अतिथि को यथायोग्य सम्मान देना और भाषा और साहित्य के लिए जहां तहां अधिकतम योगदान देना उनके खूनउनके संस्कार में है। वे एक लोकप्रिय शख्सियत हैं , जो देश विदेश में कविता के लिए जानी जाती है। वे एक समर्पित अध्यापक हैं जो अपने विद्यार्थयों और स्कूल के प्रति गहरी निष्ठा और स्नेह रखते हैं। पर सबसे बड़ी बात यह है  एक निहायत  ही भलेनेकदिलसज्जनसहनशीलविवेकशील (  विवेकशील और मित्र विनयशील की तुक भी ठीक आ रही है)औरों के लिए कुछ करने को तत्पर इंसान के रूप में नज़र आते हैं । हम कह सकते है कि  इस गला काट प्रतियोगिता के युग में जब कविता मंच पर रह गयी है और मंच बाजार बन गया हैतो प्रवीण शुक्ल  पूरी संवेदना के साथ अच्छी कविता और अच्छे कवियों की संगत मे मनुष्यता के सरोकारों को बनाए रखने का भरसक प्रयत्न कर रहे हैं। 
अंग्रेजी में कहते हैं ‘A man is known by the company he keeps’ ,  या हिंदी में कहें तो  जैसी संगत वैसी रंगत ‘, साहित्यिक कार्यक्रमों मे सबसे ज्यादा वे भाई कुँवर बैचेन के साथ मिले हैं। कुंवर जी को सम्मान उनकी कविताओं पर चर्चा , उनकी अध्यक्षता में कवि सम्मेलन.. और ऐसे ही कितने प्रसंग । उन्होंने अपना शोध भी उनके अंतर्गत किया । यानि कुंवर जी उनके गुरू भी हैं। पर आजकल ज्यादातर ये हो रहा है कि गुरू घंटाल मिलते हैं ऐसे में कुँवर जी तो घंटाघर निकले जो अपने शिष्यों को युग और समयबोध का दिशादर्शन करा रहे है। उन्होने जिस तरह से प्रवीण शुक्ल को बनायातराशा साथ दिया , हाथ दिया ,मंच दिए ज्ञान दिया , वह सराहना योग्य है। प्रवीण जी को बधाई कि उन्होंने अपना रोल माडल सही ढूंढा । 

 प्रवीण शुक्ल पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंदी पट्टी से आते हैं। इस पट्टी ने हिंदी को कई कवि दिए हैं। नीरजसोम ठाकुरमधुर शाश्त्रीकुँवर बैचेन, किशन सरोज  आदि । इस पट्टी के अपने संस्कार हैं। एक तरफ रोली , चंदन , मेंहदीकुमकुम , रंगोली तो दूसरी तरफ ओज और शौर्य की कविता जिसके प्रतिनिधि कवि हरिओम पंवार है। इस पट्टी के गीतों में एक स्नेहएक संवेदना , एक  गहरा रागएक संस्कारशीलता मिलती है जो प्रवीण शुक्ल के कवि जीन में पहुंच गई  है-  

मन के आँगन में मना त्यौहार भी
बिन तुम्हारे सूना -सूना हो गया
जितना ज्यादा भूलना चाहा तुम्हें
उतना ज्यादा दर्द दूना हो गया
आँख से आंसू झरे अनगिन
अब तुम्हारी याद आए बिन



कितनी बार जीतकर हारे
आशाएँ इतनी दूरी पर
जितने चंदा सूरज तारे
दूरी का अनुमान लगाकर
रात-रात भर जाग रहे हम
बिना पते के पथिक सरीखे
जीवन पथ पर भाग रहे हम

ये भी कहती हैतुझको भूली मैं
और रहती है खोई - खोई भी

प्रवीण शुक्ल ने हास्य के लिए पारंपरिक छंद शैली अपनाई । यह हिंदी मंचों पर ओमप्रकाश आदित्य और अल्हड़ बीकानेरी की काव्य परंपरा का विस्तार है। उनकी लोकप्रियता में समकालीन स्थितियों की समझ , प्रत्युत्पन्नमति ( Presence of Mind) , विट, पंच के साथ हिंदी छंद की शक्ति भी है । जिससे एक साथ रस और काव्य चमत्कार की सृष्टि होती है।  हास्य कविता में छंदो का प्रयोग करने वाले  कवि बहुत कम है । उनकी सफलता में उनकी छंद साधना का भी बहुत हाथ है। 

प्रवीण शुक्ल का शोध अशोक चक्रधर पर है। यह भी अनायास नहीं है। अशोक चक्रधर वर्तमान मंच की कविता के शिखर पुरूष हैं। उनके पास भवानी प्रसाद मिश्र की बातचीत  की शैली और शरद जोशी के पंच हैं।  हास्य के रास्ते से व्यंग्य और व्यंग्य के रास्ते से करूणा की गलियों का गुगल मैप उनके पास है। मंच की कविता आज  फूहड़ हास्य के गंभीर संकट से जूझ रही है और हास्य कवियों के सामने शेष धाराओं के कवि अतिथि कलाकार लगते हैं। आयोजक विशेष रूप से हास्य कवियों को बुलाता है और बाकी कवि एक्सट्रा कलाकार हैं जो उसके आने और छाने की तैयारी करते हैं । हास्य कवियों को  लतीफेबाज ठेल रहे हैं , ऐसे में अशोका स्कूल ऑफ सेटायर एक महत्वपूर्ण संस्थान था जहां प्रवीण जी ने अकादमिक रूप से भी उनपर शोध कर और आन जाब’  कवि सम्मेलनों में साथ कविता सुना ट्रैनिंग की । आन जाब ट्रैनिंग में अभिव्यक्ति की सूक्ष्मताएं या आम आदमी की भाषा में कहें तो मंच के सारे लटक-झटके भी जान लिए होंगे। पर व्यंग्य की सूक्ष्म समझ विकसित करने के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण था और मेरे विचार से अशोक चक्रधर की व्यंग्य चेतना के अध्य्यन और समझ से उनकी वर्तमान सफलता और लोकप्रियता की नींव पड़ी है।

गीतव्यंग्य कविता पर ही प्रवीण शुक्ल नहीं ठहरे , वे महत्वाकांक्षी हैंवे बारीक कविता भी कातना चाहते थे। वो जानते हैं ,
 उनको ही शोहरत मिली जिनके थे तेवर अलग..
 गज़लों में उनकी रूचि थी। कुँवर जी से उन्हें यहां भी सहारा मिला पर दुर्गापुरी और गाजियाबाद में फासले को देखते हुए उन्होंने मंगल नसीम से संबंध विकसित किए और गज़ल की बारीकीयों पर काम करना शुरू किया । कुँवर बैचेन गुरू हैं तो मंगल नसीम उस्ताद। ग़ज़ल के इस मदरसे का प्रशिक्षण आसान नहीं है ।‘ यह इश्क नहीं आसां’ टाइप चक्कर है। परंतु कविता के विभिन्न रूपोंछंदों , भावों से निकलते हुए प्रवीण शुक्ल पकते गए ( आम की तरह हैं , इसीलिए)। उनमें ताजापन भी हैंमिठास भी , खुशबु भी और हास्य – व्यंग्य का खट्टा – मीठा स्वाद भी। 
उनके कुछ अशआर देखिए -
जिन परिंदों की किस्मत में पिंजरा लिखा
तूने उनको दिए थे ये पर किस लिए

जिस घर ने पाल पोस के तुमको बढ़ा किया
आँगन को उसके बांटो न दीवार की तरह
यह तो उनके ऊपर पड़ने वाले प्रभाव हैं। सवाल यह है कि यह आम है कहां का ! इसकी जड़े कहां हैदशहरी है , चौसर है…. इस काव्य गंगा का स्रोत कहां है । अगर इसे देखना हो तो आप उनके पिता जी से मिलें और जानना हों तो उनके जीवन और भाषा और साहित्य साधना को जानें। उनके पास बताने के लिए सैंकड़ों किस्से हैंउनके किस्सों में कवि सम्मेलनों और प्रख्यात कवियों के संस्मरणों की शहतूत सी मिठास है। हिंदी की संस्थाओं के घर फूंक कविता सुननेसुनाने वालों में उनका भी नाम है। हिंदी की संस्थाओं को चलाने में उन्होंने कई दशक लगा दिए। जब मैं कोई आयोजन और हिंदी के प्रति प्रवीण शुक्ल की निष्ठा देखता हूँ तो सोचता हूं यह  तो उनके पिता का एक्सटैंशन ही है। प्रवीण शुक्ल हिंदी के प्रति समर्पित , निष्ठावान उस पंरपरा का अंग है जिसके कारण इस देश में हिदी का पौधा पल्लवित – पुष्पित हुआ। उनके वर्तमान व्यक्तित्व के लिए मैं उनके पिता जी को साधुवाद देता हूँ और कामना करता हूँ कि अगली पीढ़ी में भाषा की संवेदना को देने के मामले में हम और प्रवीण जी भी वैसे ही पिता सिद्ध हों जैसे उनके पिता हैं। 
प्रवीण शुक्ल एक गद्यकार भी हूँ और कुंवर बैचेन के साथ ब्रिटेन के संस्मरणो पर लिखी गई उनकी पुस्तक 'सफर बादलों काउनकी गद्य क्षमता का सशक्त प्रमाण है।

प्रवीण शुक्ल का व्यक्तित्व और कृतित्व इस बात का प्रमाण है कि अपनी इमारत बनाने के लिए दूसरे की इमारत को ढहाना जरूरी नहीं है। उन्हें आप लोगो के बारे में छोटी और ओछी टिप्पणीया करते हुए नही पाएंगे। यह  उनके अपने  व्यक्तित्व संस्कार और संगत का प्रभाव है। प्रवीण का काव्य व्यक्तित्व कुंवर बैचेन अशोक चक्रधर , पश्चिमी उत्तर प्रदेश की हिंदी पट्टी से निकले नीरज, किशन सरोज, मधुर शाश्त्री छंद के महारथी ओमप्रकाश आदित्य, अल्हड़ बीकानेरी जैसे समृद्द काव्य परंपरा से ग्रहण करते हुए , .. उसमें फिर मिलाई जाए थोड़ी सी ... वाला मामला है। अपने परिवेश के प्रति सजग रहते हुए प्रवीण शुक्ल ने अपने को विकसित किया । आज देश - विदेश मे उनकी मान्यता है। दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। पर फिर भी उन्होने अपनी सरलता सहजता और स्निग्धता नहीं छोड़ी । उनका व्यंग्य समकालीन परिस्थितियो पर पैनी नज़र रखता है। आशाराम जी पर उनकी व्यंग्य आरती ऐसा ही एक तीक्ष्ण व्यंग्य है। कविता गीतग़ज़ल और व्यंग्य जैसी विधाओ को सिद्ध कर अपने व्यवहार और सोच से  रोज नए मित्र बनाते मित्रों को आत्मीय बनाते  प्रवीण शुक्ल मंच के बाजार में मनुष्यता के सरोकार लिए चंद शख्सो में से एक दिखाए देते है। इस साधना में उनके परिवार और पत्नी का भी बहुत योगदान है। उन्हें भी बहुत साधुवाद। ईश्वर करे वो अपनी इन खूबियो को कायम रखे और बढाए क्योंकि-

अगर अदब में काम करोगे,  तुमको सदियां याद रखेगी 

मंगलवार, 10 नवंबर 2015

फीजी में दीपावली- एक छोटे से दिए की ताकत


फीजी में दीपावली
एक छोटे से दिए की ताकत

ना तलवार, हथियार
ना ताकत , ना अधिकार
एक पोटली, 
यही तो थी, जब वो चले थे
सात समुद्र पार, एक सपने को पाने
साथ मे बस
एक दीप… रामनाम 
तुलसी के तेल से जलता …अविराम  

गोरा मुस्कराया
उसकी कुटिल नजरें देख 
उस दीप को सीने से चिपकाया

तूफानी हवा के थपेड़े
आकाश को चूमती लहरें
डरावनी प्रभात, प्रलय की याद दिलाती झंझावात, काली- घनी अधिंयारी रात

रिश्ते बन गए स्मृतियां
माता - पिता, प्रेम , घर, चौबारा
पीछे के दृश्य धीरे - धीरे गए खो
केवल जलती रही 
टिमटिमाते हुए दीपक की लौ


गोरे का अहंकार था
जालिम सरदार था
बेनामी थी 
गुलामी थी
जलालत थी
पीड़ा ,आंसू . गहरी अंधियारी सुरंग

बस एक टिमिटिमाता दीप 
दिखाता था रोशनी

कहता था
देखो अंत में बजता है सत्य का डंका
कितनी ही वैभवशाली हो
जल ही जाती है, सोने की लंका
रावण का आसुरी शक्ति, दस सिर होने का अहंकार अंततोगत्वा  बेकार जाता है
एक छोटे से दीपक के आगे 
घनी रात का अंधेरा आखिर हार जाता है

दीपक अनंत ऊर्जा का स्रोत इसलिए है
कि वह भी तो आखिरकार सूर्य का पुत्र है..
सच्चाई तो यह है कि जीवन संघर्ष में -भीतर - बाहर का प्रकाश  ही जीत का सूत्र है.

जीवन भर उस टिमटिमाते दीप से ही
पाते रहे दिशा
उसके सहारे ही कट गई  जिंदगी की काली अंधियारी निशा
अंधियारे से की जिंदगी भर लड़ाई
और
जब आखिरी बेला आई , 
यही विरासत बच्चों को पकड़ाई

एक नाम
एक देश
वो शब्द.. जिसमें  सांस्कृतिक इतिहास कसमासाता है
वो… जो रामनाम की लौ से जगमगाता है
वही… जो  पहचान है
वही… जिसकी वजह से 
लोग कहते हैं कि देखो… ये संस्कृति महान है
एक दृष्टि….
जिसमें समायी है… पूरी सृष्टि
सात समुद्र पार
गुजर गए साल.., दशक .., सदी.. 
आज भी बह रही है, तुलसी के स्रोत से निकली , वही… संस्कारों की नदी
 जल रहा है… जलता रहेगा…  गर्व और गौरव के साथ
अनंत प्रकाश से भरा 

 वही छोटा सा दिया

शनिवार, 7 नवंबर 2015

शब्द एक रास्ता है


शब्द एक रास्ता है
शब्द एक रास्ता है
मेरा विश्वास है
यह सोचकर मैंने उसे पुकारा
पर उधर से कोई उत्तर नहीं मिला
मैंने फिर सोचा

शब्द एक रास्ता है
और शब्दों को कागज पर उतार कर
एक जहाज बनाया
उसे उड़ा दिया
तुम्हारे मनदेश में
पर पता नहीं कहां लैंड किया वह


मैंने फिर दोहराया
शब्द एक रास्ता है
फिर से उसे कागज पर उतारा
और भावनाओं के सागर में उतार कर  कश्ती बना कर छोड़ दिया
घूमता रहा  वह ना जाने कौन - कौन कौन से द्वीप 


पर मेरा विश्वास टूटा नहीं
 मैेंने शब्दों को प्राथनाओं में पिरोया
समर्पण से उसका अभिषेक किया
अब वे मंत्र बन गए
देखो  चट्टान से झरना फूटा
बन गया सागर पर पुल
मैंने कहा था ना
शब्द एक रास्ता है
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गुरुवार, 5 नवंबर 2015

कारावास में खिड़की


कारावास में खिड़की
कारावास में छोटी सी कोठरी
कोठरी के कोने में एक खिड़की
तीसरे दरजे के टार्चर के बाद
भीतर तक टूटा हुआ
देख रहा है एकटक
छत की तरफ नहीं
खिड़की की तरफ

खिड़की जालीदार नहीं है
उस पर शीशा लगा है
उससे हवा नहीं आती
हवा जितनी भी आती है
दरवाजे के नीचे से आती है
दरवाजे के बीच में एक जाली है
जिससे उसको मिलता है
लानतों के साथ दो वक्त का खाना
पर उसे लगता है
वह हवा और खाने की वजह से नहीं
खिड़की की वजह से जिंदा है

खिड़की से दिखता है
पूरा आकाश नहीं
आकाश का कोना
खिड़की देती है
उसकी स्मृतियों का आयाम
परिवार , छुटे हुए मित्र, बचपन ,  प्रेम
खिड़की देती है
इतनी जलालत और जिल्लत और थर्ड डिग्री टार्चर के बाद
जीने की वजह

कभी कभी खिड़की पर बैठ जाती है चिड़िया
खटखटाती है,
संवाद करती है
उसे बाहरी दुनिया की खबर देती है
तब उसे पता लगता है
अब भी धरती में है स्पंदन

कभी कभी उसे लगता है
यह खिड़की एक दिन बन जाएगी दरवाजा
और उसे ले जाएगी
नीले आकाश के उस पार
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anilhindi@gmail.com

इधर एक अकेला सच था

इधर एक अकेला सच था
निहत्था और अहिंसक
दूसरी तरफ झूठ का विशाल साम्राज्य
अपने पूरे सैनिक साजो-सामान के साथ
झूठ ने सच के तीन टुकड़े किए
एक को उठा कर फेंक दिया
हिमालय के दूसरे तरफ

हिमालय की वादियों पर थे खून के निशान
हिमालय से आने वाली बर्फीली हवाएं
सायं - सायं कर
टकराती खिड़कियों से
कहती लहुलूहान कहानी

सच्चाई के दूसरे अंश को डाल दिया
कारागार में
पर झूठ को विश्वास नहीं था अपने सैनिकों पर
रात को सोते- सोते वह जाग जाता
और देखता
सच्चाई को बंधा हुआ जंजीरों में
जांच करता उसके गर्भ में क्या पल रहा है

कहीं आठवां शिशु तो नहीं

सच्चाई मुस्कराती
यातना में करूणामयी मुस्करहाट
एक बेड़ी और बढ़ाने का आदेश देता झूठ

अपनी नींद में आश्वास्त होता

सच के तीसरे अंश को
मिलाया झूठ में कुछ इस तरह
झूठ लगे सच से ज्यादा चमकदार
यातनागृह बनाए गए ताजमहल से भी खूबसूरत
देखने आते पर्यटक
देखते सच की फोटुएं
खुशी- खुशी झूठ के साथ दावतें उड़ाते

सच लहुलुहान था
सच कारागार में था
सच दयनीयता के साथ दर्शनीय था
सच  अकेला था
सच की सबसे बड़ी ताकत यह थी कि
वह सच था

इतने वर्ष , दशकों  बाद भी
दीप की तरह जलता रहा सच
पर ना जाने क्यों बार -बार बुझने लगी है झूठ की मशाल




रणनीति




रणनीति
छुपा लेता हूँ
अपने आक्रोश को नाखून में
बदल देता हूँ
अपमान को हंसी में
आत्मसम्मान पर होने वाले हर प्रहार से
सींचता हूँ जिजिविषा को


नहीं

ना पोस्टर , ना नारे, ना इंकलाब
मन के गहरे पोखर से
ढूँढ कर लाता हूँ एक शब्द
पकाता हूँ उसे, आत्मा की आँच पर
बदलता हूँ कविता में
लाकर रख देता हूँ
मोर्चे पर

शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

समय हमें रचता है


फोटो - सरोज शर्मा

समय हमें रचता है

समय सबको गढ़ता है
तोड़ता है, बनाता है, मांजता है
घाव देता है,
जख्म भरता है
हम समय को रचते हैं
समय हमें रचता है

समय हमसे पूछता है
आदमी बनना चाहते है
भीड़
हम भीड़ बनना चाहते हैं
समय देखता है आदमी को भीड़ बनते...
समय चुपचाप प्रतीक्षा करता है..
निश्चित वर्ष,
और हमारे लिए सुरक्षित करता है जगह
 लकड़ियों का इंतजाम


जो समय की नदी में देखते हैं अपनी परछाईं
और कूद पड़ते है
अतल तल में
बेपरवाह भंवरों से
वे  छोड़ते  हैं निशान तटों पर



समय देखता है 
हमें छलांग लगाते हुए
चीखते हुए
वह हमे रोकता है
पर हम उसकी सुनते कहां है
अपनी विशिष्टता के मारे
जब सेंकते है 
अपनी हड्डियो
तो समय सांत्वना देता है
मरहम लगाता है
मैं कल भी हूँ..... दोस्त

समय देखता है
उन्मत्त चेहरों को मुकुट और मुखौटे लगाए
विदूषक की तरह 
समय हंसता है, लोटपोट हो जाता है
सुबह कुड़ेदान में 
दिखते हैं मुकुट, नोचे जाते हैं मुखौटे 
समय देखता है सिकंदर को मलेरिया से मरते हुए


जीवन जो सहेजता है 
समय को
प्रेम से 
किसी मुस्कान को
गुलाब में परिवर्तित कर देता है
उसकी सुगंध से भर लेता है
खुद को
एक पत्ती रह जाती है
किसी 
कविता की किताब में
स्मृति समय की
प्रेम की
प्रेम क्षण को अमर कर देता है
ताजमहल की तरह 

हम देखते है समय को
घाट से
नदी की तरह बहते 
सोचते है 
इतनी है इसकी गति, माप, आकार, 
समय की लहर हंसती है
जाती है सागर तक
छोड़ती घाट, पेड़, अमराईयां, झूले, प्रेम, घृणा

समय भर देता है
चेहरे को झूर्रियों से
विकलांग बना देता ह
बालों में चांदी ला देता है
उसके पास हमारे लिए निश्चित कालखंड है
तोड़ता है देह का दर्प ,अमरता का
झुका देता है, तोड़ देता है उनकी डालियों को
सुखा देता है
देता है पीड़ा, 
फिर देता है हरियाली, आशा विश्वास

समय सरल नही वक्र है
सीढ़ी नहीं चक्र है

गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

होने का अर्थ




बहुत दिनों से ना मुलाकात
ना बात
ना चिट्ठी, ना फोन ,ना ई- मेल
यूं तो निकला सूरज, हुआ दिन
यू तो निकला चांद, हुई रात
पर लगता है सब कुछ वहीं रहा खड़ा
समय आगे नहीं बढ़ा

क्या तुम नाराज हो
या संकोच है
आत्मा पर यह कैसा बोझ है
इसे उतारो
मिलो ,बातें करो, मुझे समझाओ
किसी भी कीमत पर मुझसे दूर नहीं जाओ

यह पत्र नहीं है, यह स्वालाप है
जो रोज करता हूँ
पूछता हूं, अपने होने का अर्थ
आह्वान करता हूँ -स्व: का


अपने को समय के बरक्स रख
समय जो बीत गया
समय जो  बीत रहा है
समय जो है क्षितिज के पार

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

क्यों खास है नरेश शांडिल्य के नुक्कड नाटक के गीतो की पुस्तक - अग्निध्वज


सन 1985 -2000 तक हमारी टीम, जिनमें मैं प्रमोद शाश्त्री और नरेश शांडिल्य शामिल थे, ने ‘सक्रिय नाट्य मंच’ के नाम से नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में काम किया और सैंकड़ो प्रस्तुतियों से भाषा आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विरोध , भ्रष्टाचार विरोध, राष्ट्रीय अस्मिता को पोषित करने वाले अभियानों- आंदोलनों का समर्थन किया देखते ही देखते यह मंच नुक्कड़ नाटकों के क्षेत्र में एक सशक्त आवाज बन गया। मंच में ज्यादातर नाटकों के लेखन और निर्देशन का दायित्व मैंने निभाया तो अभिनय का दायित्व मुख्य रूप से अत्यंत लोकप्रिय और प्रतिभाशाली अभिनेता प्रमोद शाश्त्री के पास था। परंतु इन नाटकों का अत्यंत प्रभावी, धारदार पक्ष जिसने इन्हें लोकप्रियता के शिखर पर बिठाया वह इन नाटकों का गीत – संगीत था। नरेश शांडिल्य के गीतों ने उन अभियानों- आंदोलनों के मूल भाव को गीतों में पिरोया और अंबरीश पुन्यानी , जफर संजरी, राजीव राज ‘आदित्य’ और संजय प्रभाकर जैसे गायक –संगीतकारों के साथ मिलकर उसे जनप्रिय बनाया।
नुक्कड़ नाटक एक विशिष्ट विधा है । साहित्य का उद्देश्य बदलाव लाना है परंतु यह बदलाव दिखाई नहीं देता तो साहित्यकार निराश हो जाता है। उसे लगता है उसका लिखा व्यर्थ गया। परंतु नुक्कड़ नाटक का माध्यम स्पष्ट और तत्काल परिवर्तन की अपेक्षा करता है।  रचनाशीलता से समाज में बदलाव का औजार बनता है, उसमें भागीदार बनता है । इस विधा का उपयोग इप्टा और जन नाट्य मंच ने अत्यधिक किया । सामाजिक आंदोलनों में बदलाव के एजेंट के रूप में  अगर कोई नवीनतम उदाहरण ही लेना हो तो अन्ना हजारे के आंदोलन में भी परिवर्तन के औजार के रूप में नुक्कड़ नाटकों का उपयोग किया गया। यद्य़पि ज्यादातर यह बदलाव का औजार तो बनता है परंतु बहुधा व्यवस्था परिवर्तन का नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन का।  हबीब तनवीर और सफदर हाशमी जैसे नाम इस विधा में से ही निकले और हमारे सांस्कृतिक लैण्डस्केप का अंग बन गए। लेकिन नुक्क़ड़ नाटकों से जुड़े कलाकारों को वह दर्जा नहीं मिलता जैसा कि थियेटर के कलाकारों को। अपनी आत्मकथा में शबाना आजमी की मां शौकत आजमी ने हबीब तनवीर तक के नाटकों का जिक्र तक बहुत सम्मान से नहीं किया। नुक्कड़ नाटक के कलाकारों को मौटे तौर पर केवल ‘ एक्टिविस्ट’ माना जाता रहा है।
अगर नुक्कड़ नाटक के कलाकारों के योगदान को यथोचित सम्मान नहीं मिलता तो उसके लेखन और गीतों को अपेक्षित सम्मान कैसे मिलता ? यद्यपि दूसरी तरफ जनता उनके काम और संदेश को स्वीकार करती है और तद्नुरूप परिवर्तन में भागीदार बनती है। राष्ट्रीय- सांस्कृतिक विचारधारा में जहां पारंपरिक सोच और माध्यम महत्वपूर्ण हैं वहां उनके महत्व को रेखांकित करना और भी कठिन था। इन परिस्थितियों में नरेश शांडिल्य के गीतों का महत्व और भी बढ़ जाता है। यह गीत उनकी लेखन क्षमता के साथा उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता का भी आईना हैं और एक एक्टिविस्ट के रूप में उनके जीवन के महत्वपूर्ण पक्ष को उजागर करते हैं।
संकल्प जोशी , अभिनेता जिन्हें यह पुस्तक समर्पित है

नुक्कड़ नाटकों के लिए गीत स्वतंत्र नहीं होते वे किसी घटना और परिस्थति का हिस्सा होते हैं। आप कह सकते हैं यूं तो फिल्मों के गीत भी किसी ना किसी सिचुएशन के लिए लिखे जाते हैं। परंतु नुक्कड़ नाटक के गीत तो एक तात्कालिक उद्देश्य किसी अभियान, आंदोलन या व्यवस्था विरोध के लिए लिखे जाते हैं और उसका उद्देश्य निर्धारित उद्देश्य के लिए मोबलाईजेशन होता है और दर्शक भी मजदूर, किसान , मजदूर , आम आदमी, राह चलते लोग होते हैं जिन्हें अभियान या आंदोलन को साफ, स्पष्ट भाषा में बताना होता होता है और अभिव्यक्ति की शब्दावली, मुहावरे, मिजाज़ ऐसा होते हैं जो त्तत्काल उसे उद्देश्यों के साथ जोड़ दें। यह उद्देश्यपरकता नुक्क़ड़ नाटक के  लेखक और गीतकार के लिए एक सीमा बना देती है। पर बड़ा लेखक – कवि –गीतकार उन सीमाओं को पार करता है। फिल्मी गीत भी तो  ऐरे –गैरे लोगों ने भी लिखे है और साहिर, शैलेन्द्र और गुलज़ार ने भी।
नुक्कड़ नाटक के गीत लिखना बड़ी कठिन परीक्षा से गुजरना है। उसकी अपेक्षाएं बड़ी हैं। वे गीत सीधे और स्पष्ट तो होने चाहिएं पर उनमें सपाट बयानी ना हों, उद्देश्यपरक तो हों पर पार्टी- संस्था के भोंपू ना हों, विचार से जुड़े हों पर विचार का अतिक्रमण भी करें, अभियान से जुड़े हों पर उसके वृहतर उद्देश्यों को भी प्रस्तुत करें, गुनगुनाएं जा सकते हों पर केवल तुकबंदी ना हों, भाषा आमफ़हम हो पर सस्ती ना हो, अपरिपक्व और अमर्यादित ना हो, अर्थगर्भित हों पर अबूझ ना हों, तात्कालिक उद्देश्यों को पूरा करते हों पर उनमें साहित्यिक अमरता का भी तत्व हो,  प्रतिबद्धताएं हों पर वे संकीर्ण ना हों, व्यापक समाज हित में हों। इन शर्तों की बात करना आसान है पर खरा उतरना मुश्किल ।  नरेश शांडिल्य  के नुक्क़ड़ नाटक के गीतों में सुखद आश्चर्य के रूप में यह सब विशेषताएं यथोचित अनुपात में पूरी परिपक्वता और पूर्णता के साथ उपलब्ध हैं। इसलिए यह गीत बीस – पचीस साल पहले लिखे जाने के बावजूद ताजा हैं, सदाबहार हैं और उन्होंने अपने तात्कालिक उद्देश्यों को तो पूरा किया ही है साथ ही उनका अतिक्रमण भी किया है और एक साहित्यिक कृति के रूप में अपनी विशिष्ट जगह बनाई है।
नुक्कड़ नाटक के उपलब्ध साहित्य में इन गीतों का महत्वपूर्ण स्थान है। हमने देखा है कि ‘जन नाट्य मंच’ जैसे नाट्य दलों के लोग फिल्मी गीतों का इस्तेमाल करते हैं या सतही तौर पर सिचुएशनल गीत लिखते हैं। उन गीतों में जबरन उर्दु घुसेड़ी जाती  है और तात्कालिकता ही उसका प्राण तत्व है । इसलिए उनका जीवन क्षणिक ही रहा। नरेश शांडिल्य के मुखड़े सुनिए और सोचिए क्या उन्हें भुलाया जा सकता है। अब बात नहीं बस, अब समाज को बदल ही डालेंगे, भारत देश में हम  भारत की भाषाएं लाएंगे, बदलो – बदलो इस दिल्ली की सूरत को।.... हमने सीलमपुर, शाहदरा, शाहपूरा गांव, बोटक्लब, कनाट प्लेस, नेहरू प्लेस, दिल्ली विश्वविद्यालय, लखनऊ , मेरठ पट्टी के गांवो में गीत –संगीत के साथ सुना है वह कला को समाज के पास ले जाने का एक विशिष्ट अनुभव था। उसे याद करना लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले, बदलने वाले ऐतिहासिक क्षणों में साझीदार होना है और उन पलों की सबसे महत्वपूर्ण स्मृति इन गीतों पर  खिलखिलाते, जोश में आते , आक्रोशित, रोते हुए, उत्साहित होते, गाते लोगों की स्मृति है। एक साहित्यकार की विशेष उपलब्धि अगर भावनाओं का सह्दय में जाग्रत करना और साझीदार बनाना है तो इन गीतों के गीतकार और हमने उन भावनाओं में डूबे हजारों- हजारों लोगों के सैलाब को देखा है। किसी पुरस्कार , किसी मान्यता से उस आनंद की तुलना नहीं की जा सकती । हाँ, उन स्मृतियों में गायक –संगीतकारों का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है।
नरेश शांडिल्य ने दोहे लिखे, गीत लिखे, गज़लें लिखीं, माहिए लिखे अब यह पुस्तक नुक्कड़ नाटकों के गीतों की है। यह उनकी पूरी रेंज को दिखाती है। यह आसान नहीं है। कठिन काम के लिए विलक्षण प्रतिभा चाहिए होती है। जीनीयस सरल बात को कठिन बनाने में नहीं । कठिन और जटिल सामाजिक उद्देश्यों को सरल भाषा और शब्दों में जन- जन के लिए पिरोना है। इन गीतों में ना केवल उन उद्देश्यों की पूर्ति है जिनके लिए यह लिखे गए थे परंतु एक स्वतंत्र साहित्यिक रचना के रूप में भी इनका महत्व है। यह गीत विभिन्न सामाजिक प्रयोजनों और उद्देश्यों के लिए आज भी प्रासांगिक और मौजूं है। जनता के पक्ष में रचनाशीलता के प्रमाण है और एक ईमानदार, बदलाव समर्थक, सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध हिंदुस्तानी की आवाज है । इन गीतों के प्रकाशन पर मेरी शुभकामनाएं-
अनिल जोशी

शनिवार, 26 सितंबर 2015

क्या तुमने उसको देखा है



वो भटक रहा था यहाँ - वहाँ
ढूंढा ना जाने कहाँ - कहाँ
जग चादर तान के सोता था
पर उन आँखों में नींद कहाँ ।

गंगा जल का भी पान किया
पोथी-पुस्तक सब छान लिया
उन सबसे मिला जो कहते थे
हमने ईश्वर को जान लिया। 

दिल में जिज्ञासा का बवाल
मन में उठते सौ-सौ सवाल
समझाते वो पर समझें ना
तर्कों के फैले मकड़ -जाल। 

ज्ञानी - ध्यानी, योगी महंत
बहुविध से उसको समझाते
क्या तुमने उसको देखा है
सुनते तो बस सकुचा जाते

क्या उसको कभी न पाऊंगा
न मेरे हाथ में  रेखा है
क्या कोई नहीं जो यह कह दे
' हाँ, मैने उसको देखा है।

दक्षिणेश्वर में एक योगी है,
वो हरि  लगन में रहता है
काली की ज्योती है उसमें,
वो उसकी धुन में रहता है

अनपढ़ योगी औ’ ब्रहज्ञान
मन ये तो समझ न पाता था,
पर जाने क्या आकर्षण था
जो बरबस खींचे जाता था।

सैंकड़ों प्रश्न,जिज्ञासाएं
और अविश्वास ने पर खोले
मन में लेकर आशंकाएं
वे परमहंस से यूँ बोले-

वेद पुराण मुझे न सुनना
आज -नहीं , जाओ कल आना
मुझे आज औ’ अभी बताओ
क्या तुमने उसको देखा है ?

है वो कितने शीशों वाला
नीला-पीला है या काला ?
मोर मुकुट या नाग की माला
या है उसके मुंह में ज्वाला ?

या है वो एक दिव्य अग्नि – सा
यज्ञों के पावन प्रकाश सा
निराकार या फिर वो सगुण है,
मुझे बताओ क्या-क्या गुण है ?

मुझको लगता वो एक छल है
पंडों का बस वो एक बल है
उसका नाम है इनका धंधा
मैं समझा ये गोरखधंधा।

वरना तुम मुझको बतलाओ
जिसो कण-कण में गीता है
जिसके घर-घर राम नाम है
वो भारत फिर क्यों गुलाम है ?

ये भूखा फिर क्यों भूखा है ,
ये प्यासा, फिर क्यों प्यासा है
है दीनदुखी, क्यों दीनदुखी
क्यों टूटी उसकी आशा है ?

क्यों  हैजा है , क्यों अकाल है
क्यों जन-जन का  बुरा हाल है 
केवल निर्धन को ही डसता
ये कैसा  निर्दयी काल है  ?

प्रश्न सैकड़ों , प्रश्न निरंतर,
मुझको मथते,
न जगने,न सोने देते,
प्रश्न चुटीले, प्रश्न नुकीले
ना हँसने,ना रोने देते

मौन रहे कुछ क्षण गुरूवर
गंभीर हुए,फिर हर्षाये
नदिया का स्वागत करने को
सागर ज्यों बाहें फैलाए

हॉं मैंने उसको देखा है
जैसे तुमको देख रहा हू।

मेरे संग-संग वो रहता है
मेरे संग उठता सोता है
जब- जब मैं व्याकुल होता हूँ
मेरे संग-संग वो रोता है।

वो जड़ में है,चेतन में है
वो सृष्टि के कण-कण में है
तू ढ़ूंढ रहा है उसे कहाँ,
वो तेरी हर धड़कन में है।


पर जब तू उसको देखेगा,
फिर देख न पाएगा माया,
हो अँधकार से प्रीत जिसे
उसने प्रकाश को कब पाया !

कैसा भ्रम है,कैसा संशय
तू ही तो ज्ञान का स्रष्टा है
औरों नें केवल सुना सत्य,
भारत ही उसका द्रष्टा है

कर्म-कर्म निष्काम कर्म
हर क्षण अपना उसको दे दो
ये पल-दो-पल का जीवन है
आलस में इसको मत खो दो!

वो एक टांग पर खड़ा हुआ,
वो अंगारों चढ़ा हुआ,
वो तो पानी पर चलता है
वो जिंदा सांप निगलता है।

ये जादू भी कोई जादू है
ये साधु भी कोई साधु है ?

एकांत गुफा, व्यक्तिगत मोक्ष
सन्यास नहीं,पलायन है
ये कैसा उसका आराधन है
नर ही तो नारायण है !

कर्मों से मुक्ति , मुक्ति नहीं
फल से मुक्ति ही मुक्ति है,
जो तम का बन्धन दूर करे
वे युक्ति ही तो युक्ति है ।

तेरे संचित कर्मों के क्षण
उड़ जाते बन वर्षा के कण
ये ही बादल,ये ही बिजली
ये धूप-चांदनी खिली-खिली।

ये ही सावन, है यही फाग
गाते मेघ मल्हार राग।

सह कर मौसम की अथक मार
झंझावात से किया प्यार

उससे  स्वेदकण पाती ही
प्यासी धरती मुस्काती है
ये उसके यौवन की मदिरा,
वो फिर जवान हो जाती है।

दामिनी दमकती दमक-दमक
धरती गाती है झनक-झनक

वे फिर बसंत लेकर आता
महका करते हैं घर आंगन
बन बीज उगा जो माटी में
करता वसुधा का अभिनंदन।

सच का उजियारा यही तो है
हम सबका प्यारा वही तो है।

वो ही केशव,वो ही त्रिपुरारी,
वो ही तो है सम्पूर्ण काम
शंकर ,माधव,ब्रह्मा,विष्णु
ऐसे जाने कितने सुनाम।

हो मोर मकुटु या जटा ,शँख 
या हो कांधे पर धनुष-बाण
हों राम,मोहम्मद या ईसा
शिव हों या फिर करूणानिधान ।

जैसा जो मन में भाव भरे
वैसा ही उसका नाम धरे

मर्यादा पर जो चले सदा
मर्यादा पुरूषोतम  वही तो है
सबके मन को मोहित करता
मनमोहन-नटनागर  वही तो है।

जब होड़ लगी हो अमृत की
विष धारे  शंकर  वही तो है।

है एक सत्य,जिसको हम तुम
नाना रूप में पाते हैं
है एक वही ,फिर पाखंडी
क्यों अलग-अलग बतलाते हैं।

काया-माया ,ये आकर्षण
सब नश्वर है,सब नश्वर है
तू देह नहीं,ना रक्त चाम ,
तू ईश्वर है,तू ईश्वर है

मानव की छाया छूने से
होते जो पतित गिर जाते हैं
सूर्यास्त तुरंत होता उनका
वो घोर तिमिर में जाते हैं।

अविजित,समदृष्टा  नारायण
निष्कपट प्यार से हारे हैं ।
सोने की लंका ठोकर पर,
शबरी के बेर ही प्यारे हैं।

गीता के चिर आदर्शों को
कर्मों को तूने कब ढाला
बिठलाकर उसको मंदिर में
पहना दी फूलों की माला 

लहरें देती हैं आमंत्रण
ये बिजली तुम्हें बुलाती है,
जिसमें पानी है,लोहा है
उसको आवाज लगाती है।

क्षण-क्षण मृत्यु की बेला है
क्षण-क्षण जीवन अलबेला है
उसने ही पाया है अमृत
जो बढ़ा आग से खेला है।

समझा था यूं कुछ-कुछ यह मन
पर भ्रम में रहता था यह मन
इस युग का अर्जुन मांग रहा
प्रत्यक्ष हरि का ही दर्शन।

फिर स्पर्श किया ज्यों ही गुरू ने
नस-नस में बिजली दौड़ गई
चेतना हुई जाग्रत ऐसे
धरती को,नभ को छोड़ गई।

इतिहास रचा नूतन उस क्षण
चेतन ने चेतन को पकड़ा
वो जन्म-जन्म का बंधन था
चेतन ने चेतन को जकड़ा।

मंथर गति से बहता निर्झर
सौ-सौ कोयल के मादक स्वर,
वो मिलन का मधुरिम गीत हुआ,
वो दृश्य वर्णनातीत हुआ ।

कैसी शंका या ,आशंका
बस अकथनीय आनंद हुआ,
 उस ज्योति के पा जाने  से
’नरेन’ विवेकानंद हुआ ।