गुरुवार, 5 नवंबर 2015

रणनीति




रणनीति
छुपा लेता हूँ
अपने आक्रोश को नाखून में
बदल देता हूँ
अपमान को हंसी में
आत्मसम्मान पर होने वाले हर प्रहार से
सींचता हूँ जिजिविषा को


नहीं

ना पोस्टर , ना नारे, ना इंकलाब
मन के गहरे पोखर से
ढूँढ कर लाता हूँ एक शब्द
पकाता हूँ उसे, आत्मा की आँच पर
बदलता हूँ कविता में
लाकर रख देता हूँ
मोर्चे पर

2 टिप्‍पणियां:

  1. आप की भावपूर्ण रचना पसन्द आई । लगता है कि फ़ीजी में आप की कविता परवान चढ़ रही है । मेरी बधाई और शुभकामनाएँ लें ।

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