रविवार, 22 जुलाई 2018

'प्रवासी लेखन: नयी ज़मीन , नया आसमान' से ऐसा लगा ग्रेजुएट हो गया है प्रवासी लेखन

'प्रवासी लेखन: नयी ज़मीन , नया आसमान' से ऐसा लगा ग्रेजुएट हो गया है प्रवासी लेखन
                                                                             डॉ सुषम बेदी           
                                एमरेटस प्रोफेसर , कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क





प्रवासी साहित्य को लेकर ज्यादातर विश्वविद्यालयों के छात्रों की शोध मे रुचि तो अकसर सुन जाती थी पर उसे लेकर स्वतंत्र पुस्तक की रचना के बारे में नहीं सुना था. हां कुछेक लेख जरूर देखने को मिले पर लगता है किसी भी हिंदी लेखक को वह इस लायक नहीं लगा कि उस पर पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सके.  तभी जब अनिल जी ने कुछ शब्द लिखने के लिये अपनी पुस्तक "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान " के अंश भेजे तो लगा कि अब प्रवासी लेखन बाकायदा सारी कक्षायें पास करके ग्रेजुएट हो गया है. अब उसे भी एक पढेलिखे साहित्य समाज के सम्मानित सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है.  यूं सच मे इस साहित्य की यात्रा बेहद कठिन रही है.  देखा जाये तो यह बहुत कुछ २१वी सदी का ही फिनामना है.  मुझे याद है अाठवें  दशक के अंत अौर नवें दशक में जब मेरी कहानियां हिंदी की मुख्य पत्रिकाअों(धर्मयुग, सारिका, हंस, साप्ताहिक हिंदुस्तान, वागर्थ अदि) में छप रही थीं तो पाठकों का ध्यान तो जरूर उन पर जाता था, मुझे हर कहानी पर िहंदुस्तान के अलग अलग शहरों से ढेर सारी प्रशंसात्मक चिट्ठियां भी मिला करती थी अौर १९८८-८९ में जब कमलेश्वरजी ने गंगा मे मेरे उपन्यास "हवन" को धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया तो उसके विषय की नवीनता को लेकर उन्होंने उसे नयी जमीन तोडनेवाला उपन्यास कहा.  हवन की चरचा खूब हुई फिर भी किसी ने मुझे प्रवासी उपन्यासकार नहीं कहा.  मजेदार बात है कि सबसे पहले जब "हवन"१९९३ मे अंग्रेजी मे "द फायर सेक्रेफाइस" नाम से इंगलैंड से छपा वहां मुझे अमरीका मे रहनेवाली हिंदी कथाकार, यानि कि एक डायसपोरा हिंदी लेखिका के रूप मे देखा गया--ये मेरी नयी पहचान थी, मेरे लिये  नयी.  मैं तब भी खुद को हिंदी की, भारत की कथाकार ही मानती थी, मेरी नागरिकता भी भारत की थी.   हवन के उपर लिखे गये  श्री के। बी।एल पाडेय अौर पुष्पपाल सिंह जी के समीक्षात्मक लेखों मे मेरी गिनती उषा प्रियंवदा, निर्मल वर्मा, महेन्द्र भल्ला अादि भारत से बाहर रहकर लिखने वालों मे की गयी पर ऐसा कोई वर्गीकरण नहीं किया गया कि मैं प्रवासी लेखिका हूं.  फिर पता नहीं कब यह मुहिम चल पडा कि प्रवासी साहित्य को मान्यता मिलने चाहिये. मुझे अपना इस तरह कहलाया जाना अच्छा नहीं लगा था.  पर मेरे लिये अहमियत मेरे लेखन की ही रही. कोई क्या कहता है इस पर कभी गौर नहीं किया.  मैं हमेशा शमशेरबहादुर जी की कविता के शब्दों मे कहती रही अौर अाज भी कहती हूं-"बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलेगी, बात ही."

मेरा इंगलैड जाना होता रहता है. लंदन का भी खास अाकर्षण है.  फिर वहां हिंदीवाले भी खूब मिले तो अाकर्षण अौर बढ गया.  हर ट्रिप मे नेहरु सेंटर मे दिव्या माथुर से जरूर मुलाकात होती थी.  वहां हिंदी साहित्य की सरगर्मी खूब थी.  धीरे धीरे दिव्या के ही जरिये दूसरे लेखकों से भी मुलाकात हुई.  २००४-५ में मुझे अपने पति के साथ लंदन में महीना महीना बिताने का मौका मिला. तभी मुलाकात हुई थी अनिल जोशी जी से.  उन दिनों तो सचमुच हिंदी की खूब हलचल थी, कवि सम्मेलन, कहानी पाठ, कुछ न कुछ होता रहात. सिरफ लंदन ही नहीं, बर्मिंघम.  यार्क मे महेन्द्र वरमा जी अौर उषा वरमा ने मुझे कहानी की वर्कशाप देने के लिये बुलाया था.  बरमिंघम भी गयी भाषण के लिये. लंदन के सारे लेखकों से मिली. तेजेन्द्र शर्मा का कथा यूके भी जोर पर था. उनकी संस्था मे भी कहानी पाठ किया. उषा राजे से भी लंबी बातचीत.  इस तरह इंगलैंड के साहित्यिक  माहौल से मैं बहुत प्रभावित हुई थी.  यूं मैं न्यूयार्क मे कहानी गोष्ठी करती रहती हूं पर लगा कि यहां वैसा साहित्यिक माहौल नहीं बन पाया जैसा इंगलैंड मे है.  खुद ही इस का जवाब यह भी देकर खुद को बहला लिया कि यहां सब बहुत दूर दूर है. कार से जाने के बजाय हवाईजहाज पर ही निर्भर करना पडता है , तभी बुलाअो तो भी कोई नहीं अाता.
कहने का तात्पर्य यह है कि इंगलैंड से ही कहीं प्रवासी साहित्य का कारवां निकला अौर हिंदी साहित्य के अासमान में गुबार की तरह फैल गया.  हर तरह समर्थन हुए अौर विरोध भी. अनिलजी चूंकि इगलैंड मे पोस्टेड थै, उन्होने प्रवासी लेखकों का संघर्ष देखा अौर वे भी उस संघर्ष में जुड गये. मुझे याद है कि २००६ जनवरी में जब मैं भारत मे थी तो वे दिल्ली मे पोस्ट हो चुके थै अौर वहां भी उनकी प्रवासी साहित्य की स्थापना की लडाई चलती रही. साहित्य अकादमी में उन्होंने प्रवासी साहित्य सम्मेलन का अायोजन किया था जिसमे िहंदी साहित्य के विद्वानों को इस साहित्य पर बोलने के लिये बुलाया गया था. रामदरश मिश्र भी वहां थे. रोहिणी अग्रवाल मे मेरे उपन्यासो पर बात की थी.  तब किसी ने यह सवाल उठाया कि चूंकि प्रवासी अहिंदी भाषी देशों मे बैठकर हिंदि मे लिख रहे है तो उनके साथ रियायत की जाय. जिसका मैंने डटकर विरोध किया िक अगर प्रवासी साहित्य अपने पैरो पर खडा नहीं हो सकता तो मरने दीजिये उसे.  अौर देखिये खडा हो ही गया.  बाकायदा स्वस्थ युवक या युवती, किसी का सहारा नहीं चाहिये उसे.  अपने बूते जियेगा, फलेगा, फूलेगा.  देखा जाय तो कभी कभी यह भी लगता है कि जिस तरक अमरीका अौर इंगलैड -रिटर्न्ड भारतीयो को भारत में यूं ही महत्व मिल जाता है वैसा ही कहीं इस साहित्य के साथ भी न हो रहा हो. पश्चिम की, दौलत की चमक अंा,खे चुंधिया तो देती ही है. खैर असलियत तो वक्त ही बताता है--क्या रहेगा, क्या बेमौत मारा जायेगा!
तो अब बात करे "प्रवासी साहित्य : नई जमीन, नया आसमान " कीा  अालोचना खंड खोला तो एक ही बैठक में पूरा का पूरा पढ डाला.  अनिलजी ने प्रवासी साहित्य को लेकर समय समय पर उठे सभी सवालों को अपनी कलम में समेट लिया है.   यहां तक कि प्रवासी नाम को लेकर भी लंबी चरचा की है कि प्रवासि लेखको ने ही पहले नाम बनाने के लिये शोर मचाया अौर जब नाम बन गया तो ये रोना रोने लगे कि हमें मुख्यधारा में क्यों नहीं मानते, प्रवासी कह कर अलग क्यो कर दिया, दोयम दरजे पर धर दिया.  विवाद सारा का सारा पढने मे दिलचस्प है.  यूं मै खुद इससे बाहर ही रही सो ज्यादा कह नहीं सकती. यह सब भारत अौर इंगलैंड के बीच ही हुअा.  अनिलजी चूंकि खुद लंदन के प्रवासी दृश्य का हिस्सा रहे हैं सो उन्होने ब्रिटेन के लेखकों की विशेष चरचा की है, उन्ही की पुस्तकों की समीक्षायें है पर खास बात यह है कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया है केवल इंगलैंड अमरीका के लेखक ही प्रवासी साहित्यकारों की श्रेणी मे नहीं है, मौरिशस, फिजी इत्यादि के हिंदी लेखको को भी हिंदी साहित्य जगत में पूरा स्थान मिलना चाहिये.  
पूरी पुस्तक सात खंडो मे बंटी है.  सरोकार खंड में प्रवासियो के सरोकार है , साक्षात्कार खंड मे कुछ लेखकों से साक्षात्कार है, कहानी अौर कविता के अलग अलग खंड है.  सरोकार खंड मे अगर प्रवासी लेखकों के कथ्य में किस तरह के सवाल अौर सरोकार उभरे हैं इसकी चरचा होती तो अच्छा रहता.  मूलत: यह ग्रंथ समय समय पर प्रवासी साहित्य के अलग अलग मुद्दों पर जो लेख अनिल शर्मा लिखते रहे हैं, उन्ही को व्यवस्थित, संयोजित करके प्रस्तुत किया गया है. पुस्तक खूब पठनीय है. जिस जिस हिस्से को भी मैंने पढने के लिये उठाया, बडे अाराम से झटपट पढ गयी.  अनिल जी को सराहती हूं कि अपनी व्यस्त सरकारी नौकरी को निभाते हुए भी वे प्रवासी साहित्य से इतने सालों से जुडे रहे, उसके मुद्दो पर सोचते रहे, लिखते रहे अौर अाज उनकी सालों की मेहनत "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान" के अाकार मे हमारे सामने है.
सुषम बेदी

शनिवार, 14 जुलाई 2018

'प्रवासी लेखन : नयी जमीन, नया आसमान' - प्रवासी समाज, भाषा और संस्कृति जैसे मुद्दों की गहरी आलोचनात्मक पड़ताल - डॉ कमल किशोर गोयनका



डॉ कमल किशोर गोयनका, उपाध्यक्ष , केंद्रीय हिंदी संस्थान


अनिल जोशी से मेरा संबंध / संपर्क तीन दशक पुराना तो है ही। अनिल दिल्ली में साहित्यिक गतिविधियों के निष्ठावान आयोजक तथा काफी बड़ी संख्या में लेखकों को साथ लेकर चलने में सक्षम रचनाकार हैं। अनिल के जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा साहित्य, संस्कृति, भाषा, राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रश्नों और उनके उत्तरों को तलाशने में व्यतीत हुआ है और साथ ही  इंग्लैंड, फीजी आदि देशों में भारतीय उच्चायोग में हिंदी अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए हिंदी भाषा और साहित्य के विकास का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है। मैंने कई बार महसूस किया है कि अनिल जोशी स्वयं में एक संस्था हैं और वे भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता तथा राष्ट्र बोध के लिए समर्पित होकर कई पीढ़ियों को साथ लेकर चलने में सिद्धहस्त हैं। उन्होंने 'अक्षरम्' संस्था की स्थापना करके तथा उसकी निरन्तर होने वाली गतिविधियों से अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है और अब फीजी में भारतीय उच्चायोग में रहते हुए वे हिंदी भाषा व साहित्य तथा भारतीय संस्कृति के प्रचार - प्रसार के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। अनिल जोशी ने काफी लिखा है और प्रवासी साहित्य पर उनके आलोचनात्मक लेखन से वे विशेषज्ञ की स्थिति तक पहुँच गये हैं। हिंदी में हमें अनिल जोशी जैसे  समर्पित,  निष्ठावान तथा निरन्तर कर्मशीलता वाले लेखक-आलोचक चाहिए जो हिंदी को राष्ट्रभाषा तथा वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए जीवन अर्पित कर दें। 
प्रस्तुत पुस्तक के सरोकार खण्ड में प्रवासी समाज, भाषा और संस्कृति जैसे मुद्दों की गहरी आलोचनात्मक पड़ताल है। इस खण्ड की विशेषता वह संवेदनशीलता है जिसके साथ इन प्रश्नों को उठाया गया है। उदाहरण के लिए विदेश में मृत्यु होने पर चिता जलान े की अनुमति देने की बात , या भारत से बाहर ़डिप्रेशन होेने के कारणों की जांच - पड़ताल , प्रवासी दिवस में निवेश संबंधी चिंता की चकाचोंध में भाषा और संस्कृति को केंद्र में रखने के प्रयास पर जोर देना या प्रमुख प्रवासी लेखकों या रचनाओं पर एक आत्मीय संवेदनशीलता से विचार का प्रयास । सब लेख यह सिद्द करते हैं  कि प्रवासी समाज, भाषा , साहित्य और संस्कृति के साथ उन्होंने गहरा तादातम्य विकसित किया है। उनका हाथ प्रवासी समाज के नब्ज पर है और इनमें प्रवासी समाज की सोच, संवेदना, सरोकार बखूबी व्यक्त हुए हैं। 

वे स्वयं कवि हैं और प्रवासी कविता पर उनकी गहरी पकड़ है। ब्रिटेन में रहकर उन्होंने ब्रिटेन के 23 कवियों की कविताओं का संकलन ‘धरती एक पुल’ प्रकाशित किया था। पश्चिम में रहने वाले हिंदी कवियों की यह प्रतिनिधि पुस्तक है ।  पुस्तक भारतीय मूल के पश्चिम में रहने वाले कवियों की कविताओं की आलोचनात्मक पड़ताल करती है पर उसके औजार भारत के आलोचना शाश्त्र से नहीं निकले हैं, बल्कि पश्चिम के हवा -पानी में विकसित हुए भारतीय बीजों की विशिष्ट सुगंध को आंकते समय व्यापक और उदार दृष्टिकोण को आधार बनाया गया  है। यह दृष्टि  उन्हें  ब्रिटेन के लंबे प्रवास और डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव, मोहन राणा , दिव्या माथुर , सुषम बेदी, पद्मेश गुप्त, गौतम सचदेव, अचला शर्मा जैसे लेखकों के साथ साहित्यिक संसर्ग से मिली। कविता के शाश्वत तत्व को चिन्हने की क्षमता , उसके शिल्प की सुघड़ता का निश्चय , समकालीन संदर्भों से उसका जुड़ाव और समग्र रूप से उसका मूल्यांकन उनकी आलोचनात्मक क्षमता को एक विशिष्ट धरातल देता है।

कहानी, पुस्तकों ,उपन्यासों, व्यक्तियों पर बातचीत से एक मुकम्मल चित्र बनता है। हम प्रवासी रचनाकारों को , उनके सरोकारों को , उनकी व्यक्तित्व की और रचना कर्म की संरचना , उसकी जटिलताओं , उसके संदर्भ , उसकी बुनावट, उस के खास किस्म के शिल्प , उसकी  विशिष्टताओं को समझ सकते हैं। यह आकलन, मूल्यांकन ,यह प्रस्तुति सबके बस की बात नहीं , इसके लिए प्रवासी मन की विशेष बुनावट को समझना पड़ता है। अनिल जोशी के लंदन  के पाचं साल के कार्यकाल और प्रवासी टुडे और अक्षरम के कारण प्रवासियों से व्यापक और अंतरंग संपर्क और फीजी के प्रवास  ने एक विशिष्ट किस्म की अंतरदृष्टि दी । यह व्यापकता और गहराई इस पूरे लेखन में दिखाई देती है। ब्रिटेन, युरोप, अमेरिका , कनाडा , मध्यपूर्व, फीजी , आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड  में रहने वाला शायद कोई प्रमुख साहित्यकार हो जिससे अनिल व्यक्तिगत रूप से परिचित ना  हों। युरोप, अमेरिका, कनाडा आदि के साहित्यकारों का ऐसा विशद और गहरा मूल्यांकन आलोचना की पुस्तक के रूप में शायद ही कहीं उपलब्ध हो। 

इस संकलन की विशेष उपलब्धि कहानी खण्ड है। प्रवासी लेखन की श्रेष्ठ चुनी हुई कहानियों का ऐसा विश्लेषण शायद ही कहीं उपलब्ध हो। इन कहानियों के माध्यम से प्रवासी जीवन के विविध पक्षों का जैसा सांगोपांग विश्लेषण किया गया है, वह दुर्लभ है। मजेदार बात यह है कि वह अपने आप में आलोचनात्मक लेखन से अधिक रचनात्मक लेखन लगता है। जैसे कहानी की कहानी कही जा रही हो। आलोचना और कहानी गुंथी हुई। प्रतिनिधि संवाद और कहानी की संरचना पर परत -दर -परत बात। इऩ आलोचनाओं के माध्यम से वे  प्रवासी कहानियों को समझने के लिए आवश्यक टैम्पलैट देते हैं। इन कहानियों का चयन ही उऩकी असाधारण दृष्टि को रेखांकत करता है।
अनिल की एक और विशेषता जटिल और विवादास्पद विषयों पर बचने की प्रवृत्ति के बजाए , बड़े साहस, तर्को और तथ्यों, वस्तुनिष्ठता  के साथ अपनी बात रखना है। पिछले कुछ वर्षो में प्रवासी साहित्य को प्रवासी साहित्य कहें या ना कहें को लेकर जो विवाद उत्पन्न हुआ , उस संबंध में  हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘हरिगंधा’ में प्रकाशित लेख उनकी शोधपरक प्रवत्ति , विचारों की तीक्ष्णता ,  विश्व साहित्य और प्रवासी साहित्य के विशद अध्य्यन की जानकारी देता है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस लेख के बाद इस पूरी बहस को एक दिशा मिली और नकारात्मक प्रवृत्तियों को एक विराम मिला । यह लेख उनकी सशक्त लेखनी का प्रमाण है कि उनमें विचार प्रवाह की दिशा को समझने और मोड़ने की शक्ति है। अन्य आलोचनात्मक लेख भी प्रवासी साहित्य से व्यापक घनिष्ट संपर्क का परिचय देते हैं। 



एक लेखक के साथ -साथ अनिल एक विचारक , चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, देश -विदेश में हिंदी का प्रचार - प्रसार इनका जुनून है। युरोप में स्थापित हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता इनकी दृ्ष्टि और निरंतर सक्रियता का एक प्रमाण है। इसी तरह अक्षरम के अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों के माध्यम से विश्व भर में हिंदी के प्रचार - प्रसार का प्रयास इनकी सक्रियता की उपज थी। पहले ब्रिटेन और अब फीजी में व 2005-2015 तक  विश्वभर के सक्रिय हिंदी कर्मियों के साथ जुड़ाव से इन्होंने एक विश्व दृष्टि विकसित की है , एक कार्य योजना का खाका खींचा है, कुछ व्यावहारिक कार्यक्रम सोचे हैं और क्रियान्वित किए हैं। यह सोच, यह विजन , यह अनुभव विश्व भर में हिंदी प्रेमियों के लिए एक स्फूरण का काम कर सकता है। वैश्विक स्तर पर ऐसे कुछ लोगों की सक्रियता से वैश्विक हिंदी का स्वरूप करवट ले सकता है। यह पुस्तक उनके इस संबंध में विचारों की प्रस्तुति करते हैं। इन विचारों में आग है, आशावादिता है, संकल्प हैं, परिपक्वता है और एक व्यापक जीवनदृष्टि है । 



कुल मिलाकर यह संकलन प्रवासी साहित्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज और वर्तमान प्रवासी रचनाकार और उनकी रचनाओं पर एक सार्थक, रचनात्मक गंभीर टिप्पणी है, जो प्रवासी विमर्श का रास्ता खोलेगी, रचनाओं और रचनाकारों पर एक बहस की शुरूआत करेगी , व्यक्तियों, पुस्तकों और रचनाओं को देखने के लिए एक रचनात्मक नजरिया देगी जो संकुचित नहीं है, व्यापक है, जिसमें भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्य तो हैं ही पश्चिम की  मूल्य प्रणाली की भी गहरी समझ शामिल है । यही चीज उनके रचनाकर्म को और पुस्तक को विशिष्ट बनाती है। पुस्तक को मेरी बहुत शुभकामनाएँ।