प्रवासी साहित्य को लेकर ज्यादातर विश्वविद्यालयों के छात्रों की शोध मे रुचि तो अकसर सुन जाती थी पर उसे लेकर स्वतंत्र पुस्तक की रचना के बारे में नहीं सुना था. हां कुछेक लेख जरूर देखने को मिले पर लगता है किसी भी हिंदी लेखक को वह इस लायक नहीं लगा कि उस पर पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सके. तभी जब अनिल जी ने कुछ शब्द लिखने के लिये अपनी पुस्तक "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान " के अंश भेजे तो लगा कि अब प्रवासी लेखन बाकायदा सारी कक्षायें पास करके ग्रेजुएट हो गया है. अब उसे भी एक पढेलिखे साहित्य समाज के सम्मानित सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. यूं सच मे इस साहित्य की यात्रा बेहद कठिन रही है. देखा जाये तो यह बहुत कुछ २१वी सदी का ही फिनामना है. मुझे याद है अाठवें दशक के अंत अौर नवें दशक में जब मेरी कहानियां हिंदी की मुख्य पत्रिकाअों(धर्मयुग, सारिका, हंस, साप्ताहिक हिंदुस्तान, वागर्थ अदि) में छप रही थीं तो पाठकों का ध्यान तो जरूर उन पर जाता था, मुझे हर कहानी पर िहंदुस्तान के अलग अलग शहरों से ढेर सारी प्रशंसात्मक चिट्ठियां भी मिला करती थी अौर १९८८-८९ में जब कमलेश्वरजी ने गंगा मे मेरे उपन्यास "हवन" को धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया तो उसके विषय की नवीनता को लेकर उन्होंने उसे नयी जमीन तोडनेवाला उपन्यास कहा. हवन की चरचा खूब हुई फिर भी किसी ने मुझे प्रवासी उपन्यासकार नहीं कहा. मजेदार बात है कि सबसे पहले जब "हवन"१९९३ मे अंग्रेजी मे "द फायर सेक्रेफाइस" नाम से इंगलैंड से छपा वहां मुझे अमरीका मे रहनेवाली हिंदी कथाकार, यानि कि एक डायसपोरा हिंदी लेखिका के रूप मे देखा गया--ये मेरी नयी पहचान थी, मेरे लिये नयी. मैं तब भी खुद को हिंदी की, भारत की कथाकार ही मानती थी, मेरी नागरिकता भी भारत की थी. हवन के उपर लिखे गये श्री के। बी।एल पाडेय अौर पुष्पपाल सिंह जी के समीक्षात्मक लेखों मे मेरी गिनती उषा प्रियंवदा, निर्मल वर्मा, महेन्द्र भल्ला अादि भारत से बाहर रहकर लिखने वालों मे की गयी पर ऐसा कोई वर्गीकरण नहीं किया गया कि मैं प्रवासी लेखिका हूं. फिर पता नहीं कब यह मुहिम चल पडा कि प्रवासी साहित्य को मान्यता मिलने चाहिये. मुझे अपना इस तरह कहलाया जाना अच्छा नहीं लगा था. पर मेरे लिये अहमियत मेरे लेखन की ही रही. कोई क्या कहता है इस पर कभी गौर नहीं किया. मैं हमेशा शमशेरबहादुर जी की कविता के शब्दों मे कहती रही अौर अाज भी कहती हूं-"बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलेगी, बात ही."
मेरा इंगलैड जाना होता रहता है. लंदन का भी खास अाकर्षण है. फिर वहां हिंदीवाले भी खूब मिले तो अाकर्षण अौर बढ गया. हर ट्रिप मे नेहरु सेंटर मे दिव्या माथुर से जरूर मुलाकात होती थी. वहां हिंदी साहित्य की सरगर्मी खूब थी. धीरे धीरे दिव्या के ही जरिये दूसरे लेखकों से भी मुलाकात हुई. २००४-५ में मुझे अपने पति के साथ लंदन में महीना महीना बिताने का मौका मिला. तभी मुलाकात हुई थी अनिल जोशी जी से. उन दिनों तो सचमुच हिंदी की खूब हलचल थी, कवि सम्मेलन, कहानी पाठ, कुछ न कुछ होता रहात. सिरफ लंदन ही नहीं, बर्मिंघम. यार्क मे महेन्द्र वरमा जी अौर उषा वरमा ने मुझे कहानी की वर्कशाप देने के लिये बुलाया था. बरमिंघम भी गयी भाषण के लिये. लंदन के सारे लेखकों से मिली. तेजेन्द्र शर्मा का कथा यूके भी जोर पर था. उनकी संस्था मे भी कहानी पाठ किया. उषा राजे से भी लंबी बातचीत. इस तरह इंगलैंड के साहित्यिक माहौल से मैं बहुत प्रभावित हुई थी. यूं मैं न्यूयार्क मे कहानी गोष्ठी करती रहती हूं पर लगा कि यहां वैसा साहित्यिक माहौल नहीं बन पाया जैसा इंगलैंड मे है. खुद ही इस का जवाब यह भी देकर खुद को बहला लिया कि यहां सब बहुत दूर दूर है. कार से जाने के बजाय हवाईजहाज पर ही निर्भर करना पडता है , तभी बुलाअो तो भी कोई नहीं अाता.
कहने का तात्पर्य यह है कि इंगलैंड से ही कहीं प्रवासी साहित्य का कारवां निकला अौर हिंदी साहित्य के अासमान में गुबार की तरह फैल गया. हर तरह समर्थन हुए अौर विरोध भी. अनिलजी चूंकि इगलैंड मे पोस्टेड थै, उन्होने प्रवासी लेखकों का संघर्ष देखा अौर वे भी उस संघर्ष में जुड गये. मुझे याद है कि २००६ जनवरी में जब मैं भारत मे थी तो वे दिल्ली मे पोस्ट हो चुके थै अौर वहां भी उनकी प्रवासी साहित्य की स्थापना की लडाई चलती रही. साहित्य अकादमी में उन्होंने प्रवासी साहित्य सम्मेलन का अायोजन किया था जिसमे िहंदी साहित्य के विद्वानों को इस साहित्य पर बोलने के लिये बुलाया गया था. रामदरश मिश्र भी वहां थे. रोहिणी अग्रवाल मे मेरे उपन्यासो पर बात की थी. तब किसी ने यह सवाल उठाया कि चूंकि प्रवासी अहिंदी भाषी देशों मे बैठकर हिंदि मे लिख रहे है तो उनके साथ रियायत की जाय. जिसका मैंने डटकर विरोध किया िक अगर प्रवासी साहित्य अपने पैरो पर खडा नहीं हो सकता तो मरने दीजिये उसे. अौर देखिये खडा हो ही गया. बाकायदा स्वस्थ युवक या युवती, किसी का सहारा नहीं चाहिये उसे. अपने बूते जियेगा, फलेगा, फूलेगा. देखा जाय तो कभी कभी यह भी लगता है कि जिस तरक अमरीका अौर इंगलैड -रिटर्न्ड भारतीयो को भारत में यूं ही महत्व मिल जाता है वैसा ही कहीं इस साहित्य के साथ भी न हो रहा हो. पश्चिम की, दौलत की चमक अंा,खे चुंधिया तो देती ही है. खैर असलियत तो वक्त ही बताता है--क्या रहेगा, क्या बेमौत मारा जायेगा!
तो अब बात करे "प्रवासी साहित्य : नई जमीन, नया आसमान " कीा अालोचना खंड खोला तो एक ही बैठक में पूरा का पूरा पढ डाला. अनिलजी ने प्रवासी साहित्य को लेकर समय समय पर उठे सभी सवालों को अपनी कलम में समेट लिया है. यहां तक कि प्रवासी नाम को लेकर भी लंबी चरचा की है कि प्रवासि लेखको ने ही पहले नाम बनाने के लिये शोर मचाया अौर जब नाम बन गया तो ये रोना रोने लगे कि हमें मुख्यधारा में क्यों नहीं मानते, प्रवासी कह कर अलग क्यो कर दिया, दोयम दरजे पर धर दिया. विवाद सारा का सारा पढने मे दिलचस्प है. यूं मै खुद इससे बाहर ही रही सो ज्यादा कह नहीं सकती. यह सब भारत अौर इंगलैंड के बीच ही हुअा. अनिलजी चूंकि खुद लंदन के प्रवासी दृश्य का हिस्सा रहे हैं सो उन्होने ब्रिटेन के लेखकों की विशेष चरचा की है, उन्ही की पुस्तकों की समीक्षायें है पर खास बात यह है कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया है केवल इंगलैंड अमरीका के लेखक ही प्रवासी साहित्यकारों की श्रेणी मे नहीं है, मौरिशस, फिजी इत्यादि के हिंदी लेखको को भी हिंदी साहित्य जगत में पूरा स्थान मिलना चाहिये.
पूरी पुस्तक सात खंडो मे बंटी है. सरोकार खंड में प्रवासियो के सरोकार है , साक्षात्कार खंड मे कुछ लेखकों से साक्षात्कार है, कहानी अौर कविता के अलग अलग खंड है. सरोकार खंड मे अगर प्रवासी लेखकों के कथ्य में किस तरह के सवाल अौर सरोकार उभरे हैं इसकी चरचा होती तो अच्छा रहता. मूलत: यह ग्रंथ समय समय पर प्रवासी साहित्य के अलग अलग मुद्दों पर जो लेख अनिल शर्मा लिखते रहे हैं, उन्ही को व्यवस्थित, संयोजित करके प्रस्तुत किया गया है. पुस्तक खूब पठनीय है. जिस जिस हिस्से को भी मैंने पढने के लिये उठाया, बडे अाराम से झटपट पढ गयी. अनिल जी को सराहती हूं कि अपनी व्यस्त सरकारी नौकरी को निभाते हुए भी वे प्रवासी साहित्य से इतने सालों से जुडे रहे, उसके मुद्दो पर सोचते रहे, लिखते रहे अौर अाज उनकी सालों की मेहनत "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान" के अाकार मे हमारे सामने है.
सुषम बेदी
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