मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

हिंदी पट्टी के नौकरियों के प्रति अंधमोह का समाजशास्त्र :अलका सिन्हा की चर्चित कहानी ‘चौराहा ' का नाट्य रूपांतरण



अलका सिन्हा की चर्चित कहानी चौराहा पर आधारित नाटक परीक्षा का मंचन : हिंदी पट्टी के नौकरियों के प्रति अंधमोह का समाजशास्त्र

दिनांक 21 दिसंबर , 2019 को दिल्ली  के  मुक्ताकाश सभागार  में हिंदी की सुपरिचित कथाकार अलका सिन्हा की चर्चित कहानी  चौराहा के नाट्य रूपांतरण परीक्षा का मंचन किया गया।   मुंबई के ग्रुप पूर्वाभ्यास द्वारा नवीन अग्रवाल के निर्देशन में और सोच संस्था के श्री विनयशील के संयोजन मे यह प्रस्तुति थी । कहानी का नाट्य रूपांतरण श्रीमती प्रेरणा अग्रवाल द्वारा किया गया है। इस मंचन में सभागार दिल्ली के लेखकों और नाट्य प्रेमियों से खचाखच भरा था। प्रस्तुति अत्यंत सराहनीय थी ।  नाट्य रूपांतरण को  उपस्थित प्रबुद्द समाज की भूरी -भूरी प्रशंसा मिली । 
मैं पहले कहानी और नाटक  से जुड़े कुछ प्रमुख बिंदुओं उसके थीम और नेरेटिव के बारे मे बात करना चाहूंगा  । यह मुख्य रूप से ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार की कहानी है जिसमें पिता एक सरकारी नौकर है जिनका बेटा नौकरी पाने के लिए संघर्ष कर रहा है । स्कूलों में चलने वाली धांधली या निजी क्षेत्र की नौकरी में मालिकों का मनमानापन उसे कहीं टिकने नहीं देता । पिता रिटायरमेंट के कगार पर है  , उन्हें अपने परिवार का  भविष्य अंधकारमय दिखता है और हालात ऐसे हो जाते है कि पिता को ऐसा लगता है कि क्यों ना वह आत्महत्या कर ले,  जिससे उसके पुत्र को उसके स्थान पर नौकरी मिल जाए ।  वह आत्महत्या का असफल प्रयास करता है। पर अंतत: : कहानी एक आशा की किरण के साथ खत्म होती है जब वह युवक नौकरी के बजाए एक ट्यूशन सेंटर खोलने का निर्णय कर नौकरियों के पीछे दौड़ने के बजाए अपना भविष्य अपने हाथ मे लेकर संवारने का निर्णय लेता है। 

इस कहानी को कई वर्ष मैंने पढा था और उस संग्रह मे प्रकाशित कहानियों में से इस कहानी मे नाटकीयता की संभावना सबसे अधिक दिखाई दी थी। संकल्प जोशी ने इस कहानी के कुछ अंशों का अत्यंत प्रभावी और सफल नाट्यपाठ किया था। प्रसन्नता की बात है इस कहानी का नाट्य मंचन किया जा रहा है।  
आइए इस कहानी के मुख्य आशय पर चर्चा करें।   नाटक में प्रदर्शित समस्याएं  इस एक मध्यमवर्गीय परिवार की नहीं बल्कि हिंदी पट्टी के सभी मध्यमवर्गीय परिवारों में चल रहे पीढीयों के संघर्ष रूढिवादी सोच वगैरह को दिखाती है। पर यह कहानी और उससे निकला नाटक मुख्य रूप से जिस नौकरी के सवाल की बात करता है ,उस पर विस्तार से विचार करना आवश्यक है। हिंदी पट्टी में ऊंची जातियो मे सरकारी नौकरी की प्राप्ति अंतिम लक्ष्य की तरह मानी जाती रही है और उसमें भी अगर आई.ए.एस या आई.पी.एस हो तो वह तो जीते जी स्वर्ग मिलना हो गया। यह कहानी इस संबंध में अमरकांत की अमर कहानी  डिप्टी कलक्टर का भी स्मरण कराती है या कहीं अखिलेश की कहानी अगली शताब्दी के प्यार की रिहर्सल की भी याद दिलाती है।  कहानी में भी युवक और उसके परिवार का ध्यान सरकारी नौकरी पर है।
 हम केवल अंग्रेजों के भौगोलिक उपनिवेश नहीं थे बल्कि हमारी सोच को उन्होंने  सिंगल डायमेंशनल बना डाला। हमारे ही आसपास उपस्थित हजारो संभावनाओं और अवसरो को हम देख नहीं पाते ।   मैं एक बार बहुत पहले आजादी के समय पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के बारे मे एक कार्यक्रम सुन रहा था । उसमें एक बात पर बहुत जोर दिया गया था वह यह था कि उन लाखों शरणार्थियों ने  कभी भीख नहीं मांगी। सब्जी बेचीस्कूटर ठीक करने की दुकान कर लीकिसी तथाकथित छोटे काम से नहीं घबराए । आज साउथ एक्सग्रेटर कैलाशजनकपुरीराजीरी गार्डन,  पटेल नगर सब उन्ही लोगों के बसाए हुए समृद्द इलाके हैं।  कहानी में युवक का किसी लाला के पास नौकरी करना अपनी क्षमता और प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करना माना जाता है और फिर तो सरकारी नौकरी मिलने के दो ही रास्ते दिखाई देते हैं।   खुराना नामक किसी पात्र को नौकरी पाने के लिए रिश्वत दी जाए। या फिर जैसाकि नाटक के क्लाईमैंक्स में भी कोई और रास्ता ना दिखने पर पिता यह सोचता है कि रिटायरमेट से पहले क्यों ना मेरी मृत्यु हो जाए जिससे कम्पैशनेट आधार पर ही चाहे बेटे को नौकरी मिल जाए। यह उस एक व्यक्ति की नहीं पूरे समाज की आत्महंता औपनैवेशिक सोच का परिचायक है। एक बार मुझे सी.बी.आई के मामले मे सरकारी तौर पर शामिल होने का मौका मिला था । अगर इस मामले की अति देखनी हो तो मंडल कमीशन के खिलाफ ऊंची जातियों के युवको के विरोध को याद कर सकते हैं। अपने आप को आग लगाते युवकों के विज्युल 30 साल बाद भी हम सबकी स्मृतियों में जीवंत हैं। काफी हद तक मंडल कमीशन इस मामले में गेम चेंजर था उसीके बाद हिंदी पट्टी की ऊंची जातियो का सरकारी नौकरियों को लेकर मोहभंग हुआ। हिदी भाषी समाज के नौकरियो के प्रति इस अंध मोह को यह कहानी और यह प्रस्तुति उसमे निहित तमाम विडंबनाओं और विद्रूपता के साथ प्रस्तुत करती है।

अलका सिन्हा ने भी अपनी कहानी मे एक सकारात्मक अंत दिखाया है जिसमे वह युवक सरकारी नौकरी या नौकरी की आस छोड ट्युशन सेंटर खोलने का निर्णय लेता है। यह एक सार्थक बदलाव का प्रतीक है जिस पर जितना बल कहानी में दिया गय था उतना नाटक में भी आता तो और अच्छा लगता । बेटे के नौकरी ना मिलने पर   पिता का आत्महत्या का प्रयास क्लाईमैक्स के लिए एक नाटकीयता तो देता हैपरंतु कहानी का मूल आशय हिदी भाषी समाज के अवचेतन मे नौकरियों को लेकर बनी जुगुप्सा से दो – चार करना है। युवाओँ के जीवन और कैरियर से जुड़े ज्वलंत सवालों को केंद्र में लाने के लिए अलका सिन्हा की कहानी चौराहा ऐसे कहानियों मे एक महत्वपूर्ण और सम्मानजनक स्थान रखती है। अगर उनकी चर्चित कहानी मोल्डिंग मशीन को च्रर्चा में जोड़ दिया जाए तो कहा  अलका सिन्हा अपने समय समाज और विशेषकर युवाओं की आशाओ अपेक्षाओ की दुनिया को ईमानदारी से खंगालती दिखाई देती हैं।
जहां तक कहानी के नाटकीय प्रस्तुतिकरण की बात है। नवीन अग्रवाल का अभिनय  आनुपातिक था बेहद संतुलित  न वहां संवेदना का अभाव है और ना ही सेंवेदना कोरी भावुकता में तब्दील हुई है। परंतु अपने पिता की आत्महत्या के प्रयास के लिए स्वयं को दोषी मानते हुए उसे स्वयं को बैल्ट से देर देर तक पीटना जैसे दृश्यों पर निर्देशक को  विचार करना चाहिए।   प्रेरणा अग्रवाल और भानु प्रकाश का अभिनय भी प्रशंसनीय था। सहयोगी टीम में पवन चक्रवर्ती  का सहयोग सराहनीय था।  कहानी में रोचकता और समग्रता प्रस्तुत करने के लिए नाट्य रूपांतरण मे भानुप्रकाश की प्रेमिका प्रभा जो उसके नौकरी ना मिलने पर किसी और से विवाह कर लेती है या खुराना जो पैसे लेकर नौकरी दिलवाने का वायदा करता है जैसे किरदारो को जोड़ा जा सकता है और विस्तार दिया जा सकता है। इस प्रस्तुति के लिए विशेष प्रशंसा श्री विनयशील और सोच संस्था को करनी होगी जो हिंदी के उत्कृष्ट साहित्य को नाट्य रूप मे प्रस्तुत करने के लिए प्रतिबद्द है और जिसने मंटो की कहानियों और  श्री बी.एल.गौड की ’ मीठी ईद के बाद अलका सिन्हा की कहानी चौराहा के नाट्य रूपांतरण को परीक्षा के रूप में प्रस्तुत करने का अत्यंत सराहनीय कार्य किया है। 

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