सीता को सोने का मृग चाहिए
अभी – अभी
उछलता, कूदता, किलकारियां मारता
गया है सोने का मृग
बस गया है वो सीता की आंखो में
सीता स्नेह से
राम के कंधे पर हाथ रखती है
कहती है –
अहा ! कैसा सुन्दर है,
कभी देखा नहीं ऐसा मृग
कितनी सुन्दर लगूंगी
मैं इसकी मृगछाल पहनकर।
राम जानते हैं सोने के मृग नहीं होते
कहते भी हैं सीता से
पर हठ पर है सीता
उसे
सोने का मृग चाहिए !
राम सोचते हैं –
दे ही क्या पाया हूं मिथिला कुमारी को
आंसू, पीड़ा, आत्मीयों से बिछोह और
वनवास,
और धनुष उठा कर चल पड़ते हैं,
सीता को सोने का मृग चाहिए !
‘लक्ष्मण’ – ‘लक्ष्मण’ की आवाजें दे
ढेर हो गया है मायावी,
सामने पड़ा है
विशाल, दैत्याकार, लहूलुहान शरीर
अपनी अंतिम परिणति में
कितना वीभत्स है सोने का मृग
स्तब्ध खड़े हैं राम
ठगे गए हैं वो
पर वो क्या करते,
सीता को सोने का मृग चाहिए !
सीता को
संदेह हो गया है लक्ष्मण पर,
उसकी दृष्टि में
अब समर्पित एकनिष्ठ भाई नहीं है वो,
बल्कि
अवसर का तलाश में,
भाई का हत्यारा है वो,
लक्ष्मण जानते हैं राम को कोई नहीं हरा सकता
गलत जानते हैं वो,
सोने का मृग सबको हरा सकता है !
अब जंगलों में भटक रहे हैं राम
वृक्षों, पर्वतों से पूछते,
अपने दुर्भाग्य से जूझते
अब उन्हें सोने का मृग नहीं चाहिए
उन्हे सीता चाहिए
जंगल में गूंज रहा है
रावण का अट्टहास
रावण के हाथों पड़
सीता कर रही है विलाप
अब उसे सोने का मृग नहीं चाहिए
अब उसे राम चाहिए
राम को सीता चाहिए,
सीता को राम चाहिए
सोने के मृग के बिना भी सुखी था उनका जीवन
आपको क्या चाहिए ?
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anilhindi@gmail.com
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