ये समय
लोगों की आँखों मे अपना अस्तित्तव आँकने का नहीं है
बल्कि अपने जीने के लिए
मुनासिब वज़ह जानने का है।
और ऐसे में
चाय के प्याले में
अपनी उम्र आँकने के बाद
मैं घबरा गया
मैंने दाढ़ी को छुआ
दाढ़ी-
दाढ़ी की जगह थी
मूँछ-
मूँछ की जगह
नाक-
नाक की जगह थी
कान-
कान की जगह
नहीं
ऐसा नहीं हो सकता
जब कुछ भी सही नहीं है
तो
ये कैसे हो सकता है
सब चीजें
करीने से शऱीर पर सजी हो
कहीं कुछ गहरी गड़बड़ जरूर है।
मैं जानना चाहता था
क्या मरने से पहले
मैं जिन्दा हूँ !
मुझे कोई मुगालता नहीं था
मैं पागल हो चुका था
मैं घबरा गया
अर्थशाश्त्र ने मुझे बेतहाशा तोड़ा
दर्शनशाश्त्र ने मुझे कहीं का ना छोड़ा
सब तरफ भूल भुलैया थे
भटकाव थे
हो सकता है
सधे हुए न हों
मेरे ही पैर ( पर विश्वास है गलती सिर्फ अनुवाद की नहीं थी)
सुबह तक तो ऐसा नहीं था।
अचानक मैंने महसूस किया
मेरे नीचे जमीन नहीं है
या कि मैं उल्टा चल रहा हूँ
दिशाहीन अंधेरों के बीच
अपने महान संक्लपों के सामने
मरगिल्ले कुत्ते सा खड़ा
मैं जीना चाहता था
और
उसके लिए
किसी भी हद तक जाने को तैयार था
मैंने सोचा
अब मैं
उस आदमी से नहीं मिलूंगा
जो सुबह
कमीज के पीछे
मेरी जेब टटोलता रहा
और में
मेरी आत्मा भी है
मेरी आत्मा भी है
यही बोलता रहा
अब कैलेण्डर में सिर्फ दिन नहीं हैं
सिर्फ तिथियां हैं
वो मेरा बचपन था
जब ये शहर अपना हुआ करता था
यहाँ जिसकी भी अक्ल और आत्मा
काँच के शीशों में कैद नहीं है
सभी अपराधी हैं
और जिनके हाथ
खून से रंगे हुए है न्यायधीश
मेरे पास
न गीत थे
न राग
न सावन
न फाग
न मस्ती
न ख्वाब
पेड़ से पहाड़ तक
सिर्फ पतझड़ थी मेरे पास
मैंने सोचा
क्यों न यहीं से शुरू करूं?
और में मजे से
खुरदरे पहाड़ पर
फिसला, चढ़ा, गिरा , पड़ा
मैं खुश था
मैंने
सूखे कीचड़ भरे बरसाती नाले के पास बैठकर
जोर-जोर से
सावन के गीत गाए
सूखे-पीले पत्तों को चूमा
फूलों पर फतवे कसे
कांटो के गुच्छे
कोट के बटनहोल पर लगाए
मैं खुश था
मेरे पास बेतहाशा प्यार था
लुटाने को
असीम घृणा थी
बरसाने को
और
सबसे बड़ी बात यह थी
इस सबकी वजह से
मैं शर्मिन्दा नहीं था
बात समझने की
महज़ इतनी भर थी
सौन्दर्य
वस्तु में नहीं
दृष्ठि में है
और परिष्कृत सौन्दर्य बोध की पहली और आवश्यक शर्त
उसका मौलिक और असाधारण होना है
अब मुझे
जीने के लिए
कोई बहाना नहीं चाहिए था
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अब मुझे
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कोई बहाना नहीं चाहिए था