कमलेश्वर, अशोक बाजपेयी , केशरी नाथ त्रिपाठी जी, बालकवि बैरागी, कन्हैया लाल नंदन, केदारनाथ सिंह, नामवर सिंह, मनोहर श्याम जोशी, जावेद अख्तर , नरेंद्र कोहली, अशोक चक्रधर, सबमें एक समानता क्या है? सबमें एक समानता यह है कि सबको पद्मेश गुप्त जी ने ब्रिटेन में आतिथ्य प्रदान किया है। उनके लिए ब्रिटेन के हिंदी प्रेमियों से संपर्क बिंदु पद्मेश बने। यहां तक कि हिंदी साहित्य की बहुत सी बड़ी हस्तियों के तो वो परिवार का अंग बन गए हैं। यह कविता संग्रह पिछले बीस वर्षों के इस परिचय, आत्मीयता, जुड़ाव, हिंदी आंदोलन के प्रति गहरी निष्ठा , विरल व्यक्तित्वों के संसर्ग और पद्मेश जी की साधना का परिणाम है।
पद्मेश जी के संग्रह का प्रकाशन एक उत्सव है । यह उत्सव सिर्फ उनके लिए व्यक्तिगत उत्सव नहीं है । यह ब्रिटेन के हिंदी साहित्य के लिए उत्सव है। यह ब्रिटेन में हिंदी के लिए उत्सव है । यह प्रवासी साहित्य और विदेशों में हिंदी भाषा के लिए लिए एक उत्सव है। इस बात को ठीक तरीके से समझने के लिेए हमें उनके संग्रह के कुछ विशिष्ट कविताओं पर दृष्टि डालनी होगी। यह कविताएं निम्न व्यक्तित्वों को समर्पित की गई हैं- ब्रिटेन में हिदी की जड़ जमाने वाले स्वर्गीय लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, ब्रिटेन में हिंदी के संरक्षक श्री केशरीनाथ त्रिपाठी, ब्रिटेन में हिंदी के प्रतिनिधि साहित्यकार रहे स्व. डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव, ब्रिटेन में युवा पीढ़ी में हिदी की अलख जगाने वाले स्वर्गीय श्री वेद मोहला, हिंदी के प्रखर लेखक स्व. गौतम सचदेव, हिंदी के पुरोधा- प्राण शर्मा, जाने -माने लेखक और बी.बी.सी से जु़ड़े वरिष्ठ पत्रकार श्री नरेश भारतीय, वातायन संस्था की संस्थापिका अध्यक्ष सुश्री दिव्या माथुर, कृति यू.के के श्री कें.के. श्रीवास्तव और सुश्री तितिक्षा । ये वे प्रमुख लोग हैं जिन्होंने ब्रिटेन में हिंदी की इमारत खड़ी करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और जिनसे पद्मेश जी के निकट ,आत्मीय और विशिष्ट संबंध हैं।
ब्रिटेन में हिंदी के प्रचार - प्रसार के सद्प्रयासों और इन व्यक्तित्वों के अभियानों और प्रयत्नों में बिना आशा और अपेक्षा के , कंधे से कंधा मिलाकर जो शख्स चला वह पद्मेश गुप्त था. जो सिंघवी जी के संदेश को लेकर नगर -नगर घूमा, जिसने त्रिपाठी जी के अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन की टेक को बरसों अपने कंधे पर चलाया। जिसने सत्येंद्र जी, गौतम जी, नरेश जी और दर्जनों लेखकों को पूरबाई और प्रवासी टुडे का मंच दिया। जिसने अनिल शर्मा और वेद मोहला के साथ हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता में बच्चों में हिंदी अभियान के लिेए संसाधन जुटाए और नेतृत्व दिया। जिसने वातायन और कृति यू.के की जड़ों को सींचा। जिसने ब्रिटेन के लेखकों को पूरबाई पत्रिका का मंच लगभग 15 से अधिक वर्षों तक दिया। पर उनकी इस सक्रियता का कविता से क्या संबंध ? संबंध यह है कि उनकी कविताएं हिंदी , भारत और भारतीयता के प्रति कुछ करने की दीवानगी, असीम प्रतिबद्धता , प्रेरणादायी कर्मठता, हंसते -हंसते काम करने की विशिष्टता , जहां कहीं कुछ सकारात्मक हो रहा है , वहां साथ खड़े रहने की लगन और जहां नकात्मक लोग या बातें हैं , वहां पतली गली से निकलने की समझ से निकली हैं। जहां कहीं हिंदी के लिए सकारात्मक हो रहा है उसके साथ निराकार, निराभिमान , बिना किसी अपेक्षा के कार्य करने का संकल्प उनके क्रिया- कलापों , गतिविधियों , साहित्य और उनकी कविता के मूल में है। उनकी कविताओं को पढ़ना पिछले तीन दशक के ब्रिटेन में हिदी साहित्य के परिदृश्य की आत्मा ,प्रवाह और उसके अंतरविरोधों को समझना है। अगर व्यापक अर्थों में कहें तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को जानना प्रवासी साहित्य और आंदोलन की मूल प्रेरणाओं को आत्मसात करना और उसके मर्म को समझना है। अगर प्रवासी साहित्य और उसके उद्भव और विकास पर विचार करेंगे तो पाएंगे कि 1990 के दशक से हिंदी के प्रतिभाशाली लेखकों की पौध ब्रिटेन से निकली । उसे मंच देने , पत्रिका देने, प्रोत्साहन देने, खाद पानी और परिवेश देने का काम जिस शख्स ने सर्वाधिक किया वह पद्मेश गुप्त हें। इसलिए वे प्रवासी साहित्य आंदोलन के सूत्रधारों में से हैं। इसलिए इस संकलन का नाम प्रवासी -पुत्र सर्वथा उचित है। आइए उनके संग्रह की प्रमुख विशेषताओं पर विचार करते हैं।
सबसे पहले उनके शीर्षक प्रवासी -पुत्र की बात करें, उन्होंने प्रवास में, प्रवासी, प्रवास की पीड़ा जैसा शीर्षक इस संग्रह को क्यों नहीं दिया ? अपने को प्रवासी - पुत्र क्यों कहा ? पुत्र की बात होते ही ,ऋग्वेद का सूक्त ध्यान आता है- माता भूमो: पुत्रों अहं पृथिव्या , यह भूमि माता है , और मैं उसका पुत्र है। यह माता - पुत्र का भाव भारत में ही है , बाकी काफी देशों में Fatherland शब्द का प्रयोग किया जाता है। भारत में भारत माता शब्द बहुत प्रचलित है और राष्ट्र की उसी प्रकार से कल्पना की गई है। यह पुत्र का भाव कर्तव्य का बोध पैदा करता है और बार-बार आकलन को प्रेरित करता है कि मैं जन्मभूमि के प्रति अपना देय दे पा रहा हूं या नहीं! बूढ़े माता -पिता को दवाई नहीं दे पा सकना , चश्मा नहीं बनवाने के लिए उपलब्ध होना याने परिवार के दुख और परेशानी में शारिरिक रूप से उपलब्ध ना हो पाने का दर्द उनकी कविताओं में मौजूद है। प्रवास से संबंधित कविताओं में यह पुत्र भाव अविरल मौजूद है । भारत माता के पुत्र के नाते भारतीय भाषाओं और संस्कृति के पश्चिम में प्रचार - प्रसार के निरंतर समर्पित भाव से उनके प्रयत्न रहे हैं। वह दायित्व , वह देय , वह जिम्मेदारी जिसे उन्होंने सदा महसूस किया है , निरंतर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से प्रकट होती है । वही इस शीर्षक का कारक भी है।
परंतु मजेदार बात यह है कि इन कविताओं की कालावधि 25-30 साल होने के कारण संग्रह में कवि के रूप में उनका विकास और प्रवास से जुड़ी विभिन्न मन: स्थितियां , परिप्रेक्ष्य, विडबंनाएं उभर कर आई हैं जो कवि के रूप में उनके विकास को भी प्रदर्शित करती है और प्रवासी - पुत्र को मोनोटोनस और स्टीरियो - टाईप संकलन होने से बचाती है।
अब यह देखा जाए कि दुनिया भर के प्रवासी रचनाकारों को मंच देने वाले पद्मेश गुप्त कि स्वयं की प्रवासी कविताएं क्या कहती हैं। वे अपने आपको प्रवासी -पुत्र क्यों कहते हैं? उनकी कविताओं में प्रवास की पीड़ा है , विस्थापन का दर्द है, रिश्तों की दरकती जमीन है, जन्मभूमि के यूटोपियन चित्र और यथार्थ के अंतर है, कर्मभूमि के संघर्ष हैं, विडंबनाएं हैं, दोनों से न्याय करने की जिद है। देखते हैं संग्रह में उन्होंने यथार्थ से जुड़े किन पहलूओं को रेखांकित किया गया है और प्रवासी जीवन के यथार्थ ने उनकी किन धारणाओँ और स्थापनाओं पर आघात किया है?
चाहे परिवार हो, चाहे संस्थाएं हो , या मित्रता हो पद्मेश गुप्त रिश्तों की कद्र करते हैं , उन्हें निभाते हैं , चाहे उसके लिए कितना भी त्याग ना करना पढ़े। प्रवास में कैरियर दुनियावी सफलता तो देता है, पर जीवन के सबसे नाजुक , कोमल , घनिष्ठ , आत्मीय संबंधों को छीन लेता है । ‘घड़ी, छड़ी और ऐनक’ कविता इस नाते से बहुत खूबसूरत कविता है कि इसमें जिन प्रतीकों को लिया है , वे प्रतिनिधि प्रतीक हैं, इनका होना ही कविता है, माता - पिता का कंधा, दृष्टि न बन पाने की पीड़ा। कितना दर्द होता है जब सारी सुविधाएं प्रदान करने का आश्वासन देने के बाद भी कवि मां के चुप होठों से यह पढ़ लेता है-
शायद उसी ऐनक को पहन कर
लिखा था माँ ने,
देख सकती हूँ
तुम्हारी तस्वीर मैं
बिना इस ऐनक के भी
और हमारे यहाँ
पिता की छड़ी
लकड़ी की नहीं
लड़के की होती है। ( घड़ी ,छ़ड़ी और ऐनक)
उसे यह मशीनी जीवन और सुविधाओं की दौड़ रास नहीं आती। वह लिखता है-
हाँ, अच्छा था मेरा मुट्ठी भर व्यापार
दो कदमों का आंगन और एक अँगूठी प्यार..
उसे एक ग्लानि बोध है कि एक पक्षी होते हुए भी कबूतर अपने जन्मस्थान छोड़ना पसंद नहीं करता बल्कि अपना जीवन दे देता है-
वह कबूतर था
व्यापारी नहीं,
वरना लेकर कुछ दाम
वह भी बेच देता
अपना जन्म स्थान।
और कर लेता बसेरा
कहीं किसी और पेड़ पर,
हमारी तरह
करता गर्व
कहीँ.. किसी और देश पर ( कबूतर)
उसे समझ में आता है कि इस सफलता की क्या कीमत है?
परंतु कालक्रम में वह जहां है , उस देश के प्रति भी उसका दायित्व बोध धीरे-धीरे जाग्रत होता है और वह अपने को कृष्ण की स्थिति में देखने लगता है , उसे दोहरी नागरिकता में एक समाधान मिलता है-
एक नए स्वप्न में जी रहे हैं
आजकल कृष्ण,
किसी ने उनसे कहा है
कि वे अब
दोनो के साथ रह सकते हैं,
यशोदा के भी और देवकी के भी....
कि वे किससे अधिक प्रेम करते हैं
यशोदा से, या फिर देवकी से!
उतारना चाहते हैं वे जन्मभूमि का कर्ज़
निभाना चाहते हैं कर्मभूमि के कुछ फर्ज़ ( दोहरी नागरिकता)
परंतु प्रवासी के पास सब कुछ गुडी -गुडी नहीं है । भारत में बेईमानी , धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार पर उनकी कविता 'घर एक मंदिर' एक सशक्त कविता है। यह कविता डॉ सत्येनद्र श्रीवास्तव की कविता ‘ बार-बार भारत ‘ की इस अर्थ में याद दिलाती है कि वह भारतीय समाज की विसंगतियों को और लोगों के दोहरे चरित्र को बहुत ही प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है-
जिन्होंने पहले मुझे मित्र कह कर गले से लगाया
फिर...
फिर मेरे ख़ून और पसीने को
घोल कर चाय में मिलाया,
मैने हर शिकारी के चेहरे के पीछे
कहीं बाघ तो कहीं गिद्ध के
चरित्र को पाया। (घर एक मंदिर)
इतने पीड़ादायक अनुभवों के बाद भी कवि नही चाहता है कि उनके पुत्र के भारत के प्रति प्रेम में कोई कमी आए-
भय मुझे हारने की नहीं
कुछ खोने का है,
खोना नहीं चाहता
मैं नई पीढ़ी का विश्वास।
जिसके मन के आकाश में
एक भारत है
भारत में छोटा सा घर है
घर में नन्हा सा मंदिर है ( घर एक मंदिर)
अगर भारत के प्रति प्रेम के बावजूद विडंबनाओं और अंतरविरोधों को समझने की यह दृष्टि नहीं होती तो पद्मेश जी के प्रवासी अनुभव कैरिकेचर हो जाते, युटोपियन हो जाते , उनमें यथार्थ की जीवंत तस्वीर नहीं दिखाई देती !
इस तरह से हम देखते हैं कि पद्मेश की कविताओं में प्रवासी जीवन के टुकड़े ही नहीं है , खंडित आईना नहीं है, बल्कि समग्र चित्र हैं, विस्थापन की पीड़ा है, प्रवास के गहरे प्रतीक हैं, रिश्तों की उजास के खो जाने का दर्द है, दायित्व ना निभा पाने की कसक है, दोनों देशों और समाजों से न्याय करने का संकल्प है, दोनों देशों और समाजों के प्रति प्रतिबद्धता का भाव है, अनुभवोॆें को सरलीकृत ना करने की विज़न है, परंतु परिवार, समाज, देश और संस्कृति के प्रति गहरा प्रेम हर वाक्य , हर शब्द , उसके रेशे-रेशे में गुुंथा हुआ है.। संकलन से स्पष्ट है कि क्यों उनकी कविताओं को प्रवास की प्रतिनिधि कविताएं और क्यों उन्हें प्रतिनिधि प्रवासी कवि माना जाता है ! या क्यों यह संग्रह प्रवासी कविताओं का प्रतिनिधि संग्रह है!
इस खंड की कविताओं में हमें एक कवि और कविता के बोद्दिक विकास की कड़ी दिखाई देती है। यह संग्रह प्रवास की कविताओं को केंद्र में रख कर चलता है परंतु जीवन Static नहीं है। धीरे -धीरे अपनी कर्मभूमि की समस्याएं / वास्तविकताएँ , सरोकार लेखन के केंद्र मे आते हैंं । इस दृष्टि से Brexit कविता महत्वपूर्ण है। यहां कवि अपने समय के सवाल से भिड़ता है - वह जागते -सोते इसी मुद्दे की बात कर रहा है। यह सवाल , यह चिंता , यह सरोकार उसके अवचेतन में चला गया है। वह कहता है-
‘आज सुबह जब मैं सो कर उठा
लगा जैसे मेरी अँग्रेज़ी माँ
मुझे गोद में लेकर
छोड़ रही है
मेरे फ्रांसीसी पिता का घर’ Brexit
उसे इस देश के इतिहास से मतलब है और भविष्य पर नजर है। प्रवासी दृष्टि उसी रंगभेद को समझने की भी दृष्टि देती है जब वह देखता है कि एक बारह साल के बच्चे को आईना तोड़ने पर जेल में डाला जा रहा है । तो वह दंगों को सिर्फ कानून और व्यवस्था के प्रश्न के बजाए उपनिवेशवाद और रंगभेद के संदर्भ में देखता है। इस खंड में एक बेहद खूबसूरत कविता 'गेहूँआ रंग' है जो लाहौर और लखनऊ को जोड़ती है और भारत की गंगा -जमुनी तहज़ीब का चित्रण कराती है। एक मुस्लिम वृद्द को रंगभेदी गुंडों से बचाते हुए वे लिखते हैं-
वे बोले ‘कहाँ से हो?’
मैंने कहा ‘लखनऊ’ से, और आप?
वे बोले ‘लाहौर’ से!
तब से
आने लगी है मुझे
हर ‘गेहुएँ’
गेहूँ के रंग में
अपने परिवार की महक। ( गेंहूँआ रंग)
आज के विश्व मानव Global Citizen वाले समय में वह नोटबंदी में एक बुजुर्ग महिला और उसके परिवार की पीड़ा को महसूस करते हैं। ऐसे ही कैंसर पर लिखी कविता उनकी संवेदनशीलता , सकारात्मक जीवन दृष्टि , हर परिस्थिति में आशावादिता और मनुष्यता को अभिव्यक्त करने वाली है। एक बड़े फलक , एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में लिखी हुई यह कविताएं इस संग्रह को उदारता, व्यापकता, यथार्थ की ठोस जमीन और बड़ा आकाश देती हैं।
आइए अब उस खंड की बात करें जो उनके व्यक्तिव की विशेषताओं , उसकी बुनावट, उसकी जीवन दृष्टि और सरोकारों को स्पष्ट करता है।
पद्मेश गुप्त के व्यक्तित्व में असाधरणता है । वे लिखते हैं
नहीं जानता मैं
कौन से रास्ते पर जा रहा हूं
लेकिन
तुम तक पहुंचूगां ज़रूर
क्योकि
निकल पड़ा हूं मैं ! - रास्ता
यह कोई और कहता है तो हम समझते कि यह व्यक्ति हाँक रहा है। पर पद्मेश के व्यक्तित्व में कुछ खास है। उनकी विनम्रता , खिलंदड़ा स्वभाव, अदम्य कर्मठता , सकारात्मक चिंतन , जिंदगी के सीधे, ईमानदार फंडे, घोर आशावादिता , व्यक्तियों की समझ, रिश्तों को बनाने - निभाने की गजब की ताकत, षड्यत्रों और षडयंत्रकारियों के बीच में रह कर भी वैसा ना करने और ना बनने का संकल्प उसे विशेष बनाता है । एक दिलचस्प अभिव्यक्ति देखिए-
बिगुल नहीं
बीन बजा कर
जीतता हूँ मैं युद्ध - ( य़ुद्द)
पर उनके व्यक्तित्व का परत -दर -परत यह विश्वलेषण यहां क्यों ? क्योंकि यह खंड उनकी जीवन दृष्टि , उनके परिवेश के षड्यंत्रों, हर कीमत पर सकारात्मक रहने की संकल्प शक्ति को दर्शाता है । हर परिस्थिति में सकारात्मक व्यक्ति ही यह लिख सकता है-
मुझे
सीढ़ी बनाने वालों
मैं उस धातु का बना हूँ
जब तुम गिरोगे
बैसाखी हो जाऊँगा। ( बैसााखी)
इस संग्रह की कविताओं के माध्यम से भाषा , संस्कृति और सम सामयिक सवालों पर तो बात हुई । पर व्यक्ति का जीवन बहुरंगी है। मुस्कराहट, ठहाके, खिलंदड़ापन, जीवंतता , संबंधो को बनाना और निभाना उसी व्यक्ति के लिए संभव है , जिसने जीवन को हर रंग में जिया हो। संग्रह की प्रेम कविताएं मिलन, जुदाई को खूबसूरत शब्दों, प्रतीकों, मूड्स के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं। सहज, आत्मीय, प्रेम की इन छोटी कविताओं में प्रेम के संवेदन क्षणों को पकड़ कर प्रेम कविताओं का कोलाज़ विकसित किया गया है। कविताएं आकार में छोटी हैं, पर व्यंजना गहरी है, कहे -अनकहे का संतुलन है, धार है, प्रेम के आकर्षक प्रतीक हैं , और भाव, शिल्प , संवेदन का बेहद खूबसूरत संयोजन है-
‘वहाँ तक ले चलें
जहाँ चट्टान पर किसी,
खींच सकूँ एक आकृति
जिस पर तुम्हारे नाम के साथ
कोई हिस्सा मेरे नाम का भी जुड़ा हो
और झोंका हवा का कोई
उस पर रिश्ते की सतह बिछा न सके ’( नाम)
पद्मेश की कविताओं की एक विशेषता यह है कि वह पठनीय होेने के साथ-साथ वाचन की भी कविताएं हैंं । ब्रिटेन की समृद्द कवि सम्मेलन परंपरा के वे उज्जवल स्तंभ हैं और ब्रिटेन के सबसे लोकप्रिय कवि हैं । उनकी कविताओं की तात्कालिकता, प्रत्युत्पन्नमति ( Presence of Mind) लय, मुक्त छंद पर गहरी पकड़, सही शब्दों और प्रतीकों के चुनाव से उनकी कवि सम्मेलनों की लोकप्रियता को जाना -समझा जा सकता है। शायद ही कोई प्रवासी कवि हो जो इस प्रभाव के साथ अपनी कविताओं को पढ़ सैंकड़ो लोगों को हिंदी कविता और उसके माध्यम से भारत और उसकी भाषाओ से जोड़ सकता हो। एक कवि के रूप में उनका आकलन करते समय उनके इस पक्ष का विशेष उल्लेख आवश्यक है।
बात गंगा की हो और गंगोत्री की ना हो तो बात अधूरी रह जाएगी । पद्मेश जी के व्यक्तित्व को समझने के लिेए उनके पिता लखनऊ के पूर्व मेयर रहे , हिंदी के कवि, लेखक, विद्दान, यायावर , ज्ञान के पहाड़ और विनम्रता के सागर को जानना आवश्यक है। ऐसे असाधारण और चमत्कृत करने वाले प्रवाह का उद्गगम अगर ऐसा धवल , पवित्र और सबका मंगल करने वाला ना होता तो हमें ऐसे बहुमुखी प्रतिभा का समर्पित व्यक्तित्व नहीं मिल पाता । दाऊ जी के व्यक्तित्व के पवित्रता का एक उदाहरण मैं नहीं भूल सकता । अमेरिका में हिंदी की लेखिका हैं, श्रीमती विशाखा, वे मेडिकल फील्ड में काम करती है। वर्ष 2007 में न्यूयार्क में विश्व हिंदी सम्मेलन के पश्चात मैं और दाऊ जी उनके घर गए। रात के 9-10 बजे होंगे । श्रीमती विशाखा के घर में केंसर का एक मरीज था। हम तीन लोग थे । सब थके हुए थे और भोजन करना चाहते थे। पर अगले दिन सुबह जल्दी उस मरीज को हस्तपताल ले जाना था. बिशाखा जी जिस तरह से मरीज से दाऊ जी का जिक्र किया था , वह उसी रात परामर्श और प्रेरणा और आशा के दीपक के रूप में दाऊ जी से मिलना चाहता था। दाऊ जी तुरंत उसके पास गए । रात देर तक उसके साथ रहे । शायद तब तक जब तक वह स्वयं ना सो गया। जीवन के इन अंतिम अंधेरे क्षणों में किसी के जीवन में प्रेम , संवेदन और आशा का दीपक जलाने वाले दाऊ जी के जीवन के इस प्रेरणादायी पहलू को भुलाना असंभव है। ऐसे प्रेरणादायी व्यक्तित्व और परिवार के संस्कार को अगली पीढ़ी में ले जाकर ही यह महती उपलब्धियां हासिल की गई हैं।
यह संग्रह जिनको समर्पित है , पद्मेश जी को संबंल देने वाले श्री के.के . श्रीवास्तव और सुश्री तितिक्षा को भी बधाई जो सदा उनके प्रयासों में सहयोगी और संबल बने हैं।
इस संग्रह के प्रकाशक श्री अरूण महेश्वरी के संग्रह को उनके विशेष प्रयत्नों के लिए अनेकश: शुभकामनाएँ
अनिल शर्मा ' जोशी'
द्दितीय सचिव, भारतीय उच्चायोग, सुवा
Email - anilhindi@gmail.com
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