भारतीय भाषाओं के प्रतीक पुरुष अटल बिहारी वाजपेयी के साथ सुनहरी यादें
आज 25 दिसंबर अटल जी का जन्मदिन है । कई बार सोचता हूं कि मैं बड़ा भाग्यवान हूं कि मुझे ऐसे विराट् व्यक्तित्व से मिलने, देखने और समझने का मौका मिला। ऐसे ही कुछ अविस्मरणीय यादें साझा कर रहा हूँ।
बात 80 के दशक के अंत की है। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को लेकर संघ लोक सेवा आयोग मे आंदोलन चल रहा था ।आंदोलन को चलते हुए बहुत समय हो गया था। आगे कुछ रास्ता ना निकलते देख पुष्पेंद्र चौहान, राज करण सिंह जैसे आंदोलनकारी आमरण अनशन पर बैठ गए थे । यह आंदोलनकारी अपनी भावना, निष्ठा और समर्पण के लिए देशभर में जाने जाते थे। ऐसे समय में रणनीति बनाकर संसद ,समाज, राजनीतिज्ञों और मीडिया को साथ जोड़कर देश में आंदोलन खड़ा करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। आमरण अनशन शुरू करने के बाद कई दिन निकल गए थे। धीरे- धीरे समाज और मीडिया में उसकी चर्चा भी कम होती जा रही थी । उधर आमरण अनशन करने वालों का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा था। मेरे पास उस संगठन का संयोजक के रूप में दायित्व था । इन परिस्थितियों में कोई रास्ता ना निकलता देख मुझे लगा भाषा के प्रति अनन्य प्रेम रखने वाले देश के प्रमुख व्यक्तित्व अटल बिहारी वाजपेयी से मुलाकात की जाए और उनसे मदद के लिए आग्रह किया जाए।
यह सर्दियों की शाम का समय था। शाम और रात के बीच का अंधेरा था। पूरा अंधेरा नहीं, चेहरे पहचाने जा सकते थे । राजेंद्र प्रसाद मार्ग पर अटल जी की कोठी पर एक कार्यकर्ता के साथ पहुँचा । मेरा कोई उनसे पूर्व परिचय नहीं था। बिना किसी तलाशी या पूछताछ के बाद वहां मुझसे नाम आदि पूछा गया। मेरे पास कोई विजिटिंग कार्ड नहीं था। मैंने एक साधारण कागज़ पर अपने हस्त लेख में अपना नाम लिखा, नीचे भारतीय भाषा संगठन लिखा और भेज दिया। 5 मिनट बाद ही मैं देखता हूं कि अटल जी आते हुए दिखाई दिए। सामने चार- पांच सीढ़ियां थी । वे सीटियों के ऊपर खड़े थे हम नीचे थे। उन्होंने पूछा तुम लोग किस से पूछ कर ये आमरण अनशन आदि शुरू कर देते हो ? मैंने जवाब दिया आज ही पत्रकार आए थे और उन्होंने पूछा आपके मार्गदर्शक, सहायक कौन है हमने तो आपका ही नाम लिया है। वे हँसने लगे । सीढ़ियां चढ़ कर एक मेज रखी थी। वहीं हम आमने- सामने बैठे । उन्होंने पूछा कि बताओं क्या स्थिति है ? मैंने एक- एक करके हमारी माँगे, मुद्दे और भाषा आंदोलन की प्राथमिकताएं उनके सामने रखी। वे गौर से सुन रहे थे। बीच-बीच में कुछ प्रश्न भी करते थे। बात करते-करते मुझे यह भी ध्यान था कि मैं एक बड़े राजनेता से बात कर रहा हूँ। इसलिए मैं उन सब बातों को दोहराता भी था जिनके बारे में मुझे लगता था कि उन्हें रेखांकित करना जरूरी है। 40 -45 मिनट बाद धन्यवाद देकर हम लोग निकले। उस समय हम लगातार राजनेताओं और सांसदों से पत्रकारों से मिल रहे थे जिससे आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया जा सके। हमने साथियों को संघ लोक सेवा आयोग के सामने लगे टेंट में चाय पीते हुए अटल जी से मुलाकात के बारे में बताया । परंतु हमें यह नहीं पता था इसका परिणाम क्या होने वाला है ?
उस समय अटल जी राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे। दो दिन बाद की बात होगी मैं किसी के घर में बैठा हुआ था हम लोग भोजन कर रहे थे। उस समय दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आता था संसद समाचार । उस दिन के समाचारों में विस्तार से अटल जी के भाषण का उल्लेख किया गया। जिनमें आंदोलन के प्रति प्रबल समर्थन तो था ही साथ ही हमारे सभी मुद्दों को बड़ी स्पष्टता और प्रखरता के साथ संसद में रखा गया था। यहां तक की वे सब बातें जो सामान्य रूप से गौण समझी जाती है उनका भी उल्लेख था। जैसे हमने उन्हें बताया था कि संघ लोक सेवा आयोग में तो अंग्रेजी की अनिवार्यता तो है ही परंतु स्टाफ सिलेक्शन कमीशन में क्लर्क की भर्ती में भी अंग्रेजी की अनिवार्यता है! यह बात भी उन्होंने संसद में उठायी ।
मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था । हम आंदोलन के सिलसिले में रोज राजनेताओं से मिलते थे। प्राय: भाषा का सवाल उनकी प्राथमिकता में कहीं नीचे ही होता था। जो समर्थन संसद के मंच से अटल जी ने दिया वह हमारे लिए बहुत सहायक हुआ। एक नितांत, अपरिचित युवा को समय देना, धैर्य के साथ उसकी बातें सुनना, उसके दृष्टिकोण से भाषा आंदोलन को और उसके मुद्दों को समझना , देश के सबसे बड़े मंच पर विस्तार के साथ उन मुद्दों को रखना, उनकी भाषा के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता को दर्शाता है साथ ही यह भी दिखाता है कि वे कितने बड़े इंसान थे ! यह इसका भी परिचय देता है कि वे अनजान व्यक्तियों और युवाओं की बातों को संवेदना और सहानुभूति के साथ समझते थे। 73 साल की आज़ादी के काल में वे प्रमुख व्यक्ति थे जो हिंदी और भारतीय भाषाओं को देश- विदेश में अभिव्यक्ति देने वाले बने। वे हिंदी और भारतीय भाषाओं के प्रतीक पुरुष बने जिसने पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत को हिंदी के माध्यम से अभिव्यक्त किया और हिंदी भाषियों और भारत का गौरव बढ़ाया । यह सब ऐसे ही नहीं था। उसके पीछे भाषायी संवेदना, समझ , विजन ,प्रतिबद्धता, विनम्रता जैसे कई गुण थे जो उनके व्यक्तित्व में अंतर्निहित थे ।
साहित्यिक दृष्टि से भी एक व्यक्तिगत स्मृति है जो उनकी साहित्यिक समझ, खुलेपन और गहरी दृष्टि को बताती है। डॉक्टर नरेंद्र कोहली की महाभारत पर लिखी पुस्तक के लोकार्पण में अटल जी मुख्य अतिथि थे । मैं कार्यक्रम का संचालन कर रहा था । कार्यक्रम में चर्चा का केंद्र कर्ण हो गया । अटल जी ने कहा मैंने आज तक कर्ण को वंचित व्यक्तित्व के रूप में को देखा था परंतु नरेंद्र कोहली जी ने कर्ण के व्यक्तित्व की जो व्याख्या की है और जिस प्रकार से द्रौपदी के चीरहरण के समय उसके व्यवहार को रेखांकित करते हुए उसके व्यक्तित्व को परिभाषित किया है वह भी महत्वपूर्ण है। मैं कर्ण के व्यक्तित्व को दोबारा से देखने और विचार करने की आवश्यकता महसूस कर रहा हूँ। इतने वरिष्ठ राजनेता जिनसे केवल आशीर्वाद, मार्गदर्शन या ‘अंतिम सत्य’ सुने जाने की अपेक्षा की जाती हो उनके द्वारा अपनी अवधारणाएं बदलने की बात करना, या उन पर दोबारा सोचने की बात करना इस बात का प्रतीक था कि शिखर पर पहुंच कर भी वे सरल, सहज और खुले थे। इतनी ऊंचाई पर ऐसी सरलता ,सहजता, खुलापन उनकी ख़ासियत थी।
वे वर्तमान परिस्थितियों में और प्रासंगिक हो गए हैं। आइए उनसे प्रेरणा लेकर पुन: करोड़ों लोगों की भाषाओं को उचित स्थान दिलाने के अपने अभियान को हम जारी रखें। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।