वर्तमान से टकराता और भविष्य को गढ़ता अतीत
अनिल जोशी
“ स्मृति की यह विशेषता होती है कि वह अपने पीछे कोई पद-चिन्ह नहीं छोड़ जाती- वह स्वयं पद- चिन्ह बन जाती है, परम्परा का मतलब इन पद- चिन्हों पर चलकर उस वर्तमान को पारिभाषित करना है जहाँ मनुष्य आज जीवित है। हम चलते पीछे की तरफ हैं , किंतु पहुंचते वहीं है जहाँ हम आज इस क्षण में हैं। परम्परा इस अर्थ में विगत की खोज नहीं, विगत के भविष्य का अन्वेषण है। हम पीछे की तरफ चलते हुए आगे की तरफ बढ़ते हैं, और तब हमें पता चलता है कि आगे और पीछे का ऐतिहासिक बोध स्वयं अपने में छलना है- समय की दृष्टि से जो आगे हो, जरूरी नहीं वह विगत की कसौटी बन सके ; उल्टे जो बीत चुका है वह एक नैतिक मर्यादा के रूप में एक स्वपन की तरह मनुष्य के आगे –पीछे चलता है। “ निर्मल वर्मा
“रामकथा, महासमर” के नाम से महाभारत का पुनर्लेखन और विवेकानंद के जीवन चरित का वर्णन “ तोड़ो कारा तोड़ो ” के रूप में कर नरेंद्र कोहली ने भारतीय वाड्गमय के प्रमुख ग्रंथों की पुनर्व्याख्या की है और संस्कृतिपरक विपुल साहित्य का सृजन किया है।
व्यंग्य और कहानी के क्षेत्र में साहित्य मे एक स्थान बनाकर नरेंद्र कोहली ने राम कथा पर ‘अवसर’ , ‘दीक्षा’ , ‘संघर्ष की ओर’ ,‘अभ्युदय’ इत्यादि लिख रामकथा की तार्किक, विज्ञानवादी, प्रगतिशील व्याख्या की। उनके द्वारा सृजित साहित्य में दलितों, वंचितों, वनवासियों, आदिवासियों, ग्रामीणों , भीलों के प्रति करूणा, न्याय , समता और न्यायपूर्ण दृष्टि राम को अत्यंत आधुनिक और प्रगतिशील बनाती है। नवयुग के लिए आदर्श, सदा बुराई से युद्ध के लिए सन्नद्ध। कुछ लोगों के स्वार्थ राम को दलित, स्त्री,अनार्य विरोधी सिद्द कर सधते हैं। परन्तु नरेन्द्र कोहली ने रेखांकित किया कि राम अहिल्या का उद्धार कर रहे हैं। केवट, सुग्रीव से मित्रता कर रहे हैं। समता और श्रम के महत्व को प्रतिपादित कर रहे हैं। शबरी के झुठे बेर खा रहे हैं। राक्षसों का विनाश कर, सत्य की स्थापना कर तथा सुग्रीव और बिभीषण को सिंहासन देकर त्याग, संवेदना और पुरूषार्थ की प्रतिमा बन जाते हैं। वे 20 वीं 21 वीं शताब्दी में भी लोकनायक हैं।
नरेन्द्र कोहली कहते हैं कि महाभारत मे उन्होंने व्यास की दृष्टि का अनुकरण किया। यह कहा जाता है कि जो कुछ भारत में है वह महाभारत में हैं और जो महाभारत में नहीं वह कहीं नहीं, तो इतने बड़े आख्यान को बौद्धिक रूप से एक सूत्र में पिरोना और वर्तमान संदर्भों में प्रस्तुत करना एक बहुत बड़ी चुनौती थी। मुझे ‘महासमर’ के एक खण्ड ‘ प्रच्छन्न’ का लोकार्पण कार्यक्रम ध्यान में आता है जिसके लोकार्पण के दौरान श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने नरेंद्र कोहली जी द्वारा किए गए कर्ण के चरित्र चित्रण के संबंध मे अपनी राय दी । वे शाय़द कर्ण की आलोचना से बहुत सहमत नहीं थे। परंतु उन्होंने भी द्यूत सभा में उनके आचरण को उचित नहीं माना था । पर अगर हम महाभारत को पढ़ते हैं तो पाते है कि दुर्योधन के कुकर्मों मे कर्ण की असंदिग्ध भूमिका रही थी। याने व्यास और नरेन्द्र कोहली का आकलन कर्ण के बारे में एक जैसा था। इसी प्रकार युधिष्ठर के चरित्र को लेकर वर्तमान समाज में नकारात्मक धारणाएं विद्यमान हैं। युधिष्ठर को कैरिकेचर मानने वाले लोगों की कमी नहीं । लोग यह मानते हैं कि सत्य के प्रति युधिष्ठर की निष्ठा अव्यावहारिक, नासमझी भरी, राजाओं के लिए असंभव जैसी है। वे राष्ट्र निर्माण में गांधी जी के सत्य के प्रयोगों वा भारत के राष्ट्रचिह्न पर लिखे ‘ सत्यमेव जयते ’ पर ध्यान नहीं देते। नरेंद्र कोहली व्यास की तरह युधिष्ठर को महानायक मानते हैं, उन्हें धर्मराज की पदवी देते हैं। व्यास दृष्टि की बात करना आसान है। परंतु व्यास की दृष्टि लाने के लिए उच्च स्तर की शुद्ध चेतना, सात्विकता से भरा जीवन, इतिहास बोध और व्यापक जीवन दृष्टि भी चाहिए । ऐसा लेखक चाहिए, जो पात्रों , परिवेश, पात्रों और परिवेश के बीच गत्यात्मक संबंधों , घटनाओं और गतिविधियों, क्रिया कलापों के कारण, हेतु, प्रयोजन और उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए व्यास की करूणा, संवेदना, न्याय दृष्टि और धर्मदृष्टि को आत्मसात करे हुए लिख सकें। इतने महान लेखक की रचना को पुन प्रस्तुत करना भागीरथी कार्य था। नरेन्द्र कोहली ने जिस प्रतिभा, कल्पनाशीलता , रचनाशीलता, प्रज्ञा , दृष्टि से यह महत् कार्य किया वह सुखद रूप से अविश्वसनीय है ।
‘तोड़ो कारा तोड़ो’ की रचना नरेन्द्र कोहली के लेखकीय जीवन में बड़ा मोड़ है । इससे पहले का उनका लेखन तार्किक बुद्धिवाद पर आधारित था। उनका कहना है कि इस पुस्तक श्रृंखला के बाद उन्होंने जीवन ओर लेखन में आध्यात्मिक तर्क स्वीकार किए । महान और विराट चरित्रों की संगत में तार्किक नरेन्द्र कोहली का आस्थावादी नरेन्द्र कोहली में परिवर्तन हो गया। इतने आस्थावादी हुए कि ईश्वर से मिलन के प्रसंगो का चित्रण करने लगे। उनका कहना है कि रामकथा और महाभारत को उन्होंने जहां चमत्कारों से निकाल कर वर्तमान संदर्भों में विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया वहीं स्वामी जी के साथ तार्किककरण की ऐसी कोई विवशता नहीं थी।
विवेकानंद के चरित्र के साथ नरेन्द्र कोहली की यह अंतरगता यहीं समाप्त नहीं हो जाती । नरेन्द्र कोहली ने स्वामी विवेकानंद में संभवत : अपना रोल माड्ल पा लिया था। अंग्रेजी साम्राज्य के विराट वैभव और बौद्धिक श्रेष्ठता को दो महापुरूषों ने चुनौती दी थी- विवेकानंद और गांधी जी। विवेकानंद का बौद्धिक तर्कवाद नरेन्द्र कोहली के सबसे समीप पड़ता है। “यदि ईश्वर हो तो उसका साक्षात्कार करना होगा। यदि आत्मा नाम की कोई चीज है तो उसकी उपलब्धि करनी होगी। अन्यथा विश्वास ना करना ही भला। ढोंगी होने से स्पष्टवादी नास्तिक होना अच्छा है। .... भौतिक विज्ञान तुम जिस ढंग से सीखते हो , ठीक उसी ढंग से यह धर्मविज्ञान भी सीखना होगा। “ ‘ राजयोग’ पुस्तक में यह विवेकानंद की उक्ति है।
जिस प्रकार विवेकानंद ने 19 वीं शताब्दी में आध्यात्म को बौद्धिकता, तर्कशाश्त्र और वैज्ञानिकता से जोड़ा था नरेंद्र कोहली उसकी अगली कड़ी हैं।
विवेकानंद से नरेन्द्र कोहली की समानता सिर्फ यहीं समाप्त नहीं हो जाती बल्कि विवेकानंद के धर्म के केन्द्र में भारत का जो महत्व हैं वही नरेन्द्र कोहली के लिए है। प्रखरता , राष्ट्र ध्रर्म, ओज, पुरूषार्थ पर दोनों ही बल देते हैं। दोनों ही भारत के राजस् का आह्वान करते हैं। भारत की अस्मिता को सुदृढ़ करने के लिए स्वामी ने जो रास्ता दिखाया था नरेन्द्र कोहली ने उसी मार्ग का अनुसरण किया है। इस मामले में कहा जा सकता है कि नरेन्द्र कोहली ने विवेकानंद की स्थापनाओं को साहित्य में स्थापित किया है।
नरेन्द्र कोहली की रचनात्मक उपलब्धि का सबसे बड़ा आयाम है - व्यक्ति और सामाजिक मनोविज्ञान का गहरा ज्ञान और तद्नुसार घटनाओं और चरित्रों की व्याख्या। रामकथा के प्रसंग की शुरूआत नरेन्द्र कोहली हमारे द्वारा अनसुनी घटना, कैकेयी के भाई की हत्या से करते हैं । यह एक घटना दशरथ के दरबार में चल रहे षड्यंत्रो और राम के भावी बनवास को तार्किक आधार देती है। इसी प्रकार महाभारत में द्रौपदी का पांचो भाईयों से विवाह के संबंध में यह कहना कि मां ने बिना देखे कहा कि भिक्षा कों बांट लों और द्रौपदी का पांचों भाईयों से विवाह हो गया । गले से नहीं उतरता । पंरतु द्रौपदी के स्वयंवर में अर्जुन के साथ भीम का भी पराक्रम, महारानी होने के लिए युधिष्ठर से विवाह की अनिवार्यता और भाईयों की एकता की दृष्टि से नकुल और सहदेव से विवाह जैसे तर्कों के आधार पर पांचों भाईयों से विवाह तार्किक लगता है। इसी प्रकार के सैंकड़ों स्थल हैं जहां नरेद्र कोहली ने कथा की बुनावट में व्यक्ति और समाज मनोविज्ञान की गहरी समझ प्रस्तुत कर कथा की बुनावट को विश्वसनीय और प्रामाणिक बना दिया है।
नरेन्द्र कोहली की एक और विशेषता कथा के मार्मिक स्थलों का ज्ञान और स्पष्ट दृष्टि है। सीता , शंबूक वध, ,एकलव्य, गंगा के पुत्रों की मृत्यु आदि के संदर्भ की उन्होंने विश्वसनीय व्याख्या की है। उनकी दृष्टि स्पष्ट है। किसी प्रकार का कोई उलझाव नहीं। कृष्ण, कर्ण,दौप्रदी जैसे जनमानस में रचे बसे जटिल चरित्रों को नरेन्द्र कोहली मानवीय स्वभाव, व्यक्ति मनोविज्ञान, सामाजिक परिप्रेक्ष्य, उपलब्ध प्रमाणों और अपनी प्रज्ञा के बल पर जो समाधान देते हैं वह प्रामाणिक, विश्वसनीय, तार्किक और मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है।
आजादी के बाद साहित्य में एक रोचक तमाशा शुरू हुआ । प्रत्येक साहित्यिक आंदोलन : प्रयोगवाद, नई कविता, अकविता , प्रगतिवाद, आधुनिक वाद के मूल में मोहभंग, नास्तिकता और मूल्यहीनता का रोना रोया गया। यहां तक की मूल्यहीनता एक मूल्य के रूप में स्थापित हो गई। यह किसी साहित्यकार विशेष के मूल्यहीन होने की बात नहीं थी बल्कि मूल्यहीनता को समाज में एक इच्छित आदर्श के रूप में स्थापित करने की चेष्टा थी। सच्चाई यह थी कि समाज उतना मूल्यहीन नहीं था। ऐसे दंभी , तिकड़मी, जाति और वाद की राजनीति करने वाले मूल्यहीनता के सरोकारों के बीच नरेन्द्र कोहली को चर्चा और समीक्षा के केन्द्र से सप्रयास दूर कर दिया गया। साहित्यिक दरबारों से निर्वासित या अपने पात्रों की तरह बनवासी, साधनारत। परंतु ऐसे साहित्यकारों/ आलोचकों के लिए एक समस्या थी कि नरेन्द्र कोहली पाठकों के बहुत प्यारे थे। अत्यंत लोकप्रिय । जी हाँ, सबसे लोकप्रिय । सौभाग्य से, पाठकों के जीवन से मूल्य अभी खारिज नहीं हुए थे। भारत के जनमानस की साहित्यिक समझ, संवेदना और जरूरत के बारे में इन साहित्यकारों और आलोचकों की समझ के दीवालिएपन का एक बड़ा प्रमाण नरेन्द्र कोहली का मूल्यांकन हैं।
अपने प्रिय पात्रों- युधिष्ठर और राम की तरह नरेन्द्र कोहली व अन्य साहित्यकारों मे एक और अंतर है जहां बहुत से साहित्यकारों ने आचरण की श्रेष्ठता, नैतिकता जैसे मूल्यों को व्यक्तिगत जीवन से बहिष्कृत कर दिया था वहीं नरेन्द्र कोहली अपने प्रिय पात्रों- राम, युधिष्ठर की तरह साधनारत रहे। ऐसा विराट, उदात्त , पवित्र, चिरकालिक सृजन तिकड़मी, दारूबाज, लंपट, षडंयंत्रों में लीन तथाकथित महान साहित्यकार नहीं कर सकते थे। प्रसाद, निराला, प्रेमचंद, पंत, महादेवी, हजारी प्रसाद द्विदी, अमृतलाल नागर , रामचन्द्र शुक्ल , रामविलास शर्मा के बाद की पीढ़ी के साहित्यिक कैरियर और समीकरणों के खेलों से उदासीन 45 साल से ज्यादा का नरेन्द्र कोहली का साहित्यिक सफर लेखकों और साहित्यिक समाज के लिए यह आश्वस्ति है कि धरती अभी ( साहित्यिक) वीरों से खाली नहीं हुई है ।
नरेद्र कोहली के सांस्कृतिक बोध का एक महत्वपूर्ण हिस्सा उनकी प्रखर राष्ट्रीय चेतना है। इस राष्ट्रीय चेतना के केंद्र में उनकी धर्म दृष्टि है जो अन्यायी , अधर्मी और असुर प्रवृत्तियों के स्पष्ट रूप से खिलाफ है , जो किसी प्रकार का समझौता स्वीकार नहीं करती। जिसका सत्य के प्रति आग्रह किसी मुलम्मे में नहीं चढ़ा। जो “पोलिटीकली करेक्ट” रह कर द्रोण की तरह अपनी दुर्दशा नहीं करता बल्कि “करेक्ट” होकर देश , समाज और राजनीति के बरक्स उस सत्य को रखती है जो एक ईमानदार दृष्टा देखता है और सृष्टा सृजित करता है। उनकी पुस्तकें पाठक इसलिए नहीं पढ़ते कि प्रकाशक के साथ लाइब्रेरी खरीद की डील हुई है बल्कि इसलिए पढ़ते हैं कि उनमें जीवन के सत्य हैं। उनमें हमारे लोकजीवन में रचे - बसे संस्कृति के अमर तत्वों को निखारकर , वर्तमान के प्रकाश के आलोक में प्रस्तुत किया गया है । राम , कृष्ण, युधिष्ठर, विवेकानंद जैसे शाश्वत समकालीन चरित्रों के माध्यम से नरेंद्र कोहली ने भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों के अन्वेक्षण का जो ऋषितुल्य काम किया है. वह उन्हें हजारी प्रसाद द्विवेदीजी, रामचन्द्र शुक्त, जयशंकर प्रसाद, अमृतलाल नागर जैसे पिछली शताब्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों की श्रेणी में रखता है।
उनकी जीवन यात्रा के 6 जनवरी, 2015 को 75 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस अवसर पर भारतीयता के लिए प्रतिबद्ध ‘भारतीय पक्ष’ पत्रिका ने विशेषांक निकालने का निश्चय कर श्रेष्ठ संकल्प लिया है। मैं सामाजिक दृष्टि से प्रतिबद्ध विमल कुमार सिंह के इस शुभ संकल्प की सराहना करता हूं और आशा करता हूँ कि नरेन्द्र कोहली के इस अमृत महोत्सव वर्ष के माध्यम से हम उस प्रकाश को समाज के ज्यादा से ज्यादा लोगों के पास ले जाएंगे जो आदिकाल से बाहर – भीतर भारतीय समाज को आलोकित करता रहा है और नरेन्द्र कोहली द्वारा चित्रित कृष्ण की तरह उन्हें धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देकर उन्हें मुक्त करेगा।
“अनासक्त विवेक है धर्म ! अनासक्ति ! मोह का पूर्ण त्याग ! “ कृष्ण बोले, “ मोह किसी के प्रति नहीं होना चाहिए – न जाति के प्रति , न संबंध के प्रति, न सिद्धांत के प्रति ! धर्म सदिच्छा और सद्परिणाम में है। यदि परिणाम शुभ नहीं है तो व्यक्ति को अत्यन्त निर्भय होकर अपनी धर्म – व्यवस्था, समाज व्यवस्था और शासन व्यवस्था को परखना चाहिए।... आप धर्म के बंधन में बंधे रहे, जबकि धर्म बांधता नहीं, मुक्त करता है।“
नरेन्द्र कोहली के साहित्य की अमृत धारा लाखों – करोड़ों को मुक्त करे । उनके लिए निरंतर धर्म और सत्य का मार्ग प्रशस्त करे । नरेन्द्र कोहली स्वस्थ रहें , दीर्घायु हों। उन्हें सतत सरस्वती का वरदान प्राप्त रहे । इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।