रविवार, 22 जुलाई 2018

'प्रवासी लेखन: नयी ज़मीन , नया आसमान' से ऐसा लगा ग्रेजुएट हो गया है प्रवासी लेखन

'प्रवासी लेखन: नयी ज़मीन , नया आसमान' से ऐसा लगा ग्रेजुएट हो गया है प्रवासी लेखन
                                                                             डॉ सुषम बेदी           
                                एमरेटस प्रोफेसर , कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क





प्रवासी साहित्य को लेकर ज्यादातर विश्वविद्यालयों के छात्रों की शोध मे रुचि तो अकसर सुन जाती थी पर उसे लेकर स्वतंत्र पुस्तक की रचना के बारे में नहीं सुना था. हां कुछेक लेख जरूर देखने को मिले पर लगता है किसी भी हिंदी लेखक को वह इस लायक नहीं लगा कि उस पर पूरा एक ग्रंथ लिखा जा सके.  तभी जब अनिल जी ने कुछ शब्द लिखने के लिये अपनी पुस्तक "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान " के अंश भेजे तो लगा कि अब प्रवासी लेखन बाकायदा सारी कक्षायें पास करके ग्रेजुएट हो गया है. अब उसे भी एक पढेलिखे साहित्य समाज के सम्मानित सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया है.  यूं सच मे इस साहित्य की यात्रा बेहद कठिन रही है.  देखा जाये तो यह बहुत कुछ २१वी सदी का ही फिनामना है.  मुझे याद है अाठवें  दशक के अंत अौर नवें दशक में जब मेरी कहानियां हिंदी की मुख्य पत्रिकाअों(धर्मयुग, सारिका, हंस, साप्ताहिक हिंदुस्तान, वागर्थ अदि) में छप रही थीं तो पाठकों का ध्यान तो जरूर उन पर जाता था, मुझे हर कहानी पर िहंदुस्तान के अलग अलग शहरों से ढेर सारी प्रशंसात्मक चिट्ठियां भी मिला करती थी अौर १९८८-८९ में जब कमलेश्वरजी ने गंगा मे मेरे उपन्यास "हवन" को धारावाहिक रूप से प्रकाशित किया तो उसके विषय की नवीनता को लेकर उन्होंने उसे नयी जमीन तोडनेवाला उपन्यास कहा.  हवन की चरचा खूब हुई फिर भी किसी ने मुझे प्रवासी उपन्यासकार नहीं कहा.  मजेदार बात है कि सबसे पहले जब "हवन"१९९३ मे अंग्रेजी मे "द फायर सेक्रेफाइस" नाम से इंगलैंड से छपा वहां मुझे अमरीका मे रहनेवाली हिंदी कथाकार, यानि कि एक डायसपोरा हिंदी लेखिका के रूप मे देखा गया--ये मेरी नयी पहचान थी, मेरे लिये  नयी.  मैं तब भी खुद को हिंदी की, भारत की कथाकार ही मानती थी, मेरी नागरिकता भी भारत की थी.   हवन के उपर लिखे गये  श्री के। बी।एल पाडेय अौर पुष्पपाल सिंह जी के समीक्षात्मक लेखों मे मेरी गिनती उषा प्रियंवदा, निर्मल वर्मा, महेन्द्र भल्ला अादि भारत से बाहर रहकर लिखने वालों मे की गयी पर ऐसा कोई वर्गीकरण नहीं किया गया कि मैं प्रवासी लेखिका हूं.  फिर पता नहीं कब यह मुहिम चल पडा कि प्रवासी साहित्य को मान्यता मिलने चाहिये. मुझे अपना इस तरह कहलाया जाना अच्छा नहीं लगा था.  पर मेरे लिये अहमियत मेरे लेखन की ही रही. कोई क्या कहता है इस पर कभी गौर नहीं किया.  मैं हमेशा शमशेरबहादुर जी की कविता के शब्दों मे कहती रही अौर अाज भी कहती हूं-"बात बोलेगी, हम नहीं, भेद खोलेगी, बात ही."

मेरा इंगलैड जाना होता रहता है. लंदन का भी खास अाकर्षण है.  फिर वहां हिंदीवाले भी खूब मिले तो अाकर्षण अौर बढ गया.  हर ट्रिप मे नेहरु सेंटर मे दिव्या माथुर से जरूर मुलाकात होती थी.  वहां हिंदी साहित्य की सरगर्मी खूब थी.  धीरे धीरे दिव्या के ही जरिये दूसरे लेखकों से भी मुलाकात हुई.  २००४-५ में मुझे अपने पति के साथ लंदन में महीना महीना बिताने का मौका मिला. तभी मुलाकात हुई थी अनिल जोशी जी से.  उन दिनों तो सचमुच हिंदी की खूब हलचल थी, कवि सम्मेलन, कहानी पाठ, कुछ न कुछ होता रहात. सिरफ लंदन ही नहीं, बर्मिंघम.  यार्क मे महेन्द्र वरमा जी अौर उषा वरमा ने मुझे कहानी की वर्कशाप देने के लिये बुलाया था.  बरमिंघम भी गयी भाषण के लिये. लंदन के सारे लेखकों से मिली. तेजेन्द्र शर्मा का कथा यूके भी जोर पर था. उनकी संस्था मे भी कहानी पाठ किया. उषा राजे से भी लंबी बातचीत.  इस तरह इंगलैंड के साहित्यिक  माहौल से मैं बहुत प्रभावित हुई थी.  यूं मैं न्यूयार्क मे कहानी गोष्ठी करती रहती हूं पर लगा कि यहां वैसा साहित्यिक माहौल नहीं बन पाया जैसा इंगलैंड मे है.  खुद ही इस का जवाब यह भी देकर खुद को बहला लिया कि यहां सब बहुत दूर दूर है. कार से जाने के बजाय हवाईजहाज पर ही निर्भर करना पडता है , तभी बुलाअो तो भी कोई नहीं अाता.
कहने का तात्पर्य यह है कि इंगलैंड से ही कहीं प्रवासी साहित्य का कारवां निकला अौर हिंदी साहित्य के अासमान में गुबार की तरह फैल गया.  हर तरह समर्थन हुए अौर विरोध भी. अनिलजी चूंकि इगलैंड मे पोस्टेड थै, उन्होने प्रवासी लेखकों का संघर्ष देखा अौर वे भी उस संघर्ष में जुड गये. मुझे याद है कि २००६ जनवरी में जब मैं भारत मे थी तो वे दिल्ली मे पोस्ट हो चुके थै अौर वहां भी उनकी प्रवासी साहित्य की स्थापना की लडाई चलती रही. साहित्य अकादमी में उन्होंने प्रवासी साहित्य सम्मेलन का अायोजन किया था जिसमे िहंदी साहित्य के विद्वानों को इस साहित्य पर बोलने के लिये बुलाया गया था. रामदरश मिश्र भी वहां थे. रोहिणी अग्रवाल मे मेरे उपन्यासो पर बात की थी.  तब किसी ने यह सवाल उठाया कि चूंकि प्रवासी अहिंदी भाषी देशों मे बैठकर हिंदि मे लिख रहे है तो उनके साथ रियायत की जाय. जिसका मैंने डटकर विरोध किया िक अगर प्रवासी साहित्य अपने पैरो पर खडा नहीं हो सकता तो मरने दीजिये उसे.  अौर देखिये खडा हो ही गया.  बाकायदा स्वस्थ युवक या युवती, किसी का सहारा नहीं चाहिये उसे.  अपने बूते जियेगा, फलेगा, फूलेगा.  देखा जाय तो कभी कभी यह भी लगता है कि जिस तरक अमरीका अौर इंगलैड -रिटर्न्ड भारतीयो को भारत में यूं ही महत्व मिल जाता है वैसा ही कहीं इस साहित्य के साथ भी न हो रहा हो. पश्चिम की, दौलत की चमक अंा,खे चुंधिया तो देती ही है. खैर असलियत तो वक्त ही बताता है--क्या रहेगा, क्या बेमौत मारा जायेगा!
तो अब बात करे "प्रवासी साहित्य : नई जमीन, नया आसमान " कीा  अालोचना खंड खोला तो एक ही बैठक में पूरा का पूरा पढ डाला.  अनिलजी ने प्रवासी साहित्य को लेकर समय समय पर उठे सभी सवालों को अपनी कलम में समेट लिया है.   यहां तक कि प्रवासी नाम को लेकर भी लंबी चरचा की है कि प्रवासि लेखको ने ही पहले नाम बनाने के लिये शोर मचाया अौर जब नाम बन गया तो ये रोना रोने लगे कि हमें मुख्यधारा में क्यों नहीं मानते, प्रवासी कह कर अलग क्यो कर दिया, दोयम दरजे पर धर दिया.  विवाद सारा का सारा पढने मे दिलचस्प है.  यूं मै खुद इससे बाहर ही रही सो ज्यादा कह नहीं सकती. यह सब भारत अौर इंगलैंड के बीच ही हुअा.  अनिलजी चूंकि खुद लंदन के प्रवासी दृश्य का हिस्सा रहे हैं सो उन्होने ब्रिटेन के लेखकों की विशेष चरचा की है, उन्ही की पुस्तकों की समीक्षायें है पर खास बात यह है कि उन्होंने इस बात पर जोर दिया है केवल इंगलैंड अमरीका के लेखक ही प्रवासी साहित्यकारों की श्रेणी मे नहीं है, मौरिशस, फिजी इत्यादि के हिंदी लेखको को भी हिंदी साहित्य जगत में पूरा स्थान मिलना चाहिये.  
पूरी पुस्तक सात खंडो मे बंटी है.  सरोकार खंड में प्रवासियो के सरोकार है , साक्षात्कार खंड मे कुछ लेखकों से साक्षात्कार है, कहानी अौर कविता के अलग अलग खंड है.  सरोकार खंड मे अगर प्रवासी लेखकों के कथ्य में किस तरह के सवाल अौर सरोकार उभरे हैं इसकी चरचा होती तो अच्छा रहता.  मूलत: यह ग्रंथ समय समय पर प्रवासी साहित्य के अलग अलग मुद्दों पर जो लेख अनिल शर्मा लिखते रहे हैं, उन्ही को व्यवस्थित, संयोजित करके प्रस्तुत किया गया है. पुस्तक खूब पठनीय है. जिस जिस हिस्से को भी मैंने पढने के लिये उठाया, बडे अाराम से झटपट पढ गयी.  अनिल जी को सराहती हूं कि अपनी व्यस्त सरकारी नौकरी को निभाते हुए भी वे प्रवासी साहित्य से इतने सालों से जुडे रहे, उसके मुद्दो पर सोचते रहे, लिखते रहे अौर अाज उनकी सालों की मेहनत "प्रवासी साहित्य: नई जमीन, नया आसमान" के अाकार मे हमारे सामने है.
सुषम बेदी

शनिवार, 14 जुलाई 2018

'प्रवासी लेखन : नयी जमीन, नया आसमान' - प्रवासी समाज, भाषा और संस्कृति जैसे मुद्दों की गहरी आलोचनात्मक पड़ताल - डॉ कमल किशोर गोयनका



डॉ कमल किशोर गोयनका, उपाध्यक्ष , केंद्रीय हिंदी संस्थान


अनिल जोशी से मेरा संबंध / संपर्क तीन दशक पुराना तो है ही। अनिल दिल्ली में साहित्यिक गतिविधियों के निष्ठावान आयोजक तथा काफी बड़ी संख्या में लेखकों को साथ लेकर चलने में सक्षम रचनाकार हैं। अनिल के जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा साहित्य, संस्कृति, भाषा, राष्ट्र और राष्ट्रीयता के प्रश्नों और उनके उत्तरों को तलाशने में व्यतीत हुआ है और साथ ही  इंग्लैंड, फीजी आदि देशों में भारतीय उच्चायोग में हिंदी अधिकारी के रूप में कार्य करते हुए हिंदी भाषा और साहित्य के विकास का महत्वपूर्ण कार्य भी किया है। मैंने कई बार महसूस किया है कि अनिल जोशी स्वयं में एक संस्था हैं और वे भारतीय संस्कृति एवं अस्मिता तथा राष्ट्र बोध के लिए समर्पित होकर कई पीढ़ियों को साथ लेकर चलने में सिद्धहस्त हैं। उन्होंने 'अक्षरम्' संस्था की स्थापना करके तथा उसकी निरन्तर होने वाली गतिविधियों से अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है और अब फीजी में भारतीय उच्चायोग में रहते हुए वे हिंदी भाषा व साहित्य तथा भारतीय संस्कृति के प्रचार - प्रसार के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं। अनिल जोशी ने काफी लिखा है और प्रवासी साहित्य पर उनके आलोचनात्मक लेखन से वे विशेषज्ञ की स्थिति तक पहुँच गये हैं। हिंदी में हमें अनिल जोशी जैसे  समर्पित,  निष्ठावान तथा निरन्तर कर्मशीलता वाले लेखक-आलोचक चाहिए जो हिंदी को राष्ट्रभाषा तथा वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए जीवन अर्पित कर दें। 
प्रस्तुत पुस्तक के सरोकार खण्ड में प्रवासी समाज, भाषा और संस्कृति जैसे मुद्दों की गहरी आलोचनात्मक पड़ताल है। इस खण्ड की विशेषता वह संवेदनशीलता है जिसके साथ इन प्रश्नों को उठाया गया है। उदाहरण के लिए विदेश में मृत्यु होने पर चिता जलान े की अनुमति देने की बात , या भारत से बाहर ़डिप्रेशन होेने के कारणों की जांच - पड़ताल , प्रवासी दिवस में निवेश संबंधी चिंता की चकाचोंध में भाषा और संस्कृति को केंद्र में रखने के प्रयास पर जोर देना या प्रमुख प्रवासी लेखकों या रचनाओं पर एक आत्मीय संवेदनशीलता से विचार का प्रयास । सब लेख यह सिद्द करते हैं  कि प्रवासी समाज, भाषा , साहित्य और संस्कृति के साथ उन्होंने गहरा तादातम्य विकसित किया है। उनका हाथ प्रवासी समाज के नब्ज पर है और इनमें प्रवासी समाज की सोच, संवेदना, सरोकार बखूबी व्यक्त हुए हैं। 

वे स्वयं कवि हैं और प्रवासी कविता पर उनकी गहरी पकड़ है। ब्रिटेन में रहकर उन्होंने ब्रिटेन के 23 कवियों की कविताओं का संकलन ‘धरती एक पुल’ प्रकाशित किया था। पश्चिम में रहने वाले हिंदी कवियों की यह प्रतिनिधि पुस्तक है ।  पुस्तक भारतीय मूल के पश्चिम में रहने वाले कवियों की कविताओं की आलोचनात्मक पड़ताल करती है पर उसके औजार भारत के आलोचना शाश्त्र से नहीं निकले हैं, बल्कि पश्चिम के हवा -पानी में विकसित हुए भारतीय बीजों की विशिष्ट सुगंध को आंकते समय व्यापक और उदार दृष्टिकोण को आधार बनाया गया  है। यह दृष्टि  उन्हें  ब्रिटेन के लंबे प्रवास और डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव, मोहन राणा , दिव्या माथुर , सुषम बेदी, पद्मेश गुप्त, गौतम सचदेव, अचला शर्मा जैसे लेखकों के साथ साहित्यिक संसर्ग से मिली। कविता के शाश्वत तत्व को चिन्हने की क्षमता , उसके शिल्प की सुघड़ता का निश्चय , समकालीन संदर्भों से उसका जुड़ाव और समग्र रूप से उसका मूल्यांकन उनकी आलोचनात्मक क्षमता को एक विशिष्ट धरातल देता है।

कहानी, पुस्तकों ,उपन्यासों, व्यक्तियों पर बातचीत से एक मुकम्मल चित्र बनता है। हम प्रवासी रचनाकारों को , उनके सरोकारों को , उनकी व्यक्तित्व की और रचना कर्म की संरचना , उसकी जटिलताओं , उसके संदर्भ , उसकी बुनावट, उस के खास किस्म के शिल्प , उसकी  विशिष्टताओं को समझ सकते हैं। यह आकलन, मूल्यांकन ,यह प्रस्तुति सबके बस की बात नहीं , इसके लिए प्रवासी मन की विशेष बुनावट को समझना पड़ता है। अनिल जोशी के लंदन  के पाचं साल के कार्यकाल और प्रवासी टुडे और अक्षरम के कारण प्रवासियों से व्यापक और अंतरंग संपर्क और फीजी के प्रवास  ने एक विशिष्ट किस्म की अंतरदृष्टि दी । यह व्यापकता और गहराई इस पूरे लेखन में दिखाई देती है। ब्रिटेन, युरोप, अमेरिका , कनाडा , मध्यपूर्व, फीजी , आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड  में रहने वाला शायद कोई प्रमुख साहित्यकार हो जिससे अनिल व्यक्तिगत रूप से परिचित ना  हों। युरोप, अमेरिका, कनाडा आदि के साहित्यकारों का ऐसा विशद और गहरा मूल्यांकन आलोचना की पुस्तक के रूप में शायद ही कहीं उपलब्ध हो। 

इस संकलन की विशेष उपलब्धि कहानी खण्ड है। प्रवासी लेखन की श्रेष्ठ चुनी हुई कहानियों का ऐसा विश्लेषण शायद ही कहीं उपलब्ध हो। इन कहानियों के माध्यम से प्रवासी जीवन के विविध पक्षों का जैसा सांगोपांग विश्लेषण किया गया है, वह दुर्लभ है। मजेदार बात यह है कि वह अपने आप में आलोचनात्मक लेखन से अधिक रचनात्मक लेखन लगता है। जैसे कहानी की कहानी कही जा रही हो। आलोचना और कहानी गुंथी हुई। प्रतिनिधि संवाद और कहानी की संरचना पर परत -दर -परत बात। इऩ आलोचनाओं के माध्यम से वे  प्रवासी कहानियों को समझने के लिए आवश्यक टैम्पलैट देते हैं। इन कहानियों का चयन ही उऩकी असाधारण दृष्टि को रेखांकत करता है।
अनिल की एक और विशेषता जटिल और विवादास्पद विषयों पर बचने की प्रवृत्ति के बजाए , बड़े साहस, तर्को और तथ्यों, वस्तुनिष्ठता  के साथ अपनी बात रखना है। पिछले कुछ वर्षो में प्रवासी साहित्य को प्रवासी साहित्य कहें या ना कहें को लेकर जो विवाद उत्पन्न हुआ , उस संबंध में  हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका ‘हरिगंधा’ में प्रकाशित लेख उनकी शोधपरक प्रवत्ति , विचारों की तीक्ष्णता ,  विश्व साहित्य और प्रवासी साहित्य के विशद अध्य्यन की जानकारी देता है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस लेख के बाद इस पूरी बहस को एक दिशा मिली और नकारात्मक प्रवृत्तियों को एक विराम मिला । यह लेख उनकी सशक्त लेखनी का प्रमाण है कि उनमें विचार प्रवाह की दिशा को समझने और मोड़ने की शक्ति है। अन्य आलोचनात्मक लेख भी प्रवासी साहित्य से व्यापक घनिष्ट संपर्क का परिचय देते हैं। 



एक लेखक के साथ -साथ अनिल एक विचारक , चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, देश -विदेश में हिंदी का प्रचार - प्रसार इनका जुनून है। युरोप में स्थापित हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता इनकी दृ्ष्टि और निरंतर सक्रियता का एक प्रमाण है। इसी तरह अक्षरम के अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलनों के माध्यम से विश्व भर में हिंदी के प्रचार - प्रसार का प्रयास इनकी सक्रियता की उपज थी। पहले ब्रिटेन और अब फीजी में व 2005-2015 तक  विश्वभर के सक्रिय हिंदी कर्मियों के साथ जुड़ाव से इन्होंने एक विश्व दृष्टि विकसित की है , एक कार्य योजना का खाका खींचा है, कुछ व्यावहारिक कार्यक्रम सोचे हैं और क्रियान्वित किए हैं। यह सोच, यह विजन , यह अनुभव विश्व भर में हिंदी प्रेमियों के लिए एक स्फूरण का काम कर सकता है। वैश्विक स्तर पर ऐसे कुछ लोगों की सक्रियता से वैश्विक हिंदी का स्वरूप करवट ले सकता है। यह पुस्तक उनके इस संबंध में विचारों की प्रस्तुति करते हैं। इन विचारों में आग है, आशावादिता है, संकल्प हैं, परिपक्वता है और एक व्यापक जीवनदृष्टि है । 



कुल मिलाकर यह संकलन प्रवासी साहित्य का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज और वर्तमान प्रवासी रचनाकार और उनकी रचनाओं पर एक सार्थक, रचनात्मक गंभीर टिप्पणी है, जो प्रवासी विमर्श का रास्ता खोलेगी, रचनाओं और रचनाकारों पर एक बहस की शुरूआत करेगी , व्यक्तियों, पुस्तकों और रचनाओं को देखने के लिए एक रचनात्मक नजरिया देगी जो संकुचित नहीं है, व्यापक है, जिसमें भारतीय जीवन दृष्टि और मूल्य तो हैं ही पश्चिम की  मूल्य प्रणाली की भी गहरी समझ शामिल है । यही चीज उनके रचनाकर्म को और पुस्तक को विशिष्ट बनाती है। पुस्तक को मेरी बहुत शुभकामनाएँ।

गुरुवार, 17 मई 2018

प्रवासी जीवन  की ऐसी तस्वीर - जहाँ  घटनाएं नहीं जीवन  है
अनिल जोशी 

 “Every word a woman writes changes the story of the world, revises the official version.” Carolyn See


यह कहानियां मूल रूप से दौड़ते- भागते जीवन , बोर्ड रूम के दाँव -पेंच , राजनीतिक शह -मात की , खून- हत्याओं की ही नहीं हैं। यद्यपि ऐसे भी उल्लेख हैं।  यह कहानियां रिश्तों की धीमी आँच पर पकाई गई हैं, रेशम की तरह महीन काती गई हैं, इनमें कोयल के स्वर की मधुरता और पपीहे के करूण स्वर हैं। बहुत सी कहानियों में आपको बहुत घटनाएं नहीं मिलेंगी परंतु इसमें जीवन का रस और ज़ज्बा है।  जब आप विदेशोंं मे रहने वाले भारतीयों के अंतर्मन को माईक्रोस्कोप से देखना चाहें , जब आप उस परिवेश में रह -रहे समाज के स्त्री- पुरूष संंबंधों और रिश्तों की गहरी पड़ताल करना चाहें, आप इस किताब को उठाएं , यह आपको एक ऐसी   दुनिया में ले जाएगी जिसे देखने और दिखाने की दूरबीन प्रवासी स्त्री के पास ही है, इस मायने में यह किताब आपके पुस्तक शैल्फ के लिए अनिवार्य यानि मस्ट है। यह कहानियां आपको आवाज देंगी, आपका ध्यान खीचेंगी, आपसे सवाल करेगी , आपके साथ चल देंगी ।  आपकी सोच को व्यापकता, दृष्टि को गहराई और संवेदना को आकार देंगी। 

सबसे पहले तो मैं यह कहूंगा कि मुझे दिव्या जी की असीम ऊर्जा, प्रतिबद्ध्ता और जिजिविषा पर सुखद आश्चर्य है। कैंसर जैसी बीमारी से लड़ने के बाद , इतनी जल्दी देश -विदेश में बिखरी इन कहानीकारों की रचनाओं का संकलन तैयार करना  अपूर्व सफलता   है। यह संग्रह प्रवासी साहित्य की यात्रा में एक विशिष्ट उपलब्धि है । इतनी सारी रचनात्मक उपलब्धियों को एक स्थान पर संयोजित करने में उन्होंने जो ऊर्जा, परिश्रम और रचनात्मक क्षमता लगाई है , उसके लिए दिव्या जी का तारीफ़ जितनी की जाए कम है। उनकी असाधारण ऊर्जा हम सबके लिए प्रेरणा है। 

प्रवासी साहित्य की  जिन विशेषताओं स्मृृति, अस्मिता के सवाल ,  प्रकृति, स्त्री विमर्श, स्त्री-पुरूष संबंध, पीढ़ियों के संघर्ष व द्वंद्व , सभ्यतामूल्क अंतर्द्वंद्व , रंगभेद, यांत्रिकता पर चर्चा होती है।  वे सब विशेषताएं किसी सायास प्रयास के तहत नहीं , बल्कि घटनाओं, स्थितियों , परिवेश, मन:  स्थिति , रोचक चरित्रों के माध्यम से इस संकलन में प्रस्तुत हुई हैं। यह प्रतिनिधि महिला रचनाकारों की प्रतिनिधि कहानियाँ हैं। लगभग सभी साहित्य में एक मुकाम हासिल किए हुए। बहुत से हिंदी में पी.एच.डी भी। तो ये भाषा और साहित्य के दिग्गज हैं।  हिंदी उर्दु; ब्रिटेन, यूरोप ,  अमेरिका , कनाडा , मध्यपूर्व, चीन की प्रतिनिधि हिंदी रचनाकार स्त्रियां इसमें एक स्थान पर हैं। हिंदी साहित्य को प्रवासी महिला कथाकारों के जिस प्रतिनिधि संकलन की तलाश थी , वह यही है। संकलन की तमाम लेखिकाओं ने इस खूबसूरती और रोचकता से अपनी बात कही है , कि यह बातें और चरित्र केवल दस्तक नहीं देते , बल्कि आपके दिमाग में घर कर जाते हैं। जैसा तमाम खूबसूरत कविताएं और कहानियां करती हैं। इन महिला लेखिकाओं की कारीगरी देखकर भारत की उस वास्तुकला का स्मरण हो आता है , जहां अपनी छेनी -हथौड़ी से शिल्पकार ऐसी मूर्तियों का निर्माण करता था जो  वर्षों तक अपनी कला से लोगों को आश्चर्यचकित कर देती थी । उन मूर्तियों  का  आकार, अनुपात, घुमाव, सज्जा, अलंकार , अलंकारहीनता , सादगी देखकर आप मुग्ध हो जाते हैं , वैसी सी ही बारीकी इन संकलन के  कथाकारों के काम में है।  यह कहानियां प्रवासी जीवन का रचनात्मक इतिहास प्रस्तुत करती हैं। अपने समय का असली आईना प्रस्तुत करती हैं। और यह आईना संघर्षों से निकली  औरतों ने तराशा है, इसलिए प्रामाणिक है। प्रवासी भारतीय महिला कथाकारों के लेखन की यह खुशबु आपकी सांसों में बस जाएगी । इस गुलदस्ते के सभी फूलों को प्रणाम । मुझे खुशी है कि मुझे इस संग्रह पर बात करने और उन्हें आपके समक्ष प्रस्तुत करने का मौका मिल रहा है। 

यह संग्रह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसने ऐसी नायिकाएं दी हैंं, जो किसी पुरूष द्वारा लिखे कथानक में खलनायिका या हास्य की पात्र  हो सकती थी। उषा प्रियंवदा की इला  को आसानी से चरित्रहीन करार दिया जा सकता है  अनिता शर्मा  की मोटी, थुलथुल  शुवे हास्य की पात्र हो सकती है  , दिव्या माथुर की ऋचा,  उषा वर्मा की सलमा,  तोषी अमृता की नेहा,  उषा राजे की सेलिमा में भी पारंपरिक नायिकत्व नहीं हैं। पंरतु इन स्त्री कथाकारों की कलम ने उन्हें नायिकत्व प्रदान किया । यहां हमें ' पहचान एक शाम की 'कहानी   पर भी विचार करना होगा । अपनी इच्छा के एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में जाना विनीता के लिए क्या इतनी बड़ी बात हो सकती है कि उस पर कहानी लिखी जाए ? क्या आप विश्वास करेंगे की  यह लदन मं रह रही शिक्षित महिला के लिए यह बहुत बड़ी समस्या  है? यह हमारे समाज में पुरूष -स्त्री के समीकरण में असमानता की क्या स्थिति है , और औरतें अभी भी किन बेड़ियों की शिकार हैं,  उसकी कहानी भी कहता है। यह भी बताता है कि विदेश में रहने वाली भारतीय स्त्री भी उससे मुक्त नहीं है।   आमतौर पर हम कथानकों मे ंदेखते है ंकि कोई व्यक्ति निर्णय गलत लेता है तो उसे कठिन परिस्थितियों या  चुनौती का सामना करना पड़ता है। पर नीरा त्यागी की ' जड़ों से जुदा पेड़'  की मां या सुधा ओम ढींगरा की  'कमरा नं. 203'  की मिसेज वर्मा या उषा वर्मा की सलमा,  , ज़किया  जुबैरी की सीमा, नजमा उस्मान की नायिका , शैल अग्रवाल की कनकलता अर्चनाा पैन्युली की अनुजा, पुष्पा सक्सेना की वर्जीनिया, अरूण सब्बरवाल की सूज़ी,   को इसलिए दुनिया भर की मुसीबतों को सामना नहीं करना पड़ता कि उन्होंने  कुछ गलत किया है। अच्छा होना ही उनकी गलती है, उनकी समस्याओं का जड़ है।   वे अच्छी हैं, ममतामयी हैं, सेवाभावी है, सहिष्णु हैं, कठिन से कठिन कष्ट सह कर भी पति या पुत्र का  भला करना चाहती हैं मतलब      गड़बड़ उनके किसी निर्णय में नहीं  है बल्कि समाज के सोच, विचार , दर्शन में और उस प्रणाली और ढांचे में है जो  उनकी सह्र्दयता को ही कमजोरी मान कर उनका शोषण करता है। हां एक अतर्विरोध भी है कि ऐसा शोषण करने वालों में सशक्त  स्थिति की महिलाएं भी है, जैसे सास-बहु संबंधों में नगरों में बहु या और भी। इस संग्रह में  इस सोच , समझ और दर्शन को, उसकी जटिलताओं के साथ बहुत सफाई से  सामने लाया गया है । इस असमानता को  दूर करने के लिए  स्व:  की सशक्त अभिव्यक्ति की जरूरत हैं जो इन कथाकारों ने की है।    इस संदर्भ मे इन स्त्री कथाकारों का लेखन लेखन नहीं एक्टिविज्म भी बन जाता है। भारतीय समाज में  असमानता की सहज स्थितियों और पुरूष वर्चस्व  को देखते हुए ऐसे लेखन और एक्टिविज्म की जरूरत किसी से छिपी नहीं। 



पुस्तक की पहली कहानी ‘ मेहरचंद की दुआ’ अचला शर्मा की लिखी कहानी है । बी.बी.सी की पूर्व -प्रमुख  अचला शर्मा की कहानियों की विशेषता जटिल कथानकों का बखूबी निर्वाह करना है। प्रस्तुत कहानी में हिदू -मुस्लिम पहचान का सवाल है, अवैध प्रवासियों के सपनों और जेल की सलाखों के बीच झूलता जीवन है। मेहर आलम को इस अवैध जिंदगी के सफर में ऐसी महिला का साथ मिलता है कि अपने मुल्क पाकिस्तान से जुड़ने और बेटे को लंदन बुलाने की आकांक्षा पर सवालिया निशान लग जाता है!  कहानी का कैमरा  जिंदगी के एक पडा़व से दूसरे पड़ाव पर ले जाता है और इस प्रक्रिया में जिस क्लाईमैक्स से परिचय आता है , वहाँ पाकिस्तान में बसे  परिवार के साथ पहले की तरह संबंध बनाने और उन्हें लंदन बुलाने  के लिेए वर्षों तक बेताब मेहर की अब  ना हाँ है, न ना है। कठिन परिस्थितियों में जीवन रस ढूंढते एक जिंदा इंसान की जिंदा बने रहने की कवायद का चित्रण है  इस कहानी में।
‘शुवे’ कहानी मे लेखिका अनीता शर्मा  ने एक बड़ा काम यह  किया है कि उन्होंने अपने  चीन से लंबे जुड़ाव के  कारण भारत और चीन में सामाजिक-सांस्कृतिक- पारिवारिक मूल्यों की समानताओं को  चिन्हित कर  हिंदी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। यद्यपि कहानी का उद्देश्य यह नहीं है।  कहानी मल्टीनेशनल कंपनी में वरिष्ठ पद पर काम करती अच्छी- खासी हट्टी -कट्टी शुवे की है जिसे जीवन साथी की तलाश है । उसके माता-पिता की निरंतर अपेक्षा और पश्चिमी संस्कृति से ओतप्रोत सामाजिक वातावरण में उस पर  साथी ढूंढने का दबाव है। इस  यात्रा में उस समय दिलचस्प मोड़ आता है जब उसे अमेरिकन फिटनेस कोच  क्रिस साथी के रूप में मिल जाता है। पर क्रिस के दिलफेंक और कई स्त्रियों से संबंध बनाए रखने की जानकारी मिलने पर शुवे के दिल टूटने और जिंदगी के नए रास्ते ढूंढने पर यह कहानी समाप्त होती है। कहानी में चरित्र चित्रण और विकास दिलचस्प है। शुवे के माता-पिता का व्यवहार , बेटी पर किसी साथी को ढूढने का दबाव किसी भारतीय माता-पिता जैसा  है। अमेरीकी - गोरे लड़के के प्रति आकर्षण भी भारत या भारतीयों की तरह ही है। भारत और चीन को साहित्यिक रास्तों से जोड़ने के लिए और प्रयत्न किए जाने चाहिएंं। 

अनिल प्रभा कुमार की कहानी ‘ दिवाली की शाम’ प्रवासीयों की बैलेंसशीट प्रस्तुत करती  है , जिसमें स्पष्ट है कि डालर, चैकबुक,  बड़ा घर, कारों का काफिला और  ऊंचे पद आदि जिंदगी का खालीपन नहीं भर सकते । प्रवासियों के बच्चों के शादी ना करने , या शादी ना होने , या शादी सफल ना होने से दिवाली की शाम को  एक बड़े घर में फैली भयावह चुप्पी और उदासी है। अमावस्या की कालिमा ने जैसे सब संबंधों को घेर लिया हो और अपने- अपने अंधेरे के वृतों के कुओं से जैसे एक खामोश चीख निकल रही है , भारतीयों द्वारा सबसे ज्यादा धूमधाम से मनाए जाने वाले इस त्यौहार में घर में फैली निराशा और उदासी मरणांतक है और बताती है कि  जीवन में लगी दीमक के कारण लोग जी तो रहे हैं पर जिंदा नहीं है। इस बाग में संबंधों की नई कोंपलें उग नही रही हैं।  वे सब एक ठहरे हुए समय को झेलने के लिए अभिशप्त हैं।

“पहले हर दीवाली को ( मनी के)  उसके मन में एक कंपकपाहट होती थी। शायद, अगली दीवाली पर कोई दूसरा घर हो और वह ख़ुद गृह-लक्ष्मी हो। लाल साड़ी में गहनों से झिलमिलाती वह किसी की तरफ यूँ ही प्यार से देखे और कहे,” ज़रा गणेश -लक्ष्मी जी को तिलक तो लगा दीजिए। “
उसने आँख बंद की हुई थी और आज उस ख़्य़ाल की एक छोटी सी झलक भी अंदर नहीं तिरी । कितनी दीपावलियाँ बीत गई - यूँ ही , इसी घर में। उसके सीने से एक हल्की -सी कराहती -सी साँस उठी और वहीं हल्के अंधेरे में सिमट गयी। “पृ. 38
‘ मायादास के कानों में कहीं बहुत दूर दीवाली के बम फूटने की आवाजें गूँज रही थीं। अमावस्या की रात में उनके मन में जैसे रोशनी की इच्छा ने सर उठाया । “पृ.39

‘वह जो  अटूट नहीं’ कहानी इस संग्रह की बड़ी  नाज़ुक, प्यारी- सी कहानी है । जहाँ प्यार है , संवेदना है, विवशता है । जीवन की सबसे कोमल संवेदनाएं हैं , प्यार के सूक्ष्म एहसास हैं, एक दूसरे को चाहने की कशिश है पर उससे उठते सवाल हैं।यह गर्दन के नीचे लकवाग्रस्त पति की पत्नी , उसे सहायता देने वाले व्यक्ति मोर्स रीडर ( पलकों की भाषा के अध्य्यनकर्ता) के सहज -स्वाभाविक प्यार की कहानी है, जिसमें नैतिकता एक द्वंद्व के रूप में पूरी कहानी में विद्यमान है। यही द्वंद्व कहानी को रोचकता , कोमलता , और बड़ा फलक प्रदान करता है।  यह एक अपनी सांसारिक परिणिति में असफल प्रेम कथा बन जाती है। पंरतु रिश्ते अपनी खुशबु हमेशा के लिए छोड़ जाते हैं।  संवेदना के महीन तंतुओं से बुनी यह कहानी अपने आप में संग्रह की  एक उपलब्धि है। 
 “ फिर रोत-रोते उसने स्नेह से मुझे देखा था, कि उसके इस तरह से मुझे देखने को वहाँ ( भारत में) क्या कहा जाता - व्याभिचार ! मैं सकते में आ गया था । नरम पंखुड़ियों सी भावनाओं के कैसे कठोर , घृणित नाम ,…यह बन्धन उसकी कड़वाहट था और इसी में उसे मिठास का अनुभव भी होता था।” पृ. 61

“ मै क्या था उसके लिए ? कुछ भी नहीं । फिर वह क्यों आँखों में वेदना लिए मुझे ताकती रहती है और फिर एक नि:श्वास के साथ दूसरी ओर देखती है? कैसा सम्बन्ध था यह? एकदम टूटा हुआ, पर कहीं से जुड़ा हुआ और जुड़ कर भी हर जगह से टूटा हुआ। इसमें स्थिरता नहीं थी ,यह अटूट नहीं था। .. मुझे मालूम था वह मेरे अस्तित्तव को वह नकार देती है क्योंकि उसे स्वीकार करना उसके लिए अपराध है। क्योंकि समाज के पास ऐसे रिश्तों का कोई नाम नहीं और जिन रिश्तों का नाम नहीं , उन्हें गुमनाम नहीं , बदनाम कहा  जाता है। और इससे बड़ा सत्य था परिमल ! जिसे वह प्यार करती थी और वह परिमल उसका पति ही नहीं , उसका बच्चा भी था। उस पर वह आश्रित थी और उसका आश्रय भी थी। …” पृ. 62 
पर कहानी इस एहसास पर खत्म होती है-
जिस संबंध में प्रेम हो , आस्था हो, मानसिक अवलंब हो वह ग़लत कैसे हो सकता है? इसे यूँ ही समाप्त क्यों हो जाना चाहिए? पृ. 64

 अरूण सब्बरवाल की  ‘चाँद फिर निकला’  स्त्री मन को चित्रित करती संवेदनात्मक कहानी है जिसमें बलात्कार की शिकार महिला और उसके परिवार के पुनर्स्थापन के सफल प्रयास का चित्रण है।  


20 वीं शताब्दी  में जार्ज आरवेल के प्रसिद्द उपन्यास  1984 का बड़ा महत्व रहा है। उपन्यास के केंद्र में एक ऐसा फार्म हाऊस था जहां सब लोगों को बिग बास द्वारा देखा जा रहा  है। उसी तरह की एक कहानी दिव्या माथुर की है- 2050 । यह कहानी आज की आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस और वर्चुअल रियलटी की दुनिया पर सवाल खड़े करती है।  यह  लेखिका के  भविष्यदृष्टा होने को स्थापित करता है, जो शायद किसी लेखक का प्रमुख दायित्व भी है। यह कहानी आई क्यू के आधार पर विकसित हो रही भविष्य की दुनिया का सटीक चित्र प्रस्तुत करती है, और उसे प्रश्नों के घेरे में लेती है । कहानी की  रोचक प्रस्तुति  में इसका भयावहपन अपनी विडंबना के साथ उभर कर आता  है। ब्रिटेन के जीवन की ठोस भावभूमि पर टिकी यह कहानी यांत्रिक जिंदगी पर गहरे  सवाल उठाती हैंं। मुख्य बात यह है    यह सवाल महिला होने के नाते जन्म देने के अधिकार और परवरिश करने के सवालों पर केंद्रित हैं। क्या हिटलर और स्टालिन में आई क्यू कम था?  इस कहानी का दिल्ली और लंदन में नाट्य रूपांतरण कर मंचन भी किया जा चुका है। कहानी की केन्द्रीय पात्र ऋचा की चीख  गढ़े जा रहे  भविष्य के प्रति एक गहरी आशंका को जन्म देते  हैं-  

“एक बच्चा पैदा करने के लिए वह भीख माँगती फिर रही है; पैदा उसे करना है, देखभाल उसे करनी है , यो यह कौन होते हैं  निर्णय लेने वाले? आत्महत्या के लिए भी उसे इनकी इजाज़त चाहिए। पृ. 91
कहानी में एक अलग तरह की यांत्रिक समानता की कल्पना की गई है-
“ पेड़ों की ऊंचाई , चौड़ाई और घनता सब एकरूप थी। मजाल था कि एक पेड़ दूसरे से थोड़ा -सा ऊँचा हो या घास का एक तिनका ज़रा -सा सिर उठा ले।” पृ. 94

‘अनुजा’ अर्चना पैन्युली की सशक्त रचना है , जिसमें एक नए अपरिचित देश में , गैर-कानूनी कामों में लिप्त पति के साथ संबंधों और अवैध इमिग्रेशन से उसके जीवन के विनाश के कगार पर पहुंचने की समस्या  का चित्रण हैं।  यहां एक पुरूष द्वारा धोखा दी गई महिलाओं के अंतरसंबंधों का जटिल ताना-बाना भी है।   एक गैर - कानूनी कामों में लिप्त व्यक्ति के साथ जीवन जीने को अभिशप्त अनुजा के संघर्षों का जटिल संवेदनात्मक चित्रण अर्चना पैन्युली ने अपनी पैनी कलम से किया है। 


इला प्रसाद की कहानी ‘मेज़’ उस अर्थ में विशिष्ट है कि महिला कथाकारों की कहानी में  पक्षियों और प्रकृति का ठोस चित्र ना होता तो यह संग्रह अधूरा रहता । जहां पुरूष के लैंडस्केप में प्रकृति उतनी प्रमुखता से नहीं आती  है , वहीं  स्त्री के मानसिक लैंडस्केप का वह अनिवार्य हिस्सा है । घर की  एक बेकार और फालतू चौकी के सुंदर पक्षियों के डाइनिंग टेबल बन जाने पर कहानी जिस उल्लास पर खत्म होती है , वह व्यक्ति को समष्टि से जोड़ने और उसमें महिलाओं की भुमिका को रेखांकित भी करता है। कहानी की बुनावट बड़ी महीन और सटीक है-

“भारत होता तो शायद वह चौकी हमारी सबसे महत्वपूर्ण चीज़ होती।  सत्यनारायण कथा में उपयोग में आती और घर के बाहर ना होकर पूजा की वस्तु बनती ।  लेकिन परिवेश की भिन्नता के साथ चीज़ों के मायने भी बदल जाते हैं। “ पृ. 108
धीरे से वे पक्षी चौकी पर उतर आये।
‘ यह इनकी डायनिंग- टेबल है। आराम से खायेंगे।” सचिन मुस्कराये। और सचमुच अगले ही कुछ मिनटों में ढेर सारी गौरेया, लाल फ़िंच का जोड़ा, पंडुक, मैना , कौवा और कबूतर मेज़ पर फैलकर एक -दूसरे से लड़ते -झगड़ते खाना खा रहे थे। 
…. हमें वह बदरंग हो आयी, अधटूटी चौकी आज बहुत अच्छी लग रही थी। अब वह मेज़ थी , चौकी नहीं। “ पृ. 111
जया वर्मा की कहानी ‘ सात कदम’ एक पवित्र मन सी लिखी कहानी है जिसकी एक उल्लेखनीय विशेषता ब्रिटेन का प्रकृति चित्रण है। कहानी के दो मुख्य पात्रों का मानवता के प्रति समर्पण प्रेरणादायी है। कादंवरी मेहरा की कहानी ‘एक ख़त ‘ महिलाओं के शोषण में धार्मिक मठाधीशों की करतूतों का भंडाफोड़ करती है। कहानी की विशेषता आखिर तक सस्पेंस बनाए रखना है।  वहीं कमला दत्त की कहानी ‘ तीन अधजली मोमबत्तियां जला..’ एक विराट फलक पर लिखी कहानी  है, जो व्यक्ति मन, समाज चेतना, धार्मिक विश्वास , आध्यात्मिकता , ज्वंलत सामाजिक सवालों - रंगभेद पर गहरे सवाल उठाती प्रेम का तानाबाना बुनती है। विचारों - संवेदनाओं- फलसफों - व्यक्तियों और संबंधों को उलझाती-सुलझाती यह कहानी संवेदना की डोर से एक सूत्र में बंधी रहती है।  इस लंबी कहानी में कथ्य और संवेदना का निर्वाह लेखिका की विशिष्ट उपलब्धि है। और अपनी परिणति में यह प्रेम के उम्दा क्षणों की महक छोड़ जाती है। 



प्रवासी साहित्य की एक प्रमुख विशेषता स्मृतियाँ हैं,  कविता वाचक्कनवी की कहानी ‘रंगों का पंचाग’  होली की  सैंकड़ो स्मृतियां, रूपक, बिंब , चित्र खड़े करती है।    हजारी प्रसाद द्विेवेदी सी प्रांजल भाषा में, बेहद खूबसूरत प्राकृतिक प्रतीकों और बिंबों के साथ , कविता जी ने जो चित्र प्रस्तुत किया है , उसमें रस है , लालित्य है, ऋतु दर्शन है।  भारत में होली का उल्लास व्यक्तियों तक सीमित नहीं रहता , अपितु पक्षी, पेड़ , पौधे, फल-फूल , कैसे होली के उल्लास से भर जाते हैं, उसका चित्रण इस कहानी में है। कुछ प्रसंग तो उनके नाम के अनुरूप कविता हो गए हैं -

“सचमुच यह देश बेगाना है! यहाँ के पेड़ -पौधे तक बेगाने हैं। … वहाँ घर तो मेरा अम्बड़ा, मेरा जामुन , शहतूत सब झूमने लगते थे। और तो और आँगन का नीम तक मिठा जाता था, छोटी-छोटी मधुमक्खियाँ उसे घेर कर चुमने लगती थीं, सफेद बौर से लद जाता था नीम। कच्चे , हरे , छोटे-छोटे शहतूत झूला झूलते। कोयल तो इतनी बावरी हो जाती अमराई में कि पंचम गाती न अघाती। चीख-चीख कर मतवाली हो इतना - इतना कूकती  कि कई बार खीझ हो उठती थी। टेसु के तन -बदन में अंगारे दहकने को होते, उसकी डालियों की कलाइयाँ लाल चूड़ियों से भर जाती। पीपल पर लालिमा लिए हरे पारदर्शी पत्ते छूने पर भी शरमा जाते। अशोक की एक -से -एक सटी टहनियों के जमावड़े में कुछ नन्हीं शाखें छिप-छिपकर बातें सुनने रातों -रात प्रकट हो जांती। गन्ने’ फिर मिलेंगे’ कहकर जा चुके होते और सरसो के लचीले बुटे सारी देह पर अलंकार धारे मेरे खेतों में स्वर्णिण आभा बिखरते। कनकों से भरे खेत -खलिहानों में  मानों स्वर्ण के अंबार भर जाते , ढेरों -ढेर गेहूँॅ ! ढेरों-ढेर सोना! इक्का -दुक्का बादाम के पेड़  नंगे बदन पर हरे -धुले वस्त्र धारे अपनी छत तान लेने की वृत्ति से बाज नहीं आते थे.” पृ. 152

  स्वर्गीय कीर्ति चौधरी का नाम रचनाकारों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। यह पुस्तक जिन वरिष्ठ रचनाकारों को समर्पित हैं , उनमें से एक वे भी हैं। कई कहानियों की चाबी उसके आखिरी संवादों में निहित होती है। जीवन भर युवाओं की अल्हड और धूम - धड़ाके वाली जिंदगी से  बचने वाली जहाँनारा का जीवन अकेलेपन और संयम का रहा है,  कहानी के आखिर में उसका एक संवाद एक दूसरी अनअपेक्षित    मन: स्थिति की और संकेत कर रहा है, जहां वह अब तक के जीवन , सोच और दृष्टिकोण के प्रति सवालिया निशान लगा जाती है इसमें जीवन के उस शोर और उत्साह का हिस्सा ना बन पाने का दुख है, उदासी है-
‘सोचती हूँ, यदि उस दिन दरवाजा खोलकर उन लोगों का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया होता तो आज मेरा जीवन कैसा होता?” पृ.159

मोहसिना जिलानी की ‘ खनकती हुई हँसी’ एक नाटकीय कहानी है , जिसमें खूबसूरत बिंब है और स्त्रियों को  गुलाम बना कर रखने की मानसिकता पर गहरी चोट। कहानी के बिंब, प्रतीक , दृश्य बहुत प्रभावी हैं, लेखिका ने टेम्स के किनारे को जीवंत कर दिया गया है। 

 नजमा उस्मान की  ‘पैरासाइट्स’ कहानी वैवाहिक जीवन के अंतरविरोधों को प्रस्तुत करती है। कैसे जंगली बेल चाहे -अनचाहे हनीसकल को दबोच लेती है, उसी तरह  अजनबियों की तरह , एक दूसरे से विपरीत धुव्रों पर, बिल्कुल अलग -अलग आदतों वाले पति-पत्नी एक छत के नीचे  जीवन बिता देते हैं , रोज यह चाहते हुए भी कि आज का दिन साथ रहने का आखिरी दिन हो। लेखिका इस विचित्र जीवन व्यवहार का ताार्किक  विश्लेषण  प्रस्तुत करती है , प्रकृति के माध्यम से ! शायद नाज़ुक बेल और जंगली बेल परजीवी हैं। शायद एक दूसरे को बिल्कुल नापंसद करना और साथ ही जीवन भर निर्वाह करना दोनो ही सच हैं।
‘ हनीसकल बाढ़ पर छा गई थी और उसकी नाज़ुक डालियों के सहारे ऊपर चढ़ रही थी एक जंगली बेल भी । कितनी बार उसने इस जंगली बेल को खींचके अलग फेंका है पर वह जल्द ही हनीसकल को फिर -फिर दबोच लेती है। वह सोचती है विज्ञान के हर सिद्दांत के अपवाद भी हैं- शायद हनीसकल और जंगली बेल दोनों पैरासाइट्स हैं- मुफ्तख़ोर , जो एक दूसरे की दया पर जीवित हैं, शायद वे एक - दूसरे के बिना नहीं जी सकते । “  पृ. 171 
दिव्या जी द्वारा किया गया कहानी का उनका अनुवाद भी प्रवाहपूर्ण है। 

आख़िरी गीत - स्व. नीना पाल की कहानी है जिसमें पिता - पुत्री के संबंधों का रोचक और संवेदनशील चित्रण है ही, साथ ही कैंसर से ग्रस्त व्यक्ति की दारूण स्थिति का उल्लेख है। कहानी से स्पष्ट   है कि जीवन के अंत तक नीना पाल ने सकारात्मकता और आदर्श संजोए, जिनका इस कहानी में चित्रण है। कहानी संग्रह को जिन लोगों को समर्पित किया गया है , उनमें से नीना जी भी है। पूरी कहानी एक अजीब दर्द और बैचेनी पर तिरती रहती है।  नीरा त्यागी की कहानी ‘जड़ों से जुदा पेड़’  उन बुजुर्ग महिलाओं को केंद्रित कर लिखी गई है , जो प्रवासी परिवारों के साथ उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने जीवन को होम कर देते हैं। माँ को केंद्र में रख लिखी गई इस संवेदनशील कहानी में ऐसे व्यक्तित्वों को जड़ों से उखाड़ कर उन्हें नई जमीन पर नए परिवेश में लगाने के प्रयासों पर टिप्पणी है-
“ लंदन और बैंगलोर के प्रवास ने उनके मन को बेघर कर दिया था। जो इच्छाएँ खुशी-खुशी ममता की कुरबानी चढ़ती रहीं, अब उन्हें भीतर ही भीतर खुरपी  से खोद रही थीं; वो इतनी घायल थी कि खुद को आइने में नहीं  देख पातीं और ना ही खुद का ख्याल रख पा रही थीं। जो मन इतनी सहिष्णुता, करूणा , वात्सल्य से भरा था, वहाँ एक गहरा कुआँ ख़ुद गया था जिसमें वे  खुद डूब रही थीं। … वो जड़ों से जुदा एक पेड़ हैं, जो अपनी मिट्टी के अलावा कहीं और फल-फूल नहीं सकता और अब अपनी मिट्टी भी नहीं बची,,, उनके चेहरे की झुर्रियों में उनकी मरी हुई इच्छाएँ दर्ज थीं, जिनकी कुर्बानी उनकी बेटी और उनके परिवार ने मांगी थी।”
 कहानी  प्रत्यके प्रवासी परिवार में चल रही बुजुर्गों को जड़ों से उखड़ने की  प्रक्रिया का गहरा मनोविश्वेषण प्रस्तुत करती है। 


पश्चिम की सोच के केंद्र में व्यक्ति है, उसे परिवार और समाज  को विरोधी और प्रतिद्वंद्वी बना कर प्रस्तुत किया जाता है । इसका एक परिणाम  यह है कि व्यक्ति अपनी शर्तों पर जीता है , परंतु उसकी मौत के समय में उसके पास कोई नहीं होता। ऐसा अकेलापन , ऐसी मौत भारतीय व्यक्ति सोच और संवेदना  पर आघात कर देती है। इस अजनबीपन और मृत्युबोध से जूझती दो कहानियाँ इस संकलन में हैं पहली सुदर्शना प्रियदर्शनी  की  ‘अखबार’ और दूसरी पूर्णिमा बर्मन की  ‘नमस्ते कार्निश ‘ । 
अखबार कहानी उन अर्थों में प्रवासी कहानी है कि यह  संवेदनाहीन , अपरिचय के दायरों में पत्थर होते जाते मनुष्य का चित्र है , जहाँ  वर्षों तक साथ-साथ रहने वाले, एक ही ड्राईव -वे से रोज अखबार उठाने वाले, व्यक्ति से घनिष्टता तो दूर उसका नाम तक पता नहीं । कहानी इसका एक कांट्रास्ट उद्धरण भी कहानी भारतीय संदर्भों में प्रस्तुत करती है। जहां किसी के देहातं पर जाने में परिचय -अपरिचय का कोई अर्थ नहीं है। लेखिका के सवाल देखिए-
 कैसी है यहां की जिंदगी ? यहाँ के  ताबूतगाह की तरह खड़े हुए घर साफ़ -सुथरे घर , जिनमें कोई चहल-पहल नहीं। एक सन्नाटे में लिपटी हुई ये इमारतें जैसे धीरे-धीरे सुबकती रहती हों बेआवाज़। यहाँ चहल-पहल केवल बाग -बागानों, नदी -समुद्रों के किनारे पर देखी जा सकती है अन्यथा बंद कमरों में बंद ज़िंदगी। अंदर से चमचमाते निर्जीव घर। न रसोई से उठती ख़ुशबू, न बच्चों की खिलखिलाहट, ने पेडो़ं पर आते बौर, न चहकती चिड़िया- जैसे सब कुछ एक कृत्रिम आडंबर में लिप्त हुआ सभ्यता का आडंबर। फ्युनरल वैन सामने खड़ी हो और पड़ोसी को  उसकी आहट तक ना हो।” पृ. 260
“ये लोग दुख में चीखते -चिल्लाते नहीं है । मौत पर आँसू तक किसी विशेष हिसाब से निकलते हैं। हमारे यहाँ भावनाओँ का , स्मृतियों का , रिश्तों का , रिवाजों का जैसे अंधड़ फूट पड़ता है-अपनी पूरी उद्दाम छलांगों और छपाकों के साथ।  दहाड़ते समुद्र की  बेसुध-पागल - ज्वारभाटा सी बैचेन लहरों सरीखा, जिसमें गली -मुहल्ला, घर-मकान , व्यक्ति, अपने -पराये एक बार सभी डूब जाते हैं।  पृ. 263
मानवीय संवेदनाओँ से भरपूर यह कहानी अत्यंत मार्मिक बन पड़ी है और अहम प्रश्न मृत्यु का संदर्भ ले सभ्यतापरक  पड़ताल करती है। जिससे उपजे असहज सवाल आपके साथ चल देते हैं। 
वहीं पूर्णिमा बर्मन की कहानी ‘ नमस्ते कार्निश’ एक अजनबी शहर और स्थान को परिचित और आत्मीय बनाने की  लेखिका की रणनीति से परिचय कराती है। एक भारतीय स्त्री  रोज सैर के लिए आने वाले पर पिछले कुछ दिनों से बीमार हशमत अंकल ( केद्रीय पात्र द्वारा दिया कल्पित नाम) को मिलने की प्रार्थना के  करती है। उसका कोर्निश याने सुबह घूमने के आने के स्थान से निकट रिश्ता बन गया है। वह रोज़ सुबह कोर्निश पर सैर के लिए आती  है। उसके विचार से ‘ जब जिंदगी की शाम उतरने लगती है तब मौसम की सुबह का मर्म ज़्यादा समझ में आता है।’  पृ. 197  उस स्थान पर एक दूसरे से पहचान की व्याख्या इस तरह करती  है-
 “वह  एक अजनबी पहचान जिसमें आप हर किसी को जानते हैं पर किसी को नहीं जानते।  “
जब उसे वर्षों से रोज दिखने वाले , पिछले कुछ दिनों से व्हील चेयर पर आने वाले हशमत अंकल नहीं मिलते तो एक दूसरे देश में जिंदगी और मौत के अर्थ खोजने लगती है, सड़क पर प्रसिद्द अरब गायक का गीत पूरे संगीत के साथ गूंज रहा है तमल्लि.. मआक यानी सदा तुम्हारे साथ - जब तुम मुझसे दूर हो तब भी तुम्हारा प्यार मेरे साथ है। पर लेखिका इस सवाल के साथ कहानी समाप्त करती है-
‘कैसा प्यार और कैसा साथ ? कौन किसके साथ है.. कितने दिन साथ रहेगा.. कब चला जाएगा …. कुछ पता नहीं . प्यार क्या है…..रिश्ते क्या हैं… नाम क्या है … किसी च़ीज का कोई मतलब नहीं है योगिनी महाजन के लिए … सब कुछ ख़त्म हो जाना है.. सब कुछ , जिसके साथ प्यार है… या नहीं भी है… क्या अपने …. क्या पराये… किस बहाने से कब चले जायेंगे कुछ पता नहीं। लोगों का दूर चले जाना .. पंचतत्वो में विलीन हो जाना ही अंतिम सत्य है जीवन का । .. बाहर संगीत का शोर है और भीतर गुलमोहर की चार पंखुरियाँ बिखरी पड़ी हैं। जैसे जीवन के पंच तत्व बिखर गये हैं और अब जुड़ नहीं पाएंगे। नीला आकाश … हरा समंदर .. खूब गहरा , खूब गहरा, खूब गहरा उनके मन की तरह सब कुछ समा लेने वाला.. आँखें नम -सी हो आयी हैं… ‘  पृ. 203 यह अपरिचय , अजनबीपन, बेगानापन , अकेलापन मृत्युबोध के साथ मिलकर एक विचित्र अवसाद में ले जाता है और प्रवासी लेखिका सभ्यताओं के मिलन बिंदु पर खड़े हो जीवन और मृत्यु के गहरे प्रश्नों की पड़ताल करती है। 

डॉ पुष्पा सक्सेना की कहानी ‘ वर्जिन मीरा’ एक भारतीय और एक अमेरिकी लड़के के प्रेम संबंधों की दास्तान प्रस्तुत करती है जहाँ एक तरफ धोखा और चालाकी है और दूसरी तरफ मीरा जैसा प्यार । कहानी का निर्वाह रोचक है।  रमा जोशी की कहानी ‘कागज़ के टुकड़ें’  एक खूबसूरत प्रेम कहानी है।  विदेशों में महिलाओं को ले जाकर उनका शोषण   प्रमुख विषय है कई कहानियां लिखी गईं , पर यह शोषण कितना अमानवीय और क्रूर हो सकता है , इसका चित्रण शैल अग्रवाल ने अपनी सशक्त कलम से किया है। परत-दर -परत नायिका पर हुए अत्याचारों का वर्णन अमानवीय होते समाज का चित्र प्रस्तुत करता है। 



शैलजा सक्सेना की कहानी  ‘पहचान एक शाम की’  दिखाती है कि कैसे एक छोटे से प्लाट पर खूबसूरत इमारत खड़ी की जा सकती है । शैलजा की कहानी -एक स्त्री के एक संगीत कार्यक्रम में बच्चों और परिवार की आवश्यकताओं  को देखते हुए जाने - ना जाने के निर्णय में झूलने और अंत में जाने के निर्णय के कारण प्राप्त रचनात्मकता का उपलब्धि के रूप में स्वीकार है। इस छोटी सी कहानी में बडे़ सवाल हैं। यह सवाल जरूरी हैं, धारदार हैं और स्त्री विमर्श के लिए सदा प्रासांगिक हैं।

वह अचकचा कर रुक गयी थी। ’क्या चार साल का छोटा सा बच्चा भाँप गया था कि वह उन सबकी सामूहिक इच्छा के विपरीत अपनी इच्छा को ढूँढने निकल रही हैक्या उसे डर हैकि माँ की ’निजी’ इच्छा में वह दूरअलग-थलग पड़ जाएगाविनीता ने क्षणांश उसे देखा और अपनी बाहों में कस कर बांध लिया, "ज़रूर वापस आऊँगीक्यों नहीं आऊँगीमैं बहुत जल्दीवापस आऊँगी। उसके गालों पर अपने स्नेह का विश्वास अंकित करते हुए उसने कहा था।” पृ. 237

बाहर हल्की बर्फ़ गिरने लगी थीजो लंदन के मौसम के लिए लगभग नयी बात ही थी। उसका मन शाम के वातावरण से बंधाखिंचे तार सा झंकृत था। मन का उजास छोटे-छोटे टुकड़ोंमें मानों आसमान से झर रहा था और वह सोच रही थी, "घर के कामों और रौशनी के ऐसे लम्हों के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता क्याऐसे कुछ घंटों कोहफ़तों और महीनों की थकावटभरी ज़िंदगी में पाना असंभव तो नहीं... फिर क्यों वह ख़ुद को भूल बैठीअपनी पसंद को धकेलते-धकेलते इतने पीछे ले गयी कि घर की सीलन और अंधेरे भरी किस अलमारी में उसे बंद करा... यह भी वह भूल चुकी थी...इसमें ग़लती किसी की नहीं पर भूल तो उस की अपनी ही है!” पृ. 240


डॉ स्नेह ठाकुर की कहानी ‘ जागृति’ एड्स जैसे ज्वलंत मुद्दे पर लिखी सशक्त कहानी है।  हिंदी की सशक्त हस्ताक्षर  डॉ सुधा ओम ढींगरा के हिंदी साहित्य और संपादन में योगदान से हम सब सुपरिचित हैं। उनकी कहानी ‘ कमरा नं 103 ‘ भारतीय परिवारों में बुजुर्ग असहाय महिलाओं के साथ हो रही धोखाधड़ी और शोषण का पर्दाफाश करते हैं। अपने बच्चों और परिवार के लिए सबकुछ लुटाने वाली माँ को अपने प्यार की कीमत अपनी जान दाँव पर लगा कर चुकानी पड़ती है। यह एक अत्यंत प्रासांगिक विषय पर लिखी गई सशक्त कहानी है जिसमें कथ्य का निर्वाह कुशलतापूर्वक किया गया है। 


इस संग्रह की एक और विशेषता रंगभेद के खिलाफ भारतीयों के साथ -साथ कालों के संघर्ष की दास्तां को समाहित करना है। इस पक्ष को शामिल किए बिना कहानियों के माध्यम से हुआ प्रवासी विमर्श अधूरा रह जात। वरिष्ठ और सम्मानित कथाकार   सुषम बेदी की कहानी ‘ एक अधूरी कहानी ‘  एक ऐसे काले युवा की कहानी बयां करती है जिसे अमेरिकान पुलिस ने एनकाऊँटर में मार दिया था। उसके माता -पिता के न्याय के लिए गुहार का  मर्म स्पर्शी चित्रण है।   स्पष्ट है कि रंगभेद के खिलाफ यह संघर्ष अकेले करने के बजाए मिलकर करना होगा । ये कहानियाँ संकलन के इस विमर्श  के फलक को आवश्यक विस्तार देती हैं । सुषम जी की विशिष्ट शैली में लिखी गई यह कहानी संकलन में एक नया आयाम जोड़ती है।  वैसे  कमला दत्त की कहानी ‘ तीन अधजली मोमबत्तियां जला..’ ने भी इस संकलन के  रंगभेद संबंधी विमर्श को रचनात्मक रूप से समृद्द किया है।
तोषी अमृता की कहानी ‘ सर्द रात का सन्नाटा ‘  में प्रेम में अपनों से धोखा दिखाया है। कहानी आखिर तक  पाठकीय उत्तेजना  को बना के रखती  है। 

 प्रसिद्द लेखिका उषा राजे सक्सेना की कहानी ‘ सलीमा तो सिर्फ शादी करना चाहती थी !’ एक आम लड़की और लड़के के साधारण सपनों के शोषण की मार्मिक दास्ताँ हैं क्यंकि वह अवैघ इमिग्रेंट हैं। गरीब लोगों के शोषण की  सटीक तस्वीर इस कहानी में है। शोषण के अड्डे इन तथाकथित अस्पतालों और उनकी प्रक्रियाओं का वर्णन भयभीत करने वाला  और वस्तुनिष्ठ है। विषय का चयन और यथार्थवादी वर्णन इस कहानी की विशेषता है।  डॉ उषा वर्मा की कहानी ‘ सलमा ‘ एक पाकिस्तानी लड़की के शोषण का पर्दाफाश करती है। सलमा ऐसी हजारों लड़कियों में से है जिनको विदेशों मे ले जाकर भेड़- बकरी जैसा व्यवहार किया जाता है,  वह लेखिका के साथ इस दुख को साझा करती है।
“औरत का औरत से ऐसा इक रिश्ता है जो अन्तर्मन का रिश्ता है, वह बिना कुछ कहे ही सब कुछ समझ जाती है, बेटी भी माँ  के इस दुख को समझने में उम्र के तमाम पड़ाव बिना किसी झंझट के पार कर जाती है” पृ. 325 । कहानी अत्यंत मार्मिक है।  वायु नायडु की कहानी ‘ जागृति खबरदार ‘  लड़कियों को एऩ.आर.आई द्वारा विवाह के लिए देखने की और उनकी खरीद-फरोख्त की रोचक दास्ताँ प्रस्तुत करती है।

जकिया जुबैरी की संवेदनशील कहानी “  साँकल “ में पीढ़ीयों के संघर्ष को दर्शाया गया है। दोनों पीढियों ने एक -दूसरे के प्रति साँकल लगा दी है। कहानी में बेटे के आक्रमक , अशोभनीय और आभारहीन व्यवहार से मांँ की पीड़ा की मार्मिक अभिव्यक्ति है। 
“प्रभु, यह औलाद भी क्या बला होती है? क्यों इतना प्रेम होता है इनसे? ये जवाब में तो कुछ भी नहीं देते फिर भी बुरा नहीं लगता । इनके दुर्व्यवहार भी भुला दिए जाते हैं। “ पृ.  347 
माँ की व्यथा है-
“भला कौन अपनी मां को छिनाल कह सकता है- अपने यारों के साथ घूमती है—-अपनी जवानी का एक - एक क्षण .. एक -एक कतरा .. इकलौते बेटे के नाम लिख दिया था…. आत्मा के घाव सहला रही है… मगर दिल में एक डर भी है… कहीं अपने गुस्से में समीर उसकी हत्या तो नहीं कर देगा? नहीं.. नहीं  यह नहीं हो सकता ..आखिर पुत्र है।  भला ऐसे कैसे कर सकता  है। मगर दिल का डर उसे सोने नहीं दे रहा। बिस्तर पर करवटें बदल रही है… एकाएक बिस्तर से उठती है सीमा और भीतर से कमरे की साँकल चढ़ा देती है। “ यह साँकल कमरे की नहीं मन की है।  पृ. 352



इस संग्रह की सबसे खास उपलब्धि   स्वाभाविक रूप से उषा प्रियंवदा की कहानी ‘  आधा शहर ‘ है। यह कहानी स्वतंत्र चेता स्त्री की कहानी तो है ही पर कहानी शिल्प कला में भी एक उपलब्धि है।  कहानी में अमेरिका की एक युनिवर्सटी के डीन का गोवा में आकर युनिवर्सटी में  स्थायी नौकरी के लिए आवेदिका इला से गोवा में कामकाज के सिलसिले में मुलाकात का चित्रण है। धीरे-धीरे प्रखर और स्वतंत्र चेता पर सामाजिक अछूत इला का व्यक्तित्व स्टीरियो टाइप और यथास्थितिवादी डीन पर छा जाता है। कहानी उनकी गोवा में मुलाकात के साथ जिस तरह से बार -बार फ्लैश बैक में जा युनिवर्सटी के स्त्री - विरोधी चित्र चरित्र की पोल खोलती है और तथाकथित अकादमिकों के बदबूभरे दिमाग की पड़ताल करती है , वह धारदार और मर्मस्पर्शी है। गोवा में लहरों, डूबते सूर्य और रोशनी के बीच ड़ूबते -उतरते कहानी पूरी तरह बाँधे रखती है। अपने समय और समाज और वो भी समाज के नेतृत्वकर्ता बोद्दिकों पर केंद्रित यह कहानी विचार , संवेदना और परिवेश के बेहतरीन प्रयोग का उदाहरण है और कमलेश्वर, मोहन राकेश , राजेन्द्र यादव, मनु भंडारी, कृष्णा सोबती  जैसे कहानी कला के दिग्गजों का सहज ही स्मरण कराती है।  "और होता क्या है चरित्रहीन होनाचरित्र है क्याक्या है उसकी परिभाषाउसका सामाजिक सन्दर्भ दिया किसने हैतुम्हीं पुरुषों ने न?" पृ. 302
  
"इतनी हिंसा...इतना प्रतिकार...मुझे मिटा देने की इतनी तिलमिलाहटकितने दयनीय है वे तुम्हारे मित्र...यूनिवर्सिटी के ये जाने-माने लोग।" पृ. 302



ऐसे शानदार गुलदस्तें के संयोजन के लिए दिव्या जी व वाणी प्रकाशन के अरूण महेश्वरी , अदिति को बहुत बधाई । संग्रह की सफलता के लिए अनेकश: शुभकामनाएँ। 


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